नयी दिल्ली: संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद नागरिकता संसोधन विधेयक पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी दस्तखत कर दिए. इसके साथ ही ये विधेयक कानून बन गया. इस कानून के जरिए अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम शरणार्थियों के लिए भारत की नागरिकता हासिल करना आसान हो जाएगा. केंद्र सरकार इसे हितकारी बता रही है तो वहीं पूर्वोत्तर राज्य असम में इस बिल के विरोध में विरोध का स्वर तेज हो गया है.
असम के कई इलाकों में कर्फ्यू जारी
केंद्र सरकार ने फिलहाल असम के कई इलाकों में कर्फ्यू लगाया हुआ है. भारतीय अर्धसैनिक बलों की 20 कंपनियां वहां तैनात की गयी हैं क्योंकि विरोध प्रदर्शनों ने हिंसकर रूप ले लिया है. लेकिन सवाल है कि आखिरकार असम में ही इतना विरोध इस कानून का क्यों हो रहा है. तो वजह यह है कि पाकिस्तान में ही सबसे ज्यादा बंगाली हिन्दू और मुसलमान शरणार्थी रहते हैं. वैसे भी ये विरोध आज शुरू हो गया है, ऐसा बिलकुल नहीं है.
इस वजह से पूर्वोत्तर राज्य असम ने हिंसक घटनाओं का कई दौर देखा है. जातीय संघर्ष और शरणार्थी समस्या को लेकर असम कई बार जल चुका है. कभी शरणार्थियों को बाहर खदेड़ने के लिए तो कभी बोडो आदिवासी समुदाय द्वारा अलग बोडोलैंड की मांग को लेकर. और ये सिलसिला शुरू होता है साल 1971 से.
शरणार्थी समस्या से जूझता असम
दरअसल, साल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पश्चिमी पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में खूब कत्लेआम मचाया था. पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी ढाका सहित अन्य हिस्सों में बंगाली मुसलमानों और हिन्दुओं को बड़े पैमाने पर मारा जाने लगा था. इसी वजह से लाखों की संख्या में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से बंगाली हिन्दू और मुसलमान शरणार्थी बनकर असम आ गए. जब बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान की हार हो गयी और बांग्लादेश में हालात बदले तो ज्यादातर लोग वापस लौट गए. लेकिन तकरीबन 1 लाख बांग्लादेशी नागरिक असम में ही रह गए.
बांग्लादेशी शरणार्थियों के राज्य में बस जाने के बाद से असम के स्थानीय लोग अपनी क्षेत्रीय, राजनीति और सांस्कृतिक पहचान को लेकर असुरक्षा की भावना से घिर गए. लोगों को लगने लगा कि उनकी सांस्कृतिक अस्मिता तो खतरे में पड़ेगी ही साथ ही उनकी जमीन, रोजगार और धार्मिक आजादी पर भी संकट आ जाएगा. बस, तो इसका विरोध शुरू हो गया. लोगों ने सरकार के सामने मांग रख दी कि शरणार्थियों की पहचान करके उनको वापस भेज दिया जाए. या फिर शरणार्थी कैंपो में रखा जाए. असम में इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व ऑल इंडिया असम स्टूडेंट यूनियन द्वारा किया जा रहा था. इनकी मांग थी कि शरणार्थियों की पहचान करके उनको वापस भेज दिया जाय.
होती रही छिटपुट हिंसा की घटनाएं
इसी बीच ये आंदोलन कभी-कभी हिंसक हो गया और साल 1978 के आसपास बंगाली मुसलमानों को निशाना बनाया जाने लगा. स्थानीय आदिवासियों और बंगाली मुसलमानों के बीच जातीय और प्रांतीय संघर्ष में तकरीबन 3 हजार लोग मारे गए. कई घरों को जला दिया गया और नरसंहार किया गया. सबसे ज्यादा तकलीफ औरतों, बच्चों और बुजुर्गों को उठाना पड़ा.
बोडोलैंड की मांग से भी जला असम
80 के दशक में ये और भी हिंसक हो गया जब बोडो आदिवासियों ने अलग बोडोलैंड की मांग को लेकर संघर्ष तेज कर दिया. बोडो उग्रवादी संगठनों के तौर पर इकट्ठा हो गए और बंगाली तथा मुस्लिम शरणार्थियों पर टूट पड़े. सैकड़ों की संख्या में हत्याएं हुईं और लोगों के घरों को लूटकर आग लगा दी गयी. इसका निशाना यूपी, बिहार और झारखंड के वो जनसंख्या भी बनी जिन्हें औपनिवेशिक शासन के दौरान असम के चाय बागानों में मजदूरी करने के लिए ले जाया गया था. सिख आंतकियों की गोली का शिकार होने से कुछ समय पहले तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ असम का दौरा किया था.
जानिए असम समझौते की मुख्य बातें
बाद में साल 1984 में असम में बोडो उग्रवादियों और बंगाली हिन्दू तथा मुस्लिम शरणार्थियों के बीच संघर्ष अपने चरम पर पहुंच गया. बोडो उग्रवादियों ने बड़ी संख्या में नरसंहार किया. इस बीच ऑल इंडिया असम स्टूडेंट यूनियन का शरणार्थी समस्या को लेकर संघर्ष चलता रहा. आखिरकार साल 1985 में राजीव गांधी ने प्रदर्शनकारी छात्र संघठन के साथ समझौता किया. इस समझौते को इतिहास असम समझौता के नाम से जानता है.
इस समझौते के अनुसार ये तय किया गया कि साल 1961 से 1971 के बीच जो लोग बांग्लादेश से शरणार्थियों के रूप में भारत आए थे उनको यहीं रहने दिया जाएगा लेकिन उन्हे वोटिंग राइट्स नहीं मिलेंगे. साथ ही ये भी कहा गया कि जो लोग साल 1971 के बाद भारत आए हैं उनकी पहचान करके उन्हें वापस भेज दिया जाएगा.
एनआरसी अपडेट का लिया गया फैसला
इस एनआरसी को सबसे पहले साल 1999 में तात्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में अपडेट करने का फैसला किया गया लेकिन किसी कारणवश ये ठंडे बस्ते में चला गया. इसके बाद 2005 में मनमोहन के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कार्यकाल में एनआरसी को अपडेट करना का फैसला किया गया. इसका जिम्मा सौंपा गया असम में कांग्रेसनीत तरूण गोगोई की सरकार को. काम शुरू भी किया गया लेकिन हिंसा भड़क गयी और इसको बंद करना पड़ा.
इसके बाद ये मामला दोबारा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के सामने आया जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई. अपने पहले कार्यकाल में तो बीजेपी इसे पूरा नहीं कर पायी लेकिन दूसरे कार्यकाल में इस दिशा में काम किया.
सबसे पहले एनआरसी को अपडेट किया गया जिसमें 19 लाख लोगों की पहचान की गयी. इसके बाद नागरिकता संसोधन बिल लाया गया जिसका विरोध शुरू हो गया है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक फिलहाल वहां तनाव के हालात हैं.