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सीएए पर विरोध से दूर सियासी दल
आकार पटेल लेखक एवं स्तंभकार aakar.patel@gmail.com कुछ दिनों पूर्व तक ही नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) एवं राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) के विरुद्ध चौबीसों घंटे के विरोध प्रदर्शनों की संख्या 50 दिन को पार कर चुकी थी. अहमदाबाद, अलीगढ़, प्रयागराज, औरंगाबाद, बेंगलुरु, बरेली, भागलपुर, भोपाल, कोचीन, दरभंगा, देवबंद, देवास, गया, गोपालगंज, सिवान, इंदौर, जबलपुर, कल्याण, किशनगंज, […]
आकार पटेल
लेखक एवं स्तंभकार
aakar.patel@gmail.com
कुछ दिनों पूर्व तक ही नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) एवं राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) के विरुद्ध चौबीसों घंटे के विरोध प्रदर्शनों की संख्या 50 दिन को पार कर चुकी थी. अहमदाबाद, अलीगढ़, प्रयागराज, औरंगाबाद, बेंगलुरु, बरेली, भागलपुर, भोपाल, कोचीन, दरभंगा, देवबंद, देवास, गया, गोपालगंज, सिवान, इंदौर, जबलपुर, कल्याण, किशनगंज, कोलकाता, कोटा, लखनऊ, मुंबई, मुजफ्फरपुर, नांदेड़, नालंदा, परभानी, पटना, पुणे, रांची, संभल, समस्तीपुर, टोंक और विजयवाड़ा में नागरिक एक जगह इकट्ठे होकर इनमें भाग ले रहे हैं.
इनमें से कुछ शहरों में तो एक से ज्यादा जगह भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. दिल्ली में ऐसे विरोध प्रदर्शनों की तादाद एक दर्जन से भी ज्यादा है.
इन प्रदर्शनों की खास बात यह है कि इनके सभी प्रतिभागी प्रतिबद्ध लोग हैं, जो शांतिपूर्ण ढंग से विरोध व्यक्त कर रहे हैं. इससे भी उल्लेखनीय बात यह है कि इनका कोई नेतृत्व नहीं है. इनकी दृढ़ता और सिद्धांतों ने नरेंद्र मोदी सरकार को अभी ही पीछे हटने को बाध्य कर दिया है.
एनआरसी को लगभग ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. सीएए अदालत के सामने विचाराधीन है और रामविलास पासवान तथा प्रकाश जावड़ेकर जैसे तीन मंत्रियों ने एनपीआर के इस प्रावधान को शिथिल करने की बात कही है, जिसके अंतर्गत माता-पिता की जगह और उनकी जन्मतिथि पंजीकृत करनी थी.
जिस किसी नजरिये से देखा जाये, यह एक बड़ी सफलता है, खासकर एक ऐसी सरकार के विरुद्ध, जिसके पास संसद में विशाल बहुमत है और जिसके पीछे कुछ समर्थक मीडिया भी है. प्रश्न यह है कि क्यों विरोधकर्ता अभी भी खुद पर ही निर्भर हैं और सियासी पार्टियां इस जमीनी जन आंदोलन में भागीदारी से दूर हैं? एक तीसरा सवाल यह है कि क्या विरोधी पार्टियों की भागीदारी के अभाव की वजह से इस विरोध को कोई हानि भी पहुंची है? इन मुद्दों का विश्लेषण प्रासंगिक होगा.
पहले तो हम इस बिंदु पर विचार करें कि ऊपर बताये गये शहरों में कम-से-कम आधे दर्जन उत्तर प्रदेश में स्थित हैं. विरोध करनेवालों के साथ सबसे अधिक हिंसा उत्तर प्रदेश में ही हुई है, पर इस राज्य की सियासी पार्टियां मैदान में नहीं दिख रहीं. हालांकि, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी में यह सामर्थ्य है कि वह बड़ी संख्या में युवाओं को एकजुट कर सकती है.
पर उनके इस रवैये का कारण अखिलेश द्वारा यह महसूस करना लगता है कि उत्तर प्रदेश में सीएए विरोधी आंदोलन को हिंदू बनाम मुस्लिम संघर्ष के रूप में देखा जायेगा और उनके द्वारा आंदोलनकारियों का समर्थन करने का नतीजा यह होगा कि उनका हिंदू (यादव) वोट उनके हाथों से निकल जायेगा. इसका अर्थ यह है कि उनकी पार्टी विरोध करनेवालों के समर्थन में लोगों को एकजुट करने का लाभ नहीं उठा सकी.
मायावती के मामले में यह मुद्दा थोड़ा और जटिल है. उन्होंने सीएए के विरुद्ध अखिलेश की तुलना में ज्यादा विरोध व्यक्त किया है, पर उनके कैडर को इस आंदोलन में भागीदारी से दूर रहने को कहा गया है. उन्हें एक युवा एवं गतिशील नेता चंद्रशेखर आजाद की प्रतिद्वंद्विता से भय लगता है, जो जातिपरक हिंदू संस्कृति के प्रति अपना विरोध व्यक्त करने के लिए अपने नाम के आगे ‘रावण’ लगाते हैं.
वे एक करिश्माई नेता हैं और उन्होंने उत्तर प्रदेश के शहरों में जमीनी स्तर पर अपना एक अच्छा समर्थन आधार तैयार कर लिया है, जो बहुजन समाज पार्टी के दलित आधार के लिए खतरा है. मायावती यह भी समझती हैं कि यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं, जो उनके वोटर वर्ग को विचलित करेगा. अंतिम बात एक अटकल ही है, पर इसे बड़े पैमाने पर कहा जा रहा है कि मायावती अपने विरुद्ध दायर मामलों को लेकर भी दबाव में हैं.
एक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी ही है, जो इस आंदोलन के समर्थन में है, जो इस अर्थ में एक असाधारण पार्टी है कि चाहे वह सत्ता में रहे या विपक्ष में, पर वह हमेशा अभियान के अंदाज में रहती है. इसलिए, यह मुद्दा उसके माफिक है. अब हम यह देखें कि इस आंदोलन से विपक्ष की गैरहाजिरी से क्या इस आंदोलन को भी नुकसान पहुंच रहा है? तथ्य यह है कि कई कारणों से ऐसा नहीं हो रहा है. पहला तो यह है कि विरोध करनेवालों ने स्वयं किसी भी पार्टी से सहायता नहीं मांगी है.
वे खुद ही कोई एकताबद्ध जमात नहीं हैं. पर वे दसियों लाख ऐसे दृढ़ व्यक्तियों का वर्ग हैं, जो एक ही मुद्दे के लिए अड़े हैं. दूसरे, भाजपा समेत कोई भी सियासी पार्टी इतने अधिक लोगों को इतने लंबे वक्त के लिए विरोध प्रदर्शन को तैयार नहीं कर सकती. राजनीतिक जमावड़ा तब होता है, जब सियासी पार्टियां वैसा चाहती हैं, न कि लोग वैसा चाहते हैं. यही वजह है कि राजनीतिक जमावड़े में लोगों को लाने-ले जाने और रैलियां आयोजित करने में पैसे लगते हैं. अभी जो कुछ हो रहा है, वह स्वतःस्फूर्त है, जो खुद के ही खर्चे से चल रहा है.
तीसरा, इस तथ्य ने कि राजनीतिक पार्टियां इस आंदोलन से दूर हैं, इन विरोधों को एक बड़ी विश्वसनीयता प्रदान कर दी है. ये विरोधकर्ता मोदी सरकार की बर्खास्तगी की मांग नहीं कर रहे, जैसा विरोधी पार्टियों ने किया होता.
वे तो सिर्फ यह मांग कर रहे हैं कि इन भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक कानूनों को वापस लिया जाये. यही वजह है कि पूर्व में आत्मविश्वास से भरी केंद्र सरकार इस मुद्दे पर मीडिया तथा देश के अंदर और बाहर से दबाव में है. विरोध करनेवालों का उद्देश्य न्यायपूर्ण है तथा उनके विरोध का ढंग सही है.
अंतिम बात, हमें यह देखने की जरूरत है कि अब भारत को अपनी इसी स्थिति में कमतर कर दिया गया है. हजारों वर्षों से जीवित एक महान सभ्यतामूलक देश को आज पूरे विश्व में एक ऐसे राज्य के रूप में देखा जा रहा है, जो अपने ही लोगों को प्रताड़ित कर रहा है.
इसके साथ ही यह भी कि इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में बड़े राजनीतिक पक्ष एक सार्वजनिक गतिविधि में भागीदारी नहीं कर रहे, क्योंकि वे समझते हैं कि समाज स्वयं ही पूरी तरह धार्मिक आधार पर विभाजित है. यदि वे एक तरह के प्रताड़ित लोगों के समर्थन में उठ खड़े हों, तो वे स्वतः एक अन्य वर्ग के लोगों के विरुद्ध हो जायेंगे. आज यही वह स्थिति है, जिसमें इस देश ने खुद को फंसा लिया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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