प्रो सतीश कुमार
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
singhsatis@gmail.com
अफगानिस्तान में तालिबान जिद की जीत प्रखर होती दिख रही है. अमेरिका की सारी शर्तें कागजी घोड़े की तरह काम कर रही हैं. कैदियों की रिहाई और युद्धविराम में भी तालिबान अपनी मनमानी कर रहा है. उसका मानना है कि वह अमेरिका से वार्ता जारी रखेगा, पर हिंसा भी करता रहेगा. समस्या के हल के बिना 18 साल बाद अमेरिका की वापसी को निश्चित रूप से अमेरिका की हार और तालिबान की जीत के रूप में दुनिया देख रही है. इतना ही नहीं, कूटनीतिक गलियारों में इस परिवर्तन से ईरान, चीन, रूस और कई मुस्लिम-बहुल देश खुश भी हैं. लेकिन अगर पीड़ा किसी एक देश को है, तो वह है भारत. भारत के दुख के कई कारण है.
पहला, भारत की नीति शुरू से ही अफगानिस्तान में अफगान-बहुल राजनीतिक व्यवस्था की नींव बनाने की बात पर टिकी हुई थी. जब अमेरिका ने तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू की थी, उसी समय भारत ने गंभीर चिंता जतायी थी. तब अमेरिका ने भारतीय हितों की सुरक्षा का आश्वासन दिया था, जो अब टूटता हुआ दिख रहा है. दूसरा, भूटान के बाद अगर किसी देश में भारत ने सबसे ज्यादा पूंजी लगायी है, तो वह अफगानिस्तान है. वहां संसद भवन के निर्माण या जारंग-दलाराम हाईवे बनाना या 11 जिलों में संचार का जाल बिछाना जैसे काम भारत ने किया है.
हजारों स्कॉलरशिप के जरिये एक नागरिक समाज बनाने की पहल में भी भारत जुटा हुआ था. तालिबान के आने के बाद ये गतिविधियां पाकिस्तान के संकेत पर थम जायेंगी और भारत की पहुंच कमतर हो जायेगी, क्योंकि पाकिस्तान की अफगानिस्तान सोच ही भारत-विरोध पर बनी है. तालिबान को बनाने-बढ़ाने में पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आइएसआइ का उल्लेखनीय योगदान रहा है.
अमेरिकी हमले से तबाह तालिबान के हजारों लड़ाके पाकिस्तानी सीमा से ही सक्रिय रहे थे. इसलिए यह आशंका है कि पाकिस्तान के साथ तालिबान भारत विरोधी अभियान की नयी व्यूह रचना कर सकता है. तीसरा, जम्मू-कश्मीर में बुनियादी बदलाव के बाद भारत ने फिर स्पष्ट किया है कि पाक-अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है. इस हिस्से के जुड़ने से भारत की सीमा वखान कॉरिडोर के जरिये अफगानिस्तान से मिल सकेगी.
इस सिद्धांत को तोड़ने के लिए पाकिस्तान चीन के साथ मिलकर नया जाल बुन सकता है, जिसमें तालिबान-नियंत्रित अफगानिस्तान की भूमिका खास होगी, क्योंकि चीन का सिपेक कॉरिडोर उसी रास्ते से गुजरता है. चौथा, चूंकि अमेरिकी सेना की वापसी को पाकिस्तान और कई देश तालिबान की जीत और अमेरिका की हार के रूप में देख रहे हैं, तो कुछ शक्तियां यह भ्रम भी पाल सकती हैं कि अगर 60 हजार तालिबानी दुनिया के सबसे ताकतवर देश को परास्त कर सकते हैं, तो पाकिस्तान समर्थित अलगाववादी कश्मीर को भारत से अलग क्यों नहीं कर सकते.
दरअसल, यह उतना आसान नहीं है. आज का भारत मजबूती के साथ दुनिया के सामने खड़ा है, जिसे किसी के रहमो-करम की जरूरत नहीं है. भारत की रक्षा नीति भी स्पष्ट है. पांचवां, भारत ने ईरान के चाबहार बंदरगाह का निर्माण में सहयोग इसलिए किया था कि मध्य एशिया के पांच देशों और अफगानिस्तान से जुड़ाव हो जायेगा. भविष्य में गैस पाइपलाइन और विकास की नयी धुरी तय करने की योजना भी खटाई में पड़ सकती है.
अमेरिका ने तालिबान से समझौता कर अफगानिस्तान को बीच मझधार में छोड़ दिया है, लिहाजा तालिबान के हमले को अब अफगान सरकार को ही झेलना होगा. तालिबान ने साफ कहा है कि समझौता अमेरिका से है, इसलिए केवल उस पर हमला नहीं होगा. समझौते के अगले ही दिन राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कह दिया था कि तालिबान कैदियों को वार्ता से पहले रिहा नहीं किया जायेगा. इसके बाद देश के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने सरकार की मंशा पर ही सवाल उठा दिया. तालिबान ने भी हिंसा की धमकी दे दी.
इतिहास देखें, तो 1989 में जब रूस ने अफगानिस्तान से सेना हटायी थी, तो पाकिस्तान की जमीन पर आतंकियों का प्रसार शुरू हुआ, जिसका खमियाजा भारत को भी झेलना पड़ा था. अगर अमेरिकी सेना लौटती है और व्यूह रचना पाकिस्तान के हाथ में आती है, तो फिर वही होगा, जो 1989 में हुआ था. इससे मध्य-पूर्व के देशों में भारत की पहुंच भी कम हो जायेगी. स्थिति उस समय से भी बदतर है. अब तो इस्लामिक स्टेट के आतंकी भी अफगानिस्तान में जगह बना चुके हैं.
भारत को सुकून केवल इस बात का है कि यह तालिबान पहले के तालिबान से अलग होगा. इस बार उसकी कोशिश सभी पक्षों को साथ लेकर चलने की होगी. भारत की प्रशंसा वहां की आम जनता करती है और भारत की विकास योजनाएं लोगों को दिख रही हैं. दूसरा सुकून यह है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच सीमा विवाद आज भी बरकरार है. अफगानिस्तान डूरंड लाइन को कबूल नहीं करता. संभव है कि सत्ता में आने के बाद अगर तालिबान देश को नये सिरे से विकसित करना चाहता है, तो निश्चित रूप से पाकिस्तान को परेशानी होगी. पाकिस्तान का हथियार आतंकवाद ही है. सुकून की उम्मीदों से मुश्किलें कहीं ज्यादा हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)