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नये साल का संकल्प

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार pushpeshpant@gmail.com भारत की इंद्रधनुषी सांस्कृतिक विविधता की विरासत हमारे षडरस भोजन से कम सम्मोहक नहीं. जो बात अकसर अनदेखी रह जाती है, वह यह है कि विस्मित कर देनेवाली बहुलता के बावजूद इसका प्रमुख तत्व समावेशी समन्वय वाला है. अलग-अलग प्रांतों में स्थानीय पहचान जिस खान-पान और लोक संगीत-नृत्य के साथ […]

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com
भारत की इंद्रधनुषी सांस्कृतिक विविधता की विरासत हमारे षडरस भोजन से कम सम्मोहक नहीं. जो बात अकसर अनदेखी रह जाती है, वह यह है कि विस्मित कर देनेवाली बहुलता के बावजूद इसका प्रमुख तत्व समावेशी समन्वय वाला है. अलग-अलग प्रांतों में स्थानीय पहचान जिस खान-पान और लोक संगीत-नृत्य के साथ जुड़ी समझी जाती है, वह समय के प्रवाह के साथ अखिल भारतीय बन चुकी है.
देश को भावनात्मक एकता के सूत्र में बांधने का काम सदियों पहले उन दूरदर्शी चिंतकों ने करना आरंभ कर दिया था, जो इस बात को समझते थे कि देशप्रेम की मजबूत नींव सांस्कृतिक उत्तराधिकार की साझेदारी पर ही टिकी रहती है. इसी अहसास ने भारतीय उपमहाद्वीप के भूगोल को देवत्व प्रदान करना हजारों साल पहले कर दिया गया. उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र न केवल सीमानिर्धारण करते हैं, बल्कि अनगिनत मिथक, लोककथाएं आम आदमी का नाता नदियों और ऐसे दर्शनीय पवित्र नगरों से जोड़ती हैं, जिन्हें मोक्षदायक समझा जाता है.
आम तौर पर यह माना जाता है कि चार धाम की यात्रा की कल्पना और देश के चार कोनों में मठों की स्थापना करनेवाली पहल आदि शंकराचार्य ने की थी. वास्तव में यह काम बौद्ध और जैन धर्म के प्रसार से ही शुरू हो चुका था. गौतम बुद्ध के पदचिह्न उस पथ को पहचानने में हमारी मदद करते हैं, जो प्राचीन काल में सामरिक और आर्थिक महत्व के राजपथ थे.
रामायण और महाभारत की तरह जातक कथाएं और तामिल में रचित शिलप्पदिकरम् तथा मणिमेखलाई इस बात का प्रमाण हैं कि इस विशाल देश के विभिन्न क्षेत्रों में भले ही अलग-अलग शासक राज करते रहे हों, सभी की महत्वाकांक्षा चक्रवर्ती बनने की रहती थी. यहां इस बात को रेखांकित करना परमावश्यक है कि चक्रवर्ती प्रतापी शासक होने के लिए दिगविजय एकमात्र परीक्षा नहीं थी.
जनकल्याणकारी नीतियों का अनुसरण सबसे कड़ी कसौटी थी. शासक की तरह अन्य नागरिकों के लिए भी कर्तव्य निर्धारित थे. सबसे रोचक बात यह है कि इस कर्तव्य पालन के लिए कड़े कानून या दंडविधान नहीं, बल्कि आत्मानुशासन यथेष्ट समझे जाते रहे हैं. सामाजिक जीवन में जिन मूल्यों की स्थापना साझी संस्कृति करती रही है, वही हमारा सबसे बड़ा बल है.
किसान या कुशल पुश्तैनी कारीगर के लिए यह जीवन मूल्य पीढ़ी दर पीढ़ी लोक कथाओं, कहावतों, लोक संगीत और रंगमंच के जरिये हस्तांतरित होते रहे. पारंपरिक ज्ञान लोकोक्तियों, मुहावरों, कहावतों के माध्यम से धर्म ग्रंथों, नीति शास्त्रों से निकल जनसाधारण तक पहुंचता रहा है. पंचतंत्र और हितोपदेश के जाने कितने रूपांतर देश के हर कोने में पल्लवित हुए हैं.
भक्ति आंदोलन वाले दौर में सांप्रदायिक भेद भाव की खाइयां पाटी जा सकीं और समाज सुधारक भक्त कवियों ने जनभाषा में आम आदमी को संबोधित कर अंधविश्वास और संकीर्ण सोच, जातिगत पूर्वाग्रह से मुक्त होने का आह्वान किया. सूफी संतों की वाणियां आज भी गुरु नानक और कबीर की रचनाओं में गूंजती हैं.
ऐसा सोचना गलत है कि इस ‘साहित्य’ का संसार उत्तर तक ही सीमित रहा है. मीरा के भजनों की सबसे सुरीली गायिका तमिलनाडु की कोकिला एमएस सुब्बुलक्ष्मी ही मानी जाती हैं और त्यागराज जैसे संगीतकारों की रचनाओं में कृष्ण लीला का वर्णन अनायास सूर की याद दिला देता है. तंझावुरू की जो कांच पर सुनहरी चित्रकारी विश्व विख्यात है, उसमें भी बालगोपाल ही वात्सल्य रस का संचार करते नजर आते हैं.
केरल के कथाकलि नृत्य नाटक में महाभारत की प्रमुख घटनाओं का मंचन होता है. पूर्वी सागरतटवर्ती ओडिशा में मंदिरो के अलंकरण और ओडिसी नृत्य की परंपरा में जयदेव के गीतगोविंद की कोमलकांत पदावली ही जान डालती है. बिहार से लेकर बंगाल और असम मणिपुर तक रास लीला और वैष्णव कीर्तन लोकसंस्कृति का अंग हैं.
पूर्वोत्तरी राज्यों में अरुणाचल तथा सिक्किम के बौद्ध मठों में जो टंका चित्र और पांडुलिपियां सुरक्षित हैं वह सुदूर लद्दाख और हिमांचल प्रदेश के गुफाओं की धार्मिक कलात्मक संपदा का ही हिस्सा हैं. हमारे लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि एकता में विविधता का पर्व सभी भारतीय सोल्लास मनाते रहे हैं.
इसमें समुदाय विशेष की सांप्रदायिक पहचान कभी भी बाधक नहीं बनी. सामवेद गायन से उपजा ध्रुपद बीस पीढ़ी से मुसलमान डागर गायक-वादकों ने पारिवारिक थाती के रूप में वैसे ही सहेज कर रखा है, जैसे बेतिया घराने के तिवारी कुलदीपकों ने. कथक के लखनऊ, बनारस और जयपुर के घराने अलग-अलग विकसित जरूर हुए, परंतु इनका मूस स्रोत एक है. ठुमरी, दादरा, फाग, होरी, कजरी, चैती, सावन, झूले जैसी लोक-विधाओं में यह स्वर शास्त्रीय शैली की कलाकारी से कम सशक्त नहीं.
हस्तशिल्प और पारंपरिक कुटीर उद्योग के क्षेत्र में भी यही बात झलकती है. कश्मीर के दुशाले हों या मुलायम कालीन अथवा कांचीपुरम् या असम का रेशम, इनकी पहचान दुनियाभर में भारतीय उत्पाद के रूप में ही है. ढाका की मलमल को नष्ट करने में अंग्रेज भले ही सफल रहे हों, लेकिन चंदेरी, माहेश्वरी, बनारसी, पैठनी, पोचमपल्ली, ढाकाई और जाने कितनी साड़ियां हथकरघे के चमत्कार से हमें मंत्रमुग्ध रखती हैं.
कपास की खेती, धागे की कताई, रंगाई, बुनाई के हर चरण में परस्पर निर्भरता और सहयोग के अभाव में काम नहीं चल सकता. साथ काम करनेवाले एक-दूसरे के सुख-दुख में साझेदार रहते हैं. यही हमारी पहचान और ताकत है. हम दूसरे धर्म, भाषा, चेहरे मोहरे वाले व्यक्ति को पराया, अजनबी नहीं समझते थे और न ही उससे आशंकित रहते थे.
विडंबना है कि चुनावी राजनीति ने समुदायों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक वोट बैंकों में बांट दिया है. ध्रुवीकरण के प्रयासों ने साझे की बहुलवादी सांस्कृतिक विरासत को हाल के वर्षों में बुरी तरह ध्वस्त किया है. जबरन एकता को आरोपित करना आत्मघातक हो सकता है.
चुनौती अपने से भिन्न व्यक्ति या समुदाय को सहन करने की नहीं और न अपनी उदारता के प्रदर्शन की है; जो कुछ सदियों से स्वत: विकसित हुआ है, उसे सहज भाव से आत्मसात कर एकता को मजबूत करनेवाली विविधता की जड़ों को पहचानने की, उनके संरक्षण की चुनौती इस घड़ी सबसे बड़ी है. इंद्रधनुष का सौंदर्य इसी में है कि उसके अलग-अलग रंग एक साथ मिल कर उसकी शोभा बढ़ाते हैं. नये साल का संकल्प यही होना चाहिए.

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