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भेदभाव की शिकार महिलाएं

डॉ रंजना कुमारी निदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च delhi@prabhatkhabar.in वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक (ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स) रिपोर्ट- 2019 में भारत इस बार 112वें पायदान पर है. पिछले साल 2018 के मुकाबले भारत इस मामले में इस साल चार अंक नीचे खिसक गया है. साल 2006 में आयी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूइएफ) की इसी रिपोर्ट […]

डॉ रंजना कुमारी

निदेशक,

सेंटर फॉर सोशल रिसर्च

delhi@prabhatkhabar.in

वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक (ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स) रिपोर्ट- 2019 में भारत इस बार 112वें पायदान पर है. पिछले साल 2018 के मुकाबले भारत इस मामले में इस साल चार अंक नीचे खिसक गया है.

साल 2006 में आयी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूइएफ) की इसी रिपोर्ट में भारत का स्थान 98 था. जिनेवा स्थित डब्ल्यूइएफ द्वारा जारी होनेवाली इस रिपोर्ट में लैंगिक असमानता के मामले में डब्ल्यूइएफ ने इस साल विश्व का सबसे बेहतरीन देश आइसलैंड को माना है, जहां लड़कियों और महिलाओं के प्रति किसी प्रकार का लिंगभेद या अन्य कोई भेदभाव नहीं होता है. इस देश से हमें सीखना चाहिए.

भारत के लिए दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिन पर हम न सिर्फ बहुत कमजोर हैं, बल्कि इसके ठीक होने की सूरत भी नजर नहीं आ रही है- एक है महिला सुरक्षा और दूसरा है विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व.

हालांकि, महिलाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में भी हम बहुत कमजोर देशों में शुमार हो चुके हैं. वहीं अगर आर्थिक और रोजगार के आंकड़ों को भी शामिल कर लें, तो यही लगता है कि भारत महिलाओं के प्रति हर स्तर पर भेदभाव करनेवाला देश है. एक तरफ ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा चल रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ किसी भी स्तर पर महिलाओं की स्थिति सुधारने की कोई पहल नहीं दिख रही है.

यही वजह है कि महिलाएं भेदभाव का शिकार होकर दिन-प्रतिदिन खुद को कमजोर महसूस करने लगी हैं. जाहिर है, जब उनकी इन कमजोरियों का लेखा-जोखा दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले रखा जाता है, तो वैश्विक सूचकांक में हमारा पायदान निचले स्तरों पर खिसकता चला जाता है.

डब्ल्यूइएफ की रिपोर्ट की मानें, तो कुछ आंकड़ों के मुताबिक दुनियाभर में लिंगभेद घट तो रहा है, लेकिन अाज भी हर जगह थोड़ा-बहुत ही सही, महिलाओं एवं पुरुषों के बीच कुछ प्रमुख क्षेत्रों मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य, कार्यस्थल और राजनीति में भेदभाव मौजूद है.

डब्ल्यूइएफ ने कहा है कि साल 2019 के आंकड़ों के मुताबिक, इस भेदभाव को दूर करने में 99.5 साल का वक्त लगेगा, जबकि साल 2018 में यह समय 108 साल बताया गया था. जाहिर है, ये आंकड़ें चिंता पैदा करनेवाले हैं और यह सोचने पर मजबूर करनेवाले हैं कि आखिर हमने कैसा समाज बना रखा है, जहां महिलाएं हर स्तर पर कमजोर कर दी गयी हैं. ऐसे में, यह बहुत जरूरी है कि सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और राजनीति में भागीदारी, इन पांच बिंदुओं पर काम करना बहुत जरूरी है, नहीं तो स्थिति और भी खराब हो जायेगी.

वर्तमान में हमारे देश में पढ़ी-लिखी लड़कियों में बेरोजगारी की दर 27 प्रतिशत है. कार्य-सहभागिता की दर भी पिछले 10 साल में दस प्रतिशत घट गया है. इसी तरह बाकी क्षेत्रों में भी हालत खराब है. वहीं दूसरी तरफ, इसी अवधि में महिलाओं के प्रति होनेवाली हिंसा का दर भी तेजी से बढ़ गया है.

ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि महिलाओं की स्थिति में सुधार संभव है? सरकार की नीतियों में और महिला शिक्षा के बजट में कोई उम्मीद नहीं दिख रही है, जिससे यह उम्मीद जगे कि आनेवाले समय में सब ठीक हो जायेगा. देश की संसद में जब महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही नहीं है और न ही यह सरकार इस बारे में कुछ करना चाहती है, तो फिर कोई उम्मीद भी कैसे हो?

महिला सुरक्षा और तरक्की को लेकर सिर्फ राजनीतिक मंचों से बयान देनेभर से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता. जरूरी है कि नीतियां ऐसी बनें, जो हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति को सुधारे के लिए जवाबदेह हों. महिलाओं के विकास की कोई खास योजना इस सरकार के पास नहीं है. तो जाहिर है, ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में हम नीचे गिरेंगे ही. विडंबना यह है कि केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का जो बजट है, वह तो राज्यों के मुकाबले भी कम है.

सरकार का सबसे ज्यादा जोर मिड डे मिल और आंगनवाड़ी पर ही दिखता है, महिलाओं की सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर कम. जननी सुरक्षा योजना और लड़कियों के लिए स्किल डवेलपमेंट योजनाओं का हिस्सा भी बजट में बहुत कम है. ऐसे में महिलाओं के विकास की बात हम सोच भी कैसे सकते हैं.

आज सबसे बड़ा मुद्दा महिला सुरक्षा का ही है. अगर उनकी सुरक्षा नहीं होगी, तो लड़कियां हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी से दूर होंगी. हिंसा के डर से घर से बाहर नहीं निकलेंगी, पढ़ने नहीं जायेंगी. और जब ऐसा होगा, तो वे शिक्षा में पिछड़ेंगी और फिर रोजगार से भी वंचित होती जायेंगी. यह स्थिति पिछले कई साल से जारी है, यही वजह है कि इस साल भारत चार अंक फिसल कर 112वें स्थान पर पहुंच गया है.

महिला सुरक्षा सिर्फ कहने या पार्टियों के घोषणापत्रों में लिखे जाने भर से उनकी सुरक्षा नहीं हो जाती. सवाल ये हैं कि क्या इसके लिए जरूरी नीतियों को जमीन पर उतारने की कोशिश हो रही है? कानून और प्रशासन उनके प्रति जिम्मेदारी निभा रहे हैं? महिलाओं के प्रति होनेवाले अपराधों को लेकर अदालतों में तेजी से फैसले आ रहे हैं? स्कूल-कॉलेज से लेकर कार्यस्थल पर महिलाएं क्या बिना किसी डर के रह सकती हैं? इन सभी सवालों के जवाब और इन समस्याओं का समाधान सुनिश्चित किये बिना महिला सशक्तीकरण नहीं हो सकता.

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