संजय शेफर्ड
औरतों को मर कर जीना आता है. पुरुषों को एक उम्र में बस एक ही उम्र नसीब होती है. औरतें कभी नहीं मरतीं, फिर भी घर के अलग-अलग हिस्सों में इस कदर दफना दी जाती हैं कि एक पुरुष का बनाया घर एक औरत का हो जाता है. भारतीय घरों में औरतों की देहगंध इस कदर हावी होती है कि पुरुष का अस्तित्व नगण्य हो जाता है. पुरुष कभी भी समर्पित होना नहीं जानता. वह घर में खुद को खर्च कर देने के बजाय हर रोज़ एक टुकड़ा खुद को बाहर किसी और के पास छोड़ आता है. एक औरत जब अपने ही घर में मर और खप रही होती है, तो उस वक्त पुरुष अपने लिए बाहर एक नयी दुनिया का निर्माण कर रहा होता है. औरतों की अंतिम दुनिया पति और बच्चे होते हैं.
जबकि पुरुषों की दुनिया में ऐसा नहीं है. औरत मरी नहीं कि वह दूसरी औरत जो हर रोज जेहन में पलती है, घर में कदम रख देती है. अगर उसकी जिंदगी में आनेवाली सौ औरतें भी मर जायें, तो वह किसी-न-किसी बहाने से अपनी 101वीं शादी के लिए खुद को तैयार कर लेगा. सचमुच, एक पुरुष बहुत अलग होता है एक स्त्री से! एक औरत अपने अकेलेपन में खुद को तबाह कर लेती है. एक आदमी अपने अकेलेपन में खुद को छोड़ कर सब कुछ तबाह कर देता है. कोख की जिम्मेदारी इसीलिए प्रकृति ने औरतों को सौंपी है. बच्चे जनने का सारा अधिकार अभी भी एक स्त्री के पास है. दुनिया इसीलिए ज्यादा सुरक्षित है, क्योंकि उसकी सृजक और पालक स्त्री है. विध्वंस के खेल में स्त्री और दोनों बराबर के भागीदार हैं. कारण आखिर दोनों रहते तो एक ही घर, एक ही देह, एक ही खोल में हैं. सभ्यता का इतिहास जब लिखा जायेगा, तो दोनों को बराबर का भागीदार बना दिया जायेगा. सच और झूठ को एक ही पलड़े पर तौला जायेगा.
स्त्रियों के हिस्से में कभी प्रेम नहीं आयेगा. सिर्फ और सिर्फ गुलामी आयेगी. उसका अपना अकेलापन आज की ही तरह दो सौ साल बाद भी उस पर भारी पड़ जायेगा. सचमुच, एक औरत अपने अकेलेपन में नितांत अकेली होती है. आप चाहें, तो अपने कयामत के दिन मुझे अपना गवाह बना लीजिएगा.