डॉ कविता विकास
लेखिका
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दिसंबर का आगमन होनेवाला है. गुनगुनी धूप, बर्फीली हवाएं, हरसिंगार के झरते फूल, नयनाभिराम गाछों की लरजती डालियां और कोहरे की चादर. चटख रंग की तितलियां सों-सों की आवाज कर एक-दूजे के पीछे भागने लगती हैं, तो यह उपवन में बहार छाने का संदेश है. यह जाड़े की नर्म धूप में खिलनेवाले फूलों का मौसम है, जो बसंत की बहार से अलग है. घास, पंखुड़ियों और पत्तों पर मोती-सरीखा ओस की बूंदें रातभर वातावरण में हो रही गतिविधियों की गवाह होती हैं.
खुश्क हवाएं बदन का सूखापन बढ़ा देती हैं, पर मन की कोमलता को नया आयाम मिलता है. रजाई की गरमी और ऊनी कपड़ों की गंध के बीच सपनों की दुनिया चहक उठती है. कोहरे से झांकती भोर का विभास एक अनोखे उजास से भर देता है.
शब्दों पर समाज का अंकुश होता है. इसलिए प्रेम करनेवाले आंखों से बात करते हैं. कवियों ने दिसंबर की सर्दी को जीवन के रोमांस से जोड़ा है. यह जुदाई और तन्हाई को दिखलाता है, जिसमें विरह-वेदना चरम सीमा पर होती है. वायवी उड़ानों संग मन के पंछी का उड़ जाना और वर्जनाओं को तोड़कर सुकोमल कल्पनाओं में रत हो जाना इतना खास होता है कि हर वक्त आंखों में खुमारी छायी होती है .
दो दशक पहले जब रिश्तों में गरमी बरकरार थी और जिंदगी में इतनी जद्दोजहद नहीं थी, तब सर्दियों में आंगन में उतरती धूप सामूहिकता का पर्याय होती थी.
पूरा कुनबा उस धूप में बैठ जाता था. बेटियों के बाल में तेल लगाकर चोटियां गूंथते-गूंथते किस्से-कहानियों का दौर चल पड़ता था. कई बार इस गुनगुनी धूप में जीवन भर के रिश्ते तय हो जाते थे. अचार, पापड़, बड़ियां आदि के नाना प्रकार इसी धूप की देन होती थीं. फल-फूल की इतनी विविधताएं किसी और महीने में देखने को नहीं मिलती हैं.
समय बदल गया. ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण सर्दियों की अवधि कम हो गयी. आंगन में धूप अब भी उतरती है, पर आंगन का बंटवारा हो चुका है. अब न तो कुनबा बैठता है और न किस्से-कहानियों का दौर चलता है. अब लंबे बाल भी कट चुके हैं, उनमें तेल लगाना गंवारू संस्कृति का द्योतक हो गया है. गुनगुनी धूप अब याद बन चुकी है. संयुक्त परिवार के विघटन और फ्लैट संस्कृति ने बहुत कुछ बदल दिया है.
काश! धीरे-धीरे मानवीय संवेदनाओं से दूर होते जा रहे प्रस्तर-प्राण में सर्दी की नर्म धूप कुछ गुनगुनी एहसास भर दे. काश! अपने अतिरिक्त दूसरों के बारे में सोचना सिखला दे, सामूहिकता में जीना सिखला दे. आज जिस शीत से हम भागना चाहते हैं, वह तो आयेगा ही. जीवन कभी एक सा नहीं रहता है.
वसंत की खुशनुमा फिजाएं हैं यहां, तो दिसंबर की विभीषिकाएं भी हैं. दुख-सुख का यही आवागमन तो जीवन का दर्शन है. आइए, दिल खोलकर शरद का स्वागत करें, क्योंकि आज शीत है, तो ही कल वसंत भी आयेगा. दिसंबर स्वयं में एक एहसास है, जिसे जीना आना चाहिए.