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आधुनिकता के दौर में गुम हो गये फाल्गुन गीत

विनोद, चौसा : गांव का कोई चौपाल. बीच में ढोलक और मंजीरा रखा हुआ और 15-20 ग्रामीण बैठे हुए है. तभी गांव का एक बुजुर्ग आये और हो गये शुरू फागुन में श्याम,खेलत होली….सोना के मंदिरवा में चांदी लगल केवाड़, कान्हा तनी सारी दुनियां दर्शानावा दीह… ! ढोल -मंजीरा संभाले दो युवक देने लगे जोगिरा […]

विनोद, चौसा : गांव का कोई चौपाल. बीच में ढोलक और मंजीरा रखा हुआ और 15-20 ग्रामीण बैठे हुए है. तभी गांव का एक बुजुर्ग आये और हो गये शुरू फागुन में श्याम,खेलत होली….सोना के मंदिरवा में चांदी लगल केवाड़, कान्हा तनी सारी दुनियां दर्शानावा दीह… ! ढोल -मंजीरा संभाले दो युवक देने लगे जोगिरा ताल और देर रात तक चलता रहा जोगिरा सा रा रा., वाह… भाई… वाह… ! सचमुच कितना अच्छा लगता था. साथ में बैठकर एक साथ ”फगुआ” गाकर प्रेम बढ़ाना, लेकिन अब ये दृश्य न जाने क्यों गांवों में भी देखने को नहीं मिलते.

गांव की बसंती पुरवैया हवा में बलखाते होली गीत के स्वर अब कानों की गूंज से दूर होते जा रहे हैं. अब इसकी जगह टीवी, रेडियो, मोबाइल ने ले लिया है. एक जमाना था जब लोग घर-घर जाकर फगुआ गाकर लोगों को आपस में गले मिलवाते थे. दूर-दूर से लोग चौपाल में आकर फाग का आनंद उठाते थे. अब वो वाली बात नहीं रही. सब कुछ समय के साथ बदल चुका है.
… : एक दौर था जब वसंत पंचमी के बाद फाल्गुन माह आते ही जगह-जगह पर फाग गीतों के लिए अलग से व्यवस्था की जाती थी. शाम ढलते ही ढोल-नगाड़े की शोर लोगों को घर से निकलने के लिए विवश कर देती थी और साथ मिल बैठ कर स्वास्थ्य पारंपरिक गीतों का ऐसा महफिल जमता था कि राह चलने वाले भी कुछ पल ठहर कर इस मस्ती भरे पल को अपने जेहन में उतार लेना चाहते थे. अब न वह टोली दिखती है और न ही ढोल व मंजीरा. यह परंपरा भी अब विलुप्तता के कगार पर पहुंच चुकी है.
एक समय था जब फाल्गुन शुरू होते ही गांव-गांव चौपालों पर हई न देख सखी फागुन के उत्पात, दिनवो लागे आजकल पिया मिलन के रात..’‘रामा खेले होली हो लखन खेले होली….फाग गीत गूंजने लगते थे. उत्साही युवाओं, बुजुर्गों की टोलियां पूरे माह भर अलग-अलग स्थानों में मंडली जमाकर लोगों को फाग के आने का संदेश देती थी. बीते कुछ सालों से आधुनिकता ने हमारी कई समृद्ध परंपराओं को लील लिया है.
फाग गीतों की मधुर सांस्कृतिक परंपरा भी उनमें से एक है. क्षेत्र बुजुर्ग बताते हैं कि 30 साल पहले गांवों में कई स्थानों पर फाग गाने वालों की महफिल सजने लगती थी, लेकिन वक्त के साथ-साथ महफिलों की संख्या कम होने लगी. आधुनिकता की चकाचौंध और बाजारवादी संस्कृति की वजह से फाग गायकी की परंपरा अब सिमट कर रह गयी है.
पहले गांवों में कई स्थानों पर फाग गाने वालों की महफिल सजने लगती थी
1990 के दशक से पहले गांवों में कई स्थानों पर फाग गाने वालों की महफिल सजने लगती थी. लेकिन वक्त के साथ-साथ महफिलों की संख्या न के बराबर है.
छोटेलाल चौरसिया,नरबतपुर गांव
वर्षों पहले जहां भी फगुआ गायन होता था तो लोग बरबस ही झूमने पर मजबूर हो जाते हैं. पर अफसोस अब यह गायन विलुप्त हो चला है. इस परंपरा को अगर संरक्षित न किया गया, तो यह भविष्य में केवल इतिहास बनकर रह जाएगा.
मुन्ना पांडेय, चौसा
पहले उत्साही युवाओं, बुजुर्गों की टोलियां पूरे माह भर अलग-अलग स्थानों में मंडली जमाकर लोगों को फाग के आने का संदेश देती थी. बीते कुछ सालों से आधुनिकता ने हमारी कई समृद्ध परंपराओं को लील लिया है.
श्रीराम सिंह,गोसाईंपुर गांव
ताल व जोगीरा का अलग ही आनंद है…

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