17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

बच्चों की सेहत देश के लिए जरूरी

डॉ राजीव मेहता मनोचिकित्सक, दिल्ली delhi@prabhatkhabar.in बच्चों की जिंदगी के मामले में भारत इस कदर लापरवाह दिखता है, जैसे बच्चों के होने का कोई मतलब ही नहीं है. जिन बच्चों को भविष्य की नींव कहा जाता है, उनकी जिंदगी से खिलवाड़ अच्छी बात नहीं है. एक डॉक्टर होने के नाते मैं इस बात को कभी […]

डॉ राजीव मेहता
मनोचिकित्सक, दिल्ली
delhi@prabhatkhabar.in
बच्चों की जिंदगी के मामले में भारत इस कदर लापरवाह दिखता है, जैसे बच्चों के होने का कोई मतलब ही नहीं है. जिन बच्चों को भविष्य की नींव कहा जाता है, उनकी जिंदगी से खिलवाड़ अच्छी बात नहीं है. एक डॉक्टर होने के नाते मैं इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि बच्चों के मामले में सरकारी तौर पर या पारिवारिक तौर पर लापरवाही हो.
हमारे बच्चे ही इस देश का भविष्य हैं. हमारे देश में बच्चों को लेकर जिस तरह आंकड़ें आते हैं, उस पर न सिर्फ चिंतन करने की जरूरत है, बल्कि फौरन ठोस कदम उठाने की भी जरूरत है. बच्चों में कुपोषण की समस्या बहुत विकराल है, लेकिनदुखद है कि सरकारें इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं देतीं. आये दिन किसी न किसी राज्य से खबर आ जाती है कि वहां इतने बच्चे मर गये. यह बहुत दुखदबात है, दयनीय भी.
यूनिसेफ की साल 2018 की रिपोर्ट कहती है कि भारत में पांच साल से कम उम्र के 8.80 लाख बच्चों की मौत हुई. करोड़ों की आबादी में ये करीब नौ लाखबच्चे सरकारों के लिए ज्यादा संख्या क्यों नहीं है? यूनिसेफ ने तो यह भी बताया है कि भारत में बच्चों के जन्म का पहला दिन जच्चा-बच्चा के लिए बहुत हीजोखिम भरा होता है. विडंबना है कि इसी दिन आधी शिशु मृत्यु दर दर्ज की जाती है. भारत में 40 प्रतिशत बच्चों की मौत उनके जन्म के दिन ही हो जातीहै. हालांकि, भारत के शिशु मृत्यु दर में गिरावट आयी है, जो साल 1990 में प्रति 1,000 पर 129 थी. लेकिन अब भी वैश्विक स्तर पर भारत बहुत कमजोरदेशों में आता है. इस आधार पर देखें, तो वर्तमान भारत (2019) में शिशु मृत्यु दर 33 के मुकाबले चीन में शिुशु मृत्य दर 8, श्रीलंका में 8, भूटान में 26,बांग्लादेश में 27, नेपाल में 28 और म्यांमार में 30 है.जाहिर है, इस मामले में हम अपने पड़ोसी देशों के मुकाबले बिल्कुल भी बेहतर नहीं हैं.
अब सवाल है कि यह हालत क्यों है. हाल ही में राजस्थान और गुजरात में सैकड़ों बच्चे मर गये और सरकारी अस्पतालों की लापरवाही सामने आयी. लेकिनक्या यह सिर्फ अस्पतालों की ही जिम्मेदारी है? बिल्कुल नहीं. अस्पताल की दीवारें, बेड और उपकरण ही बच्चों का इलाज नहीं कर सकते. उसके लिए अच्छेडॉक्टर और जरूरी दवाइयां चाहिए. हर इमरजेंसी के लिए लोग निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं, क्योंकि वहां फौरन इलाज शुरू हो जाता है. निजीअस्पतालों में अगर किसी डॉक्टर या स्टाफ की जरूरत होती है, तो फौरन ही उनकी नियुक्तियां होती हैं, ताकि किसी इमरजेंसी हालत में मरीज का नुकसानन होने पाये.
सरकारी अस्पतालों में ऐसा नहीं होता. निजी अस्पतालों में अमीर लोगों का इलाज तो हो जाता है, लेकिन गरीब लोगों के लिए सरकारी अस्पतालही सहारा है. सरकारी अस्पतालों में अगर डॉक्टर, स्टाफ, दवाइयां, उपकरण आदि की जरूरत होती है, तो इन सबकी उपलब्धता की एक लंबी प्रक्रिया अपनायीजाती है, जिसमें काफी वक्त लगता है. सबसे पहले जरूरत की लिस्ट बनायी जाती है. फिर कमेटी बनायी जाती है कि इस जरूरत को इतना ही रखना है याकम-ज्यादा करना है. फिर उसका विज्ञापन निकाला जाता है और तब कहीं जाकर अस्पताल की जरूरत पूरी होती है. इस पूरी प्रक्रिया में महीनों या कभी-कभीसालों लग जाते हैं. ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि सरकारी अस्पताल किसी इमरजेंसी इलाज के लिए योग्य हो सकता है? यह व्यवस्था की बड़ीखामी है.
अस्पतालों में दो चीजों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है. एक है मानव संसाधन यानी डॉक्टर और स्टाफ. और दूसरी है उपकरण एवं दवाइयां. हमारेसरकारी अस्पतालों में इन दोनों चीजों की व्यवस्था में बड़ी नीतिगत खामियां दिखायी देती हैं. यही वजह है कि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर जाना ही नहींचाहते. दवाइयां और उपकरणों की कमी के चलते इलाज संभव नहीं है. जरूरी चीजों की अनुपलब्धता की वजह से जब कोई मरीज गुजर जाता है, तो उसकेपरिजन डॉक्टर को ही मारने दौड़ पड़ते हैं. इतना सारा लोड लेकर कोई भी डॉक्टर काम नहीं करना चाहता. सबको अपनी जिंदगी और सकून प्यारा होता है.डॉक्टर मसीहा तो नहीं बन सकता न! उसके पास सभी जरूरी संसाधन होंगे, तभी वह इलाज कर पायेगा. विडंबना है कि महज इतनी छोटी-सी बात लोगों कोसमझ में नहीं आती है.
एक और महत्वपूर्ण बात है. हमारे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र का बजट बहुत कम है. चाहे केंद्रीय स्तर पर हो या फिर राज्यों के स्तर पर, इस मामले में सब जगहस्थितियां एक सी हैं. भारत साल 2025 तक अपने स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपने जीडीपी का 2.5 फीसदी खर्च करने की योजना बना रहा है. फिलहाल स्वास्थ्य क्षेत्रपर भारत का खर्च जीडीपी का मात्र 1.15 प्रतिशत ही है. यह बहुत ही कम रकम है. इस वक्त स्वास्थ्य पर होनेवाला खर्च देश की जीडीपी का करीब दसप्रतिशत हो, इसकी जरूरत महसूस की जा रही है.
कहने का अर्थ यह है कि अगर घर में एक रोटी है और खानेवाले चार हैं, तो उनका पेट कैसे भरेगा? यहीहाल हमारे स्वास्थ्य बजट का है. यही वजह है कि सरकारी अस्पतालों में संसाधन और सुविधाएं कम हैं, वहीं उनके मुकाबले मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा है.
इसलिए जरूरी है कि स्वास्थ्य क्षेत्र का बजट बढ़ाया जाये और इसे प्राथमिकता के तौर पर देखा जाये. जब हम स्वास्थ्य की प्राथमिकता की बात करते हैं, तोकह दिया जाता है कि योग करो. लेकिन सवाल यह है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चे जो मर रहे हैं, क्या उन्हें भी योग करने की जरूरत है? उनका तोउचित इलाज होना चाहिए. दूसरी बात, मैं हैरान हो जाता हूं यह सुनकर कि लोग कितनी आसानी से कह देते हैं कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में कुछबच्चों का मर जाना कोई बड़ी बात नहीं. जब हमें यह देखना चाहिए कि ये बच्चे ही आगे जाकर देश के काम आनेवाले हैं. स्वास्थ्य पहली प्राथमिकता सरकारीनीति होनी चाहिए.
कुल मिलाकर, भारत को अपना स्वास्थ्य क्षेत्र बेहतर बनाना है, तो सबसे पहले स्वास्थ्य का बजट बढ़ाया जाये, अस्पतालों में जरूरी चीजों की उपलब्धता कीप्रक्रिया को त्वरित गति से पूरा किया जाये, उपकरणों एवं संसाधनों को बढ़ाया जाये और स्वास्थ्य को पहली प्राथमिकता दी जाये. तभी संभव है कि हमारेबच्चे अपनी बेमौत मरने से बच पायेंगे. बच्चों की सेहतमंद जिंदगी देश के लिए बहुत जरूरी चीज है, सरकारें इसे समझें.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें