<figure> <img alt="चर्च" src="https://c.files.bbci.co.uk/6D13/production/_110132972_23.jpg" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><p>राँची के कोर्नेलियस मिंज को लोग करन कहते हैं. उनका परिवार सरना आदिवासी था लेकिन बाद में ईसाई बन गया. हालाँकि कोर्नेलियस के घर में अब भी कई लोग सरना हैं. यह परिवार साथ में सरहुल भी मनाता है और क्रिसमस भी. आपस में शादियाँ भी होती हैं.</p><p>करन कहते हैं कि जब सरना और ईसाई आदिवासी के बीच शादी होती है तो अनुष्ठानों को लेकर थोड़ी विकट स्थिति पैदा होती है लेकिन कोई बीच का रास्ता निकाल लिया जाता है. </p><p>लेकिन अब झारखंड में किसी भी आदिवासी का ईसाई बनना या कोई और धर्म स्वीकार करना धार्मिक स्वतंत्रता का मसला नहीं है. अब यह पूरी तरह से राजनीतिक मसला है और आने वाले दिनों में इसे लेकर विवाद और बढ़ सकता है.</p><p>ऐसी माँग हो रही है कि जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं उन्हें अनुसूचित जनजाति के दायरे से बाहर किया जाए. इनका तर्क है कि कोई अल्पसंख्यक और अनुसूचित जनजाति का फ़ायदा एक साथ नहीं ले सकता. </p><p>बीजेपी प्रदेश में आदिवासियों के ईसाई बनने का मुद्दा हमेशा से उठाती रही है. रघुबर दास की सरकार ने प्रदेश में धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगा दिया है. बीजेपी सरकार ने झारखंड रिलिजियस फ़्रीडम बिल 2017 पास किया था. दरअसल, यह धर्मांतरण विरोधी बिल है. झारखंड के आदिवासियों में सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच साफ़ लकीर दिखती है. </p><p>सरना आदिवासियों के बीच एक धारणा यह भी है कि चर्च उनके ख़िलाफ़ साज़िश रच रहा है और उनके धर्म और संस्कृति को नुक़सान पहुँचा रहा है ताकि उनकी मौलिकता और पहचान ख़त्म कर ईसाई खेमे में लाया जा सके. सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच दूरियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं. </p><p><a href="https://www.youtube.com/watch?v=8f8cyLfRq9I">https://www.youtube.com/watch?v=8f8cyLfRq9I</a></p><h1>ईसाई क्यों बन रहे हैं आदिवासी?</h1><p>अगपित राँची के ज़ेवियर कॉलेज से बीकॉम कर रहे हैं. वो जमशेदपुर के हैं और उनका परिवार भी सरना आदिवासी से ईसाई बन गया था.</p><p>अगपित कहते हैं, "सरना भाइयों को लगता है कि ईसाई बनने के बाद हम उनसे अलग हो गए हैं. हम अपनी जड़ों और संस्कृति से कट गए हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. हाँ, कुछ चीज़ें तो ज़रूर बदलती हैं. हम चर्च जाने लगते हैं. ईसाई धर्म अपनाने के बाद उसकी जीवन शैली का प्रभाव भी पड़ता है. लेकिन हम भी इसी मिट्टी और परिवेश की उपज हैं."</p><p>अगपित को लगता है कि ईसाई बनने के बाद लोगों में अपने अधिकारों, शिक्षा, स्वास्थ्य और आधुनिक मूल्यों के प्रति जागरूकता आती है. वो मानते हैं कि उनके परिवार के ईसाई बनने से किसी सरना आदिवासी परिवार की तुलना में उनके घर में जागरूकता और शिक्षा जल्दी आई.</p><p>बीजेपी और उसके संगठनों का आरोप रहा है कि चर्च लालच देकर भोले-भाले आदिवासियों का धर्मांतरण करवा रहा है.</p><p>झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा कि जिस धर्मांतरण विरोधी क़ानून को उन्होंने 2017 में पास किया, वो बहुत पहले ही पास हो जाना चाहिए. दास ने कहा कि किसी को लालच और लोभ में फँसाकर आदिवासियों को ईसाई बनाने की अनुमति उनकी सरकार नहीं दे सकती. </p><p>जेएन एक्का ने अपनी किताब ‘क्रिस्चिएनिटी एंड द ट्राइबल रिलिजन इन झारखंड’ में लिखा है कि 1850 में जब पहली बार चार स्थानीय उराँव आदिवासियों को ईसाई बनाया गया तो तो कथित रूप से तीन वापस अपने पुराने धर्म में आ गए थे या फिर विरोध या सामाजिक बहिष्कार के डर से वहाँ से भाग गए थे. आगे चलकर सरना बनाम ईसाई की स्थिति और बढ़ती गई. </p> <ul> <li>यह भी पढ़ें- <a href="https://www.bbc.com/hindi/india-50710007?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">झारखंड चुनाव: मुसलमान 15 फ़ीसदी फिर भी इतने उपेक्षित क्यों</a></li> </ul><figure> <img alt="संतोष तिर्की" src="https://c.files.bbci.co.uk/13CED/production/_110133118_24.jpg" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> <figcaption>सरना आदिवासी समिति के महासचिव संतोष तिर्की आदिवासियों के ईसाई बनने के ख़िलाफ़ हैं.</figcaption> </figure><p>चुनावी राजनीति में बीजेपी को यह मुद्दा बहुत ही आकर्षक लगा. सरना आदिवासी भी ईसाई बनाने के ख़िलाफ़ खुलकर सामने आए. ईसाई आदिवासी नेताओं को सरना आदिवासियों ने कभी स्वीकार नहीं किया. उनके ऊपर हमेशा से दबाव रहा कि वो साफ़-साफ़ बताएं कि सरना हैं या ईसाई.</p><p>70 के दशक में आदिवासियों के जाने-माने नेता कार्तिक उराँव के उस कथन से भी सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच की कड़वाहट को समझा जा सकता है. उराँव ने संसद में माँग की थी कि ईसाई आदिवासियों को नौकरियों में जनजाति के नाम पर मिलने वाले आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए. </p><p>सरना आदिवासी समिति के महासचिव संतोष तिर्की आदिवासियों के ईसाई बनने के ख़िलाफ़ हैं. </p><p>वो भी मानते हैं कि जब कोई आदिवासी ईसाई बनता है तो वो अपनी संस्कृति और जड़ों से कट जाता है. हालाँकि वो इसके पक्षधर नहीं हैं कि जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं उन्हें अनुसूचित जनजाति के दायरे से बाहर कर दिया जाए.</p><p>हालाँकि संतोष को लगता है कि आदिवासियों का धर्मांतरण रुकना चाहिए. छात्र अगपित भी इस बात को मानते हैं कि पढ़ने-लिखने के मामले में सरना आदिवासियों की तुलना में ईसाई आदिवासी आगे हैं इसलिए आरक्षण का फ़ायदा वो ज़्यादा उठा रहे हैं. </p> <ul> <li>यह भी पढ़ें- <a href="https://www.bbc.com/hindi/india-50668866?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">रघुवर दास के सामने सरयू राय और गौरव वल्लभ कितने दमदार</a></li> </ul><figure> <img alt="चर्च" src="https://c.files.bbci.co.uk/EECD/production/_110133116_gettyimages-936206482.jpg" height="976" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><h1>अपना-अपना तर्क</h1><p>सरना आदिवासियों के बीच यह भी धारणा है कि आदिवासियों के मिलने वाले आरक्षण का फ़ायदा ईसाई आदिवासी उठा रहे हैं और नौकरियों पर उन्हीं का क़ब्ज़ा है. लेकिन कई लोग मानते हैं कि सरना और ईसाई आदिवासी में बढ़ते मतभेद के कारण राजनीति से तोल-मोल करने की क्षमता कम हुई है और ये एकजुट होकर अपने हितों का काम नहीं करवा पा रहे हैं. </p><p>2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की आबादी में आदिवासियों का हिस्सा 26.2 फ़ीसदी है. मुख्यमंत्री रघुबर दास का कहना है कि 26.2 फ़ीसदी आदिवासियों में तीन फ़ीसदी ईसाई हैं. इस आँकड़े के हिसाब से देखें तो यह राज्य में अल्पसंख्यक हैं.</p><p>यह 26.2 फ़ीसदी आदिवासी भी सरना और ईसाई में उलझा हुआ है. चुनाव के दौरान माँग उठती है कि जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं उन्हें आरक्षण के दायरे से निकाल देना चाहिए. अगर ऐसा हुआ तो ये झारखंड में और कमज़ोर ही होंगे. </p><p>क्या रघुवर दास फिर से सत्ता में आए तो ऐसा करेंगे? उन्होंने बीबीसी से कहा, "इस तरह की माँग उठ रही है. हमने इसे लेकर लीगल स्टडी के लिए दस्तावेज़ सौंपे हैं. ये बात सच है कि जो आदिवासी ईसाई बन रहे हैं, वो अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं. हमारी सरकार धर्मांतरण के बिल्कुल ख़िलाफ़ है. कोई अल्पसंख्यक और अनुसूचित जनजाति का फ़ायदा एक साथ नहीं ले सकता."</p><p>बीजेपी के कई धड़ों का तर्क है कि जो आदिवासी में ईसाई बन गए हैं वो जनजातीय संस्कृति और परंपरा से दूर हो गए हैं. ऐसे में इन्हें एसटी आरक्षण का फ़ायदा क्यों मिलना चाहिए. अभी तक कोई मानदंड स्वीकार्य नहीं है कि कौन आदिवासी है और कौन आदिवासी नहीं है या फिर किस आधार पर किसी को आदिवासी माना जाए और किस आधार पर उसके दावे को ख़ारिज कर दिया जाए. हालाँकि यह बहस भी कोई नई बहस नहीं है. </p> <ul> <li>यह भी पढ़ें- <a href="https://www.bbc.com/hindi/india-47015804?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">त्रिपुरा में 98 ईसाई क्यों बन गए हैं हिन्दू?</a></li> </ul><figure> <img alt="आदिवासी ईसाई" src="https://c.files.bbci.co.uk/5675/production/_110133122_img_1853.jpg" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><p>दो फ़रवरी 1972 को सुप्रीम कोर्ट ने एनईएफ़टी होरो बनाम जहान आरा जसपाल सिंह मामले में ट्राइब और ट्राइबल कम्युनिटी टर्म के बीच अंतर पर अपना फ़ैसला दिया था.</p><p>कोर्ट ने ट्राइबल कम्युनिटी को पारिभाषिक करते हुए कहा था, "ग़ैर-जनजातीय मूल के व्यक्ति जब जनजातीय समूह में शादी करेगा/करेगी और इसे लेकर जनजातीय पंचायत की सहमति रहती है और साथ में ज़रूरी रिवाजों को मानता है तो वह जनजातियों को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों का फ़ायदा उठा सकता है."</p><p>सरना और ईसाई आदिवासियों में इस मुद्दे पर पर्याप्त मतभेद हैं. ईसाई आदिवासी और उनके धार्मिक नेताओं की राय है कि आदिवासी पहचान धर्म के आधार पर नहीं हो सकती बल्कि जन्म के आधार पर होती है.</p><p>पूर्व कार्डिनल टेलिस्फोर पी टोप्पो ने तीन साल पहले कहा था, "आदिवासी पहचान धर्म पर आधारित नहीं है. लोग आदिवासी जन्म से हैं और इनसे जनजातीय अधिकार कोई छीन नहीं सकता है." </p><p>वहीं सरना आदिवासियों और उनके नेताओं की माँग रहती है कि आदिवासियों के धर्मांतरण पर पाबंदी लगनी चाहिए. इनका कहना है कि जो आदिवासी ईसाई बन चुके है वो अपनी परंपरा और संस्कृति से दूर हो गए हैं और उन्हें एसटी आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए. </p><p><a href="https://www.facebook.com/BBCnewsHindi/videos/451164425803799/">https://www.facebook.com/BBCnewsHindi/videos/451164425803799/</a></p><h1>धर्मांतरण का इतिहास और उसकी धार्मिकता</h1><p>ए गौतम ने अपनी किताब ‘द हिन्दुआईजेशन ऑफ ट्राइबल्स ऑफ झारखंड: अ आउटलाइन सिंस बिगनिंग’ में लिखा है, "धार्मिक बँटवारे की जड़ उन्नीसवीं सदी से ही शुरू होती है, जब पहली बार छोटानागपुर के पठार में ईसाई मिशनरिज आए. इनके अपने औपनिवेशिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हित थे और इसी के तहत यह धर्मांतरण शुरू हुआ."</p><p>"ईसाई के पहले ये अपनी अलग-अलग नस्ली और इलाक़ाई पहचान में अलग-अलग परंपरा और संस्कृति के साथ जी रहे थे. ये मूल रूप से सरना धर्म का पालन करते थे. ये प्रकृति की पूजा करते थे. ऐसे में इसके कोई सबूत नहीं हैं कि ईसाई से पहले ये धर्म की लाइन पर अलग-अलग थे." </p><p>"बिरसा मुंडा ने ईसाई मिशनरियों के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया जो बाद में ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता की लड़ाई के रूप में चित्रित किया गया. हालाँकि बिरसा मुंडा का आंदोलन ईसाई धर्म प्रचार के ख़िलाफ़ भी काफ़ी मुखर था. उन्होंने सरना धर्म को फिर से सामने रखा था."</p><p>"आज़ादी के पहले 1941 तक जनगणना में आदिवासियों का सरना धर्म बिल्कुल अलग धर्म के तौर पर देखा जाता था. लेकिन आज़ादी के बाद इसे बंद कर दिया गया."</p><p>कई सरना नेताओं का मानना है कि ऐसा होने से आज़ादी के बाद उनकी पहचान को कमज़ोर किया है. हिन्दुवादी संगठनों का तर्क है कि सरना और हिन्दूइज़म में कोई फ़र्क़ नहीं है क्योंकि दोनों प्रकृति और अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं.</p><p>लेकिन इसके विरोध में तर्क दिया जाता है कि आदिवासी जाति व्यवस्था में भरोसा नहीं करते हैं और वो मूर्ति पूजा भी नहीं करते हैं. 1946 में संविधान सभा की बहस में स्पष्ट रूप से कहा था कि उनके समाज में जाति का कोई सवाल नहीं है, वो जनजातीय पहचान के साथ जीते हैं. </p><p>जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं उनके जीवन में कई तरह की तब्दीली स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका के स्तर पर ये सरना आदिवासियों से आगे हैं. चर्च इसके लिए कई तरह का कार्यक्रम भी चलाता है. ईसाई मिशनरीज़ के कई स्कूल, कॉलेज और अस्पताल हैं. सरना आदिवासियों के बीच भी यह सामान्य धारणा है कि ईसाई बनने के कारण उनके जीवन में बेहतरी आई है. </p><p>झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी सरना आदिवासी हैं लेकिन वो मानते हैं कि चर्च के कारण प्रदेश के आदिवासियों में जागरूकता आई है.</p><p>उन्होंने बीबीसी से कहा, "चर्च ने आदिवासियों के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य पर ख़ूब काम किया है. इसकी नतीजा भी साफ़ दिखता है. झारखंड के जितने भी आदिवासी ब्यूरोक्रेसी में हैं वो लगभग सारे ईसाई हैं. बीजेपी इतना शोर मचाती है लेकिन उसने आदिवासियों को आगे बढ़ाने के लिए किया क्या है. संविधान में यह लोगों को हक़ मिला हुआ है कि कोई किसी भी धर्म के स्वेच्छा से अपना सकता है."</p><p>बाबूलाल मरांडी ज़ोर देकर कहते हैं कि जो आदिवासी ईसाई नहीं हैं वो सरना हैं और सरना हिन्दू नहीं हैं. वो कहते हैं, "सरना आदिवासी हिन्दू नहीं हैं. सरना अपने आप में हिन्दू से बिल्कुल अलग पहचान है."</p><p>सरना नेता संतोष तिर्की भी कहते हैं कि सरना बिल्कुल अलग धर्म है. वो कहते हैं, "जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया वो भले सरना नहीं रहे लेकिन जो सरना हैं उन्हें हिन्दू नहीं कहा जा सकता."</p> <ul> <li>यह भी पढ़ें- <a href="https://www.bbc.com/hindi/india-38406396?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">’दलित से ईसाई बन गए लेकिन भेदभाव जारी'</a></li> </ul><figure> <img alt="कामिल बुल्के" src="https://c.files.bbci.co.uk/BB33/production/_110132974_img_1850.jpg" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><h1>मिशनरिज क्या कहता है आरोपों पर</h1><p>राँची का मनरेसा हाउस ईसाई मिशनरिज का है. यहाँ डॉक्टर कामिल बुल्के शोध संस्थान है. इसमें हिन्दी साहित्य पर शोध होता है.</p><p>कामिल बुल्के बेल्जियम के एक पादरी थे और वो पहले स्कॉलर थे जिन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से रामकथा पर पीएचडी की थी. </p><p>इसी मनेरसा हाउस में फादर महेंद्र पीटर से मुलाक़ात हुई. उनसे पूछा क्या चर्च आदिवासियों को लालच देकर धर्म परिवर्तन कराने में लगा है?</p><figure> <img alt="फादर महेंद्र पीटर" src="https://c.files.bbci.co.uk/0855/production/_110133120_22.jpg" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> <figcaption>फादर महेंद्र पीटर का कहना है कि सरना आदिवासी स्वेच्छा से ईसाई धर्म अपना रहे हैं</figcaption> </figure><p>जवाब में फादर महेंद्र पीटर ने कहा, "अगर ऐसा होता तो झारखंड के 27 फ़ीसदी आदिवासी में महज़ तीन फ़ीसदी ही ईसाई नहीं होते. पिछले डेढ़ सौ सालो में महज़ तीन फ़ीसदी सरना आदिवासियों ने ही ईसाई धर्म अपनाया है. इन्होंने स्वेच्छा से अपनाया है. हमारा काम मानव सेवा है और वही कर रहे हैं."</p><p>"इसमें किसी से मज़हब के आधार पर भेदभाव नहीं है. हमारे स्कूल और कॉलेज में सभी धर्म के लोग पढ़ते हैं. कामिल बुल्के लाइब्रेरी में जाकर देखिए किस मज़हब के कितने बच्चे पढ़ रहे हैं. आदिवासी कोई जन्म के आधार पर होगा न कि धर्म के आधार पर. भारतीय संविधान में सभी को धार्मिक स्वतंत्रता का हक़ मिला हुआ है."</p><p>औपनिवेशिक शासन ने जब बिरसा के आंदोलन को दबा दिया तो छोटानागपुर के आदिवासियों ने महसूस किया कि एक ऐसा मंच बनाया जाए जिसके ज़रिए अपने हितों की रक्षा की जा सके. </p><p>केएल शर्मा की रिसर्च झारखंड मूवमेंट इन बिहार के अनुसार, "इस लक्ष्य को देखते हुए 1915 में आदिवासियों ने उन्नति समाज नाम से एक संगठन बनाया. इस संगठन में उस वक़्त के सभी प्रमुख आदिवासी नेता शामिल थे. यह आदिवासियों की आवाज़ बनकर उभरा था."</p><p>"हालाँकि यह संगठन लंबे समय तक एकजुट नहीं रहा क्योंकि ईसाई आदिवासी नेता और ग़ैर-ईसाई आदिवासी नेताओं के बीच मतभेद सतह पर आ गया था. इसका नतीजा यह हुआ कि संगठन दो हिस्सों में बँट गया. एक ईसाई आदिवासियों की कैथोलिक सभा और दूसरी ग़ैर-ईसाइयों की किसान सभा. इन दोनों में शत्रुता इतनी बढ़ गई कि जयपाल सिंह ने 1938 में आदिवासी महासभा का गठन किया. यहाँ तक कि इसमें ग़ैर-आदिवासियों के एंट्री की भी अनुमति थी ताकि झारखंडी एकता को व्यापक बनाया जा सके."</p><figure> <img alt="ईसाई" src="https://c.files.bbci.co.uk/C907/production/_110136415_gettyimages-133863381.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>आगे चलकर आदिवासी महासभा का नाम 1949 झारखंड पार्टी कर दिया गया और जयपाल सिंह ने लोकसभा और विधानसभा में आदिवासियों के लिए सीटें रिज़र्व करने की माँग शुरू की. हालाँकि बाद में इस संगठन में भी ईसाई और ग़ैर-ईसाई आदिवासियों का टकराव रहा. </p><p>झारखंड की राजनीति में आदिवासी बनाम ग़ैर आदिवासी, अलगाव बनाम समावेशी और आदिवासियों की जीवन शैली बनाम बाहरियों का दबदबा रहा है. 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद हुए सर्वे से पता चलता है कि बीजेपी को हिन्दुओं का सबसे ज़्यादा वोट मिला और आदिवासियों का भी क़रीब तीस फ़ीसदी वोट मिला जो कि जेएमएम से ज़्यादा है जबकि जेएमएम को आदिवासियों की पार्टी कहा जाता है. </p><p>झारखंड में आदिवासियों के लिए 28 सीटें रिज़र्व हैं. 2014 के विधानसभा चुनाव को देखें तो पता चलता है कि जिन सीटों पर सरना आदिवासी ज़्यादा हैं वहाँ बीजेपी ने ज़्यादा सीटें जीती हैं. वहीं जहां के इलाक़े खनन और ज़मीन को लेकर संघर्षरत है वहाँ झारखंड की स्थानीय पार्टियों को जीत मिली है. </p><p>इस 2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में कुल 85 लाख आदिवासी हैं और ये कुल आबादी के 26.2 फ़ीसदी हैं. आज़ादी के वक़्त आदिवासी यहाँ 36 फ़ीसदी थे. प्रदेश में आदिवासियों के अलग-अलग तीस समूह हैं. यहाँ चार प्रमुख आदिवासियों का दबदबा है और वो हैं- संथाल, ओराँव, मुंडा और होम. इन चारों की आबादी आदिवासियों की कुल आबादी का 70 फ़ीसदी है. </p><p>ये किस आधार पर किसी राजनीतिक पार्टी को पसंद करते हैं यह इसे समझना बहुत जटिल है. </p><p>2014 के विधानसभा चुनाव के बाद हुए सर्वे में यह बात सामने आई कि जो आदिवासी हिन्दू बन गए हैं उनमें से क़रीब पचास फ़ीसदी लोगों ने बीजेपी को वोट किया. हालाँकि ईसाई आदिवासियों में से बड़ी संख्या में 42 फ़ीसदी लोगों ने झारखंड मुक्ति मोर्चा को वोट किया.</p><p>वहीं सरना आदिवासियों का वोट बीजेपी और जेएमएम में बँट गया. 25 फ़ीसदी बीजेपी को मिला और 31 फ़ीसदी जेएमएम को. 47 फ़ीसदी ओराँव आदिवासियों ने बीजेपी को वोट किया वहीं जेएसएम को 40 फ़ीसदी संथालों का वोट मिला. इसके साथ मुंडा आदिवासियों का एक तिहाई वोट जेएमएम को गया और केवल सात फ़ीसदी वोट बीजेपी को मिला.</p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">यहां क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/bbchindi">फ़ेसबुक</a><strong>, </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong>, </strong><a href="https://www.instagram.com/bbchindi/">इंस्टाग्राम</a><strong> और </strong><a 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झारखंड: क्या आदिवासियों को लालच में फँसाकर ईसाई बनाया जा रहा है- ग्राउंड रिपोर्ट
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