चंदन तिवारी
लोकगीत गायिका
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आज भिखारी ठाकुर की जयंती है. उनको याद करते हुए कुछ बातें याद कर रही हूं. इधर हालिया दिनों में, मोटे तौर पर कहें, तो पिछले एक-दो सालों में एक नये किस्म के गीतों का चलन चला. जाति पर आधारित गीत आये.
मसलन, मैं फलाना जाति का बेटा हूं, फलाना जाति की बेटी को… आदि-आदि. इसमें जातियों के नाम बदलते गये, स्त्री पर दैहिक हिंसा का रंग भी. यह एक जाति में नहीं रहा. सभी जातियों के पुरुषों को बलशाली और दबंग दिखाते हुए गीतों के जरिये स्त्री पर हिंसा की गयी है. ऐसे समय में हम भिखारी ठाकुर को याद कर रहे हैं. वैसे तो हम उनको हर साल याद करते हैं. उनके नाम पर जलसा करते हैं. इधर उन पर आयोजनों की संख्या भी लगातार बढ़ी है. गली-गली में सम्मान-पुरस्कार आदि भी दिया जाने लगा है.
सवाल यह है कि जब हम वाकई भिखारी ठाकुर को लोकसंस्कृति का नायक मानते हैं और उन्हें उसी रूप में याद भी करते हैं, तो फिर लोकगीत, लोकसंगीत और लोकसंस्कृति की लय क्यों लड़खड़ाती जा रही है? लोकसंगीत में भिखारी की परछाईं भी उतनी ही मजबूती से स्थापित क्यों नहीं हो रही है? उनकी परछाईं का मतलब यह कतई नहीं कि उनके गीत ज्यादा क्यों नहीं गाये जा रहे या उनके नाटक क्यों नहीं खेले जा रहे.
यह तो एकदम अलग किस्म का मामला है. भिखारी ठाकुर को याद करने का मतलब है उनकी परंपरा को आगे बढ़ाना. अगर उनको हम साल-दर-साल बड़े होते और बढ़ते आयोजनों के जरिये याद करने का सिलसिला बढ़ा रहे हैं, तो फिर यह तो कम-से-कम तय ही हो जाना चाहिए कि भोजपुरी को स्त्री के ‘देहनोचवा गीत-संगीत’ से मुक्ति मिलेगी.
हमारे लोकगीतों में जातीय गीतों की परंपरा अलग रही है. जैसे धोबिया गीत, गोंड़उ गीत आदि. लेकिन, उन जातीय गीतों में स्त्री को निशाने पर नहीं रखा जाता था.
आजकल जाति की चाशनी मिलाकर स्त्री को निशाने पर लिया जा रहा है. भिखारी को हम याद कर रहे हैं, तो हमें उनकी परंपरा को याद करना होगा. वह स्त्री के पक्षधर परंपरा के वाहक थे. अपने पूरे जीवन, अपने तमाम नाटकों, नाटकों से इतर स्वतंत्र तरानों को रचकर वह मूल रूप से दो ही काम तो कर रहे थे. एक स्त्री के तन की बजाय मन की परिधि को बड़ा कर रहे थे और उसकी इच्छा-आकांक्षा को स्वर दे रहे थे. दूसरे यह कि धार्मिक रचनाओं को रचकर देवताओं को लोक की परिधि में ला रहे थे और आम जन से जोड़ रहे थे.
भिखारी ठाकुर के कला का आयाम बहुरेखीय था. वह रंगकर्मी भी थे, नाटककार भी, गीतकार भी, संगीतकार भी और गायक भी थे. उपदेशक और समाज सुधारक की उनकी भूमिका अलग रही है. आज के दिन में भिखारी ठाकुर को याद करते हुए बार-बार यही लगता है कि वह जहां कहीं भी होंगे, वहां से भी लोकसंस्कृति की लड़खड़ाती लय को देख सिर्फ चिंतित ही नहीं हो रहे होंगे, बल्कि रो रहे होंगे. ऐसे अनुमान की वजह भी ठोस है और कारण भी तार्किक है.