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मुगल शासकों के दरबारों में भी खेली जाती थी होली, अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने लिखी थी होली पर गीत

मुगलकाल में फूलों से रंग तैयार कर खेली जाती थी होली

होली बहुत ही प्राचीन पर्व है. मुगलकाल से लेकर ब्रिटिशकाल में भी होली खेले जाने के प्रमाण मिलते है. होली को भले ही हिंदूओं का त्योहार माना जाता है, लेकिन इस त्योहार को भारत में केवल हिंदू ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोग धूमधाम से मनाते आ रहे हैं. भारत के अनेक मुगलकालीन मुस्लिम कवियों ने भी अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है. उनके प्रमाणों के अनुसार मुगलकाल में भी मुगल शासक बड़ी उमंग के साथ होली मनाते थे. अमीर खुसरो, इब्राहिम रसखान, महजूर लखनवी, शाह नियाजी जैसे मुगलकालीन मुस्लिम कवियों की रचनाओं में होली का जिक्र है. मुगलकालीन इतिहासकार अलबरूनी और अन्य मुगलकालीन कवियों के अनुसार अकबर, हुमायूं, जहांगीर, शाहजहां और बहादुरशाह जफर जैसे शासकों के दरबार में भी होली खेली जाती थी.

मुगलशासक अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का जिक्र मिलता है. कई उपलब्ध चित्रों में भी इन्हें होली खेलते हुए दिखाया गया है. वहीं शाहजहां के समय में मुगलों के होली खेलने का अंदाज बदल गया था. शाहजहां के समय में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार ) के रूप में मनाया जाता था. ‘तुजुक-ए-जहांगीर’ में जहांगीर ने भी होली का जिक्र किया है. अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में ऐसी जानकारी मिलती है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाया करते थे. प्रमाणों के अनुसार मुगलकाल में फूलों से रंग तैयार किए जाते थे और गुलाबजल व इत्रों की सुगंध वाले फव्वारे चलाए जाते थे.

13 वीं सदी में तब अमीर खुसरो लिखते हैं

” खेलूंगी होली, ख्वाजा घर आए

धन धन भाग हमारे सजनी

ख्वाजा आए आंगन मेरे “

16 वीं सदी में इब्राहिम रसखान लिखते हैं-

“आज होरी रे मोहन होरी

कल हमरे आंगन गारी दे आयो सो कोरी

अब क्यों दूर बैठे मैय्या ढ़िंग, निकसो कुंज बिहारी “

अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर के दरबार में भी धूम-धाम से होली खेले जाने का प्रमाण मिलता है. होली में बादशाह का आम जनता के साथ इस मौके पर खूब मिलना-जुलना होता था. बहादुर शाह जफर ने होली पर गीत भी लिखा है…

“क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी

देख कुंवरजी दूंगी गारी

भाज सकूं मैं कैसे मोसो भाजो नहीं जात

थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत

बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं

आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं

शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी

मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी”

शायर मीर तकी मीर ने तब नवाब आसिफुद्दौला की होली के बारे में लिखा

“होली खेले आसफुद्दौला वजीर,

रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर

दस्ता-दस्ता रंग में भीगे जवां

जैसे गुलदस्ता थे जूओं पर रवां

कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल

जिसके लगता आन कर फिर मेंहदी लाल”

इन तमाम प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि मुगलकाल में भी होलिकोत्सव काफी धूमधाम से मनाया जाता था.

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