पिछले दिनों कच्चे तेल की कीमतों में 30 फीसदी तक की भारी गिरावट दर्ज की गयी, जो एक कारोबारी दिन में बीते 30 वर्षों में सबसे बड़ी गिरावट रही. कोरोना वायरस के कारण दुनियाभर में कई सेक्टर मांग की कमी से जूझ रहे हैं, वहीं ऐसे वक्त में तेल कीमतों में आयी गिरावट से शेयर बाजारों को भी झटका लगा है. प्रमुख तेल निर्यातकों रूस और सऊदी अरब के बीच बढ़ी असहमति की खाई ने विश्व तेल बाजार में हलचल मचा दी है.
इ स हफ्ते की शुरुआत स्टॉक मार्केट में मची भारी उथल-पुथल से हुई. एक दिन में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गयी. पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ओपेक और रूस के बीच तेल उत्पादन को कम करने को लेकर सहमति नहीं बन पाने से कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट आयी है. दूसरी ओर, कोरोना की वजह से दुनियाभर में तरह-तरह की आशंकाएं और अटकलें रहीं, जिसका असर विश्व बाजार की मांग पर पड़ा है. कुल मिलाकर वैश्विक बाजार में अफरा-तफरी का माहौल जारी है. जिस तरह से तेल की कीमतों को लेकर टकराव बढ़ रहा है, आनेवाले दिनों में विश्व अर्थव्यवस्था के हालात सुधरते प्रतीत नहीं हो रहे हैं.
स्टॉक मार्केट में गिरावट से जहां लाखों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, वहीं सोमवार को शुरुआती कारोबार में तेल कीमतें 30 प्रतिशत गिरीं और दिन के आखिर में यह 35 डॉलर प्रति बैरल दर्ज की गयीं. खाड़ी युद्ध 1991 के बाद यह एक दिन में सबसे बड़ी गिरावट रही. इसकी साफ वजह है कि रूस ने मांग में गिरावट होने के बावजूद तेल उत्पादन में कटौती से इनकार कर दिया है. एक अनुमान के अनुसार, 2020 में वैश्विक तेल की मांग 4.8 लाख बैरल रोजाना से भी कम हो सकती है, जबकि दिसंबर, 2019 में यह 11 लाख बैरल रोजाना थी.
क्यों है तेल की मांग में कमी : वैश्विक स्तर पर तेल की मांग में तेजी से गिरावट आ रही है. इसकी वजह है- चीन के फैक्ट्री उत्पादन की कमी और उद्योग व व्यापारिक गतिविधियों का प्रभावित होना. विश्व स्तर पर आपूर्ति शृंखला (सप्लाई चेन) बाधित हो रही है और कई देशों द्वारा यात्रा प्रतिबंधों को लागू करने से कारोबार प्रभावित हो रहा है, जिसका असर विभिन्न क्षेत्रों पर हो रहा है. साथ ही तेल की मांग भी प्रभावित हो रही है.
रूस और सऊदी अरब के बीच होड़ : तेल की कीमतों में गिरावट का मौजूदा कारण है- सऊदी अरब की अगुवाई वाले ओपेक और रूस के बीच तेल उत्पादन में कमी को लेकर समझौता न हो पाना. पिछले हफ्ते वियना में ओपेक और रूस की बैठक में सऊदी अरब ने तेल उत्पादन में कटौती करने का प्रस्ताव रखा, जिस पर रूस राजी नहीं हुआ.
हालांकि, इस असहमति से पहले भी दोनों देशों के बीच कई मुद्दों को लेकर आपसी मनमुटाव रहा है. सऊदी जहां अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए ओपेक पर दबदबा रखना चाहता है, वहीं रूस अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में अपना दायरा बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ है. हाल के वर्षों में रूस के राजस्व में तेल निर्यात सबसे अहम जरिया बन गया है, जिससे रूस तेल बाजार में अपना विस्तार करने के लिए आक्रामक है.
आगे भी जारी रह सकती है कीमतों में गिरावट : इस हफ्ते की शुरुआत में कच्चे तेल की कीमतें 19.5 प्रतिशत (8.84 डॉलर) गिरकर 36.43 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गयीं, हालांकि, इससे पहले 31 प्रतिशत की गिरावट के साथ 31.02 डॉलर प्रति बैरल के आंकड़े को छूने के बाद इसमें मामूली सुधार हुआ था, यह फरवरी, 2016 के बाद न्यूनतम स्तर था. रूस और ओपेक के बीच तीन वर्षीय आपूर्ति समझौता नहीं होने के बाद ओपेक ने उत्पादन की सीमाओं को हटाने की घोषणा की.
कोरोना वायरस की वजह से मांग में आयी कमी के बावजूद अप्रैल महीने से सऊदी रोजाना एक करोड़ बैरल उत्पादन की योजना बना रहा है. उत्पादन की मौजूदा समझौता सीमा मार्च माह में खत्म हो जायेगी. इसके अलावा सऊदी ने आधिकारिक विक्रय कीमतों में भी कटौती की है. शीर्ष उत्पादक देशों में शामिल रूस ने भी उत्पादन बढ़ाने की घोषणा की है. इससे स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में तेल की कीमतों में जारी गिरावट रुकने के आसार नहीं हैं.
कारोबारी स्थिति को बचाने की जद्दोजहद : ओपेक प्लस की वार्ता विफल होने के बाद रूस का कहना था कि तेल निर्यात करनेवाला हर देश अपनी जरूरत के मुताबिक कार्य करेगा. रूस ने तेल कटौती के प्रस्ताव को ओपेक देशों की ताकत के गैर-जरूरी प्रदर्शन जैसा बताया. रूस का स्पष्ट तौर पर मानना है कि तेल की कीमतें नीचे आने से अमेरिकी तेल उत्पादकों की स्थिति कमजोर होगी, क्योंकि अमेरिकी तेल कंपनियों की उत्पादन लागत अधिक होती है. कीमतें गिरने से उन कंपनियों पर दबाव बढ़ेगा.
सऊदी अरब ने रूसी कंपनियों को निशाना बनाने के उद्देश्य से उत्तर पश्चिमी यूरोपीय देशों को प्रति बैरल आठ डॉलर कटौती की रियायत देने की पेशकश की है. ये देश रूस के पारंपरिक ग्राहक रहे हैं. इसके अलावा सऊदी ने एशियाई देशों को चार से छह डॉलर और अमेरिकी बाजार के लिए सात डॉलर प्रति बैरल की रियायत पेश की है.
रूस और सऊदी अरब भले ही कीमतों में कटौती के पैंतरे चल रहे हैं, लेकिन अन्य तेल उत्पादक देश, जहां उत्पादन लागत अधिक है या जो अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं, उनके लिए बाजार में टिकना मुश्किल हो जायेगा.
सऊदी अरब को अधिक नुकसान : हाल के वर्षों में रूस ने तेल निर्यात से काफी मुनाफा कमाया है. उसके पास वर्तमान में लगभग 170,000 मिलियन सॉवरेन फंड है, जिससे वह इस कीमत युद्ध में अपनी स्थिति संभाल सकता है. हालांकि, जिस तरह से कीमतों को लेकर आशंका बढ़ रही है, उसके गंभीर परिणाम से किसी भी देश का बच पाना आसान नहीं है.
कीमतों की इस मारामारी की वजह से सऊदी अरब के शेयर बाजार में गिरावट दर्ज की गयी है, जबकि सऊदी की शीर्ष कंपनी आरामको के शेयर कीमतों में नौ फीसदी तक की गिरावट आयी है. आरामको के शेयर की बिक्री से सऊदी में कई योजनाएं चल रही हैं. इससे मोहम्मद बिन सलमान के आधुनिकीकरण की योजना को नुकसान हो सकता है.
गिरती तेल कीमतें भारत के लिए फायदेमंद! : विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से एक हद तक भारत को फायदा हो सकता है. बड़ा तेल आयातक देश होने के नाते भारत की व्यापक आर्थिक गतिविधियों में वैश्विक तेल कीमतों का साफ असर होता है.
भारत अपनी कुल तेल जरूरत का 80 प्रतिशत से अधिक आयात करता है. कीमतों में गिरावट से देश के आयात बिल में कमी दर्ज होगी और चालू खाता घाटा नियंत्रित होगा. माना जाता है कि कच्चे तेल की कीमतों में एक डॉलर की कमी होने से आयात बिल में हर साल 1.6 अरब डॉलर की कमी आयेगी.
कीमतों में कमी आने से हाल के महीनों में बढ़ी महंगाई का दबाव कम होगा. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के मुकाबले इसका असर थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर अधिक महसूस किया जायेगा. इससे मौद्रिक नीति समिति को दरों में कटौती के लिए थोड़ा और सहूलियत मिलेगी.
गिरती तेल कीमतें केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों के लिए भी फायदेमंद हो सकती हैं. इससे सरकारों को राजस्व बढ़ाने में मदद मिल सकती है. पहले भी केंद्र और राज्य सरकारें तेल की कीमतों का फायदा उपभोक्ताओं को देने की बजाय अपने राजस्व बढ़ोतरी के लिए उठाती रही हैं.
अगर सरकारें तेल की कम होती कीमतों का फायदा उपभोक्ताओं को पहुंचाने का फैसला करती हैं, तो अर्थव्यवस्था में छायी सुस्ती को दूर करने में मदद मिल सकती है. उपभोक्ताओं को यह फायदा मिलने से उनकी खरीदारी क्षमता में बढ़ोतरी होगी, जिससे कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था और मांग में तेजी आयेगी.
लंबे समय तक गिरावट हो सकती है नुकसानदेह : केंद्र सरकार और राज्य सरकारें उत्पाद शुल्क और वस्तु सेवा कर (वैट) के माध्यम से राजस्व कमाती हैं. तेल के दामों में कमी आने पर सरकारें इन करों में बढ़ोतरी कर देती हैं, जिससे इस बात की आशंका बनी रहती हैं कि कम होती कीमतों का उपभोक्ताओं को फायदा मिलेगा, यह जरूरी नहीं.
तेल के दामों में कमी कुछ वक्त तक भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकती है, लेकिन, यह गिरावट अगर लंबे अरसे तक जारी रहती है, तो उसका असर विश्व अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, जिसकी चपेट में भारत भी आयेगा.
तेल अर्थव्यवस्था पर टिके खाड़ी देशों में संभावित मंदी का असर वैश्विक स्तर पर पड़ेगा. खाड़ी देशों की कंपनियों को घाटा होने से छंटनी होगी, जिससे भारतीय मजदूरों पर गाज गिरेगी. इन देशों में रह रहे भारतीय कामगार हर साल अपने देश में बड़ी मात्रा में धन भेजते हैं, जिसमें कमी आयेगी. खाड़ी देशों के साथ भारत का निर्यात प्रभावित होने से भारत की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना लाजिमी है. कुल मिलाकर विश्व अर्थव्यवस्था अगर बेहतर होगी, तभी भारतीय आर्थिकी की बेहतरी की उम्मीद कर सकते हैं.
अमेरिका के लिए हालात चुनौतीपूर्ण : शेल तेल उत्पादन में बढ़ोतरी की वजह से हाल के वर्षों में प्रमुख तेल निर्यातकों में अमेरिका ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है. डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका ने अक्रामक तरीके से कूटनीतिक बढ़त हासिल की है.
तेल आयात के लिए रूस और सऊदी अरब पर निर्भर रहनेवाले प्रमुख आयातक देशों चीन, जापान और भारत को वह अपने पाले में लाने में सफल रहा है. अमेरिका में शेल तेल उत्पादन छोटे कारोबारियों पर टिका व्यापार है, जिससे उत्पादन लागत अपेक्षाकृत अधिक होती है.
रूस और सऊदी के बीच छिड़े कीमत युद्ध को छोटी अमेरिकी कंपनियां झेल पाने की स्थिति में नहीं होंगी. अगर तेल कीमतों में गिरावट जारी रहती है, तो शेल तेल की कंपनियों को बड़ा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है. रूस जिस तरह से अपना रवैया दिखा रहा है, उससे स्पष्ट है कि अमेरिकी तेल निर्यातक उसके निशाने पर हैं.
कोरोना से वैश्विक मंदी का डर : कोरोना की वजह से आवागमन सीमित हो रहा है, जिससे फ्लाइट, होटल, हॉस्पिटेलिटी आदि सेक्टरों में सुस्ती आ रही है. चीनी कंपनियों का कारोबार प्रभावित हो रहा है, जिसका असर दुनिया के अन्य देशों पर भी हो रहा है. वैश्विक स्तर पर तेल की मांग में गिरावट की एक अहम वजह कोरोना संकट भी है. यह संकट जितना गहरा होगा और लंबा खिंचेगा, विश्व अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही डरावना होगा
हालांकि, कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह मंदी तीक्ष्ण होगी, लेकिन इसकी अवधि कम ही होगी. मार्गन स्टेनली के मुख्य आर्थिक विशेषज्ञ चेतन आह्या के अनुसार, 2020 की पहली छमाही में विश्व अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लग सकता है. अगर यह समस्या अप्रैल के बाद भी जारी रहती है, तो विश्व अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में प्रवेश कर सकती है, जिससे अमेरिका, यूरोप और जापान को बड़ी मंदी का सामना करना पड़ सकता है.
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