पंकज चतुर्वेदी
साहित्यकार-प्राध्यापक
गिरिराज किशोर
(जुलाई 8, 1937 – फरवरी 9, 2020)
कथाकार गिरिराज किशोर का देहावसान व्यापक हिंदी समाज के लिए बहुत दुखद है. वे एक बड़े लेखक तो थे ही, एक उम्दा इंसान भी थे. ‘पहला गिरमिटिया’ और ‘बा’ सरीखे उपन्यासों से अंतरराष्ट्रीय ख्याति हासिल करनेवाले इस साहित्यकार पर शमशेर बहादुर सिंह की ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं.
‘मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत/ लेकिन इंसान के दर्शन हैं मुहाल.’ गिरिराज जी से जब भी मैं मिला, अपनी साधारणता की गरिमा में वह मिले. सामान्य जन के सुख-दुख, आशा-निराशा, आकांक्षा और स्वप्न से वाबस्ता. इसी एकात्मता में अपने होने की चरम सार्थकता को खोजता और गढ़ता हुआ लेखक.
वे मूल्यनिष्ठा, कर्मशीलता, निस्पृहता, संवेदनशीलता और औदात्य की जीती-जागती मिसाल थे. इसीलिए वे अपने परिचितों और मित्रों में ही नहीं, वृहत्तर हिंदी समाज के भी प्रिय थे. उनसे मिलकर और उनके बारे में विचार करते हुए बुद्ध का यह कथन प्रासंगिक महसूस होता है: ‘शील और दर्शन से संपन्न, धर्म में स्थित, सत्यवादी और स्व-कर्तव्यरत पुरुष को लोग प्यार करते हैं.’
मैं जब कभी उन्हें फोन करता, कॉलर ट्यून के रूप में महात्मा गांधी के प्रिय नरसी मेहता के रचे ये संगीतमय शब्द सुनायी देते: वैष्णव जन तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे!’ गांधी के जीवन-कर्म और वैचारिक वैभव से उनकी गहन संसक्ति थी.
एक साक्षात्कार में उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘गांधी ने अवाम के दुखों को समझने, उनके करीब जाने और उनकी मुक्ति के वास्तविक संघर्ष के लिए खुद को ‘डीक्लास’ यानी वर्गमुक्त किया था.’ बड़े लक्ष्य छोटा जीवन जीते हुए हासिल नहीं किये जा सकते. उसके लिए हमें शब्दों को अपने दैनंदिन आचरण से सत्यापित करना होता है.
हमारी पीढ़ी को गांधी से रूबरू होने का सौभाग्य तो नहीं मिला, मगर गिरिराज किशोर के लेखन से एक विशेष संदर्भ में उनके अवदान की महनीयता को समझ पाने की सलाहियत जरूर नसीब हुई. ‘पहला गिरमिटिया’ दरअसल दक्षिण अफ्रीका में उस व्यक्तित्व के निर्माण की संघर्ष-कथा है, जिसे बाद में भारत ने गांधी के नाम से जाना. गौरतलब है कि गिरिराज जी की रुचि प्रक्रिया के इसी संदर्भ के अन्वेषण में थी, परिणाम के महिमामंडन में नहीं. इसलिए गांधी पर एकाग्र अपने उपन्यास की रचना उन्होंने महज किताबों के सहारे घर बैठकर नहीं की, बल्कि इसके लिए देश-दुनिया की कई यात्राएं कीं और दक्षिण अफ्रीका भी गये.
गांधी की निर्मिति जिस दिशा में और जिस तरह हुई और जिस यशस्वी मकाम पर पहुंची, वह मुमकिन न थी, अगर उसके नेपथ्य में कस्तूरबा गांधी सरीखी उनकी आत्मवान जीवनसंगिनी का आधारभूत योगदान न होता.
गांधी के व्यक्तित्व की भव्यता के उजाले में कहीं ऐसा न हो कि हम उस स्त्री के त्याग, तपस्या और दृढ़ता को नजरअंदाज कर दें, इसलिए गिरिराज जी ने उन पर ‘बा’ उपन्यास लिखा. उनके एक बेहतरीन उपन्यास ‘लोग’ में भारतीय समाज में स्त्रियों के जीवन की त्रासदी की ओर ध्यान आकृष्ट करनेवाला एक मार्मिक बयान है: ‘पुरुष कर्म करते हैं, स्त्रियां सिर्फ परिणाम भोगती हैं!’
इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भी ब्रिटिश हुकूमत में ही हिंदुस्तानी समाज का चित्रण है. यह कितना सुखद और मूल्यवान है कि उसी दौर में कस्तूरबा जैसी व्यक्तित्व-संपन्न स्त्री भी थी, जिसके समुन्नत नैतिक बोध, सहिष्णुता और करुणा के आलोक में गांधी भी अपनी राह देख और बना सके थे. साहित्य की एक अहम जिम्मेदारी यह है कि वह हमारे दाय की विस्मृति के विरुद्ध हमें आगाह करता है और इस मोर्चे पर गिरिराज जी का अवदान सृजन के इतिहास में हमेशा याद किया जायेगा.
बीते चौबीस वर्षों से कानपुर में रहते हुए मुझे कभी यह नहीं लगा कि साहित्य के लिहाज से कमतर किसी शहर में रहता हूं. कारण सिर्फ यह था कि यहां गिरिराज किशोर रहते थे. आत्म-समृद्धि के लिए वैसे तो बहुत कुछ चाहिए, लेकिन कभी-कभी कोई एक रचनाकार या रचना भी काफी होती है. उनका होना मेरे तईं ऐसी ही आश्वस्ति और गरिमा का सबब था.
गिरिराज किशोर आइआइटी, कानपुर में लंबे समय तक सृजनात्मक लेखन केंद्र के प्रोफेसर एवं निदेशक रहे. विगत सदी के अंतिम वर्षों में जब वह सेवानिवृत्त हुए, तो कानपुर में ही रहने का फैसला किया, जबकि राजधानी दिल्ली में उनका एक छोटा-सा फ्लैट था, जिसे उन्होंने बेच दिया.
मुझे यह पता चला, तो मैं अचरज में पड़ गया. जिस दौर में ज्यादातर महत्वपूर्ण कवि-लेखक साहित्य-संस्कृति की राजधानियों में बस जाना चाहते हैं, उन्होंने कानपुर को चुना और उसे अपनी कर्मभूमि बनाया. मैंने उनसे इस बाबत पूछा, तो बहुत सहज, शांत और निरभिमान स्वर में बोले: ‘दिल्ली में मैं काम नहीं कर पाऊंगा.’
राजनीति के अंधेरे समय में गिरिराज किशोर रौशनी की एक भरोसेमंद कंदील थे. उन सरीखे निर्भय सत्यवादी की जरूरत आज ज्यादा थी. उन्हें याद करते हुए गांधी के अनुयायी कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियां उभरती हैं: ‘तुम डरो नहीं, डर वैसे कहां नहीं है / पर खास बात डर की कुछ यहां नहीं है / बस एक बात है, वह केवल ऐसी है / कुछ लोग यहां थे, अब वे यहां नहीं हैं…’