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पुलाव का खुशबूदार जायका

पुष्पेश पंत गुजरे जमाने में किन्हीं खास मौकों की दावतों में ही बिरयानी का देग बड़े चूल्हों पर चढ़ाया जाता था और उस दौर में रोजमर्रे के लिए पुलाव ही पौष्टिक तथा स्वादिष्ट भोजन समझा जाता था. लेकिन अब तो बिरयानी ही आम हो चली है और पुलाव कभी-कभार घरों में पकाये जाने लगे हैं. […]

पुष्पेश पंत

गुजरे जमाने में किन्हीं खास मौकों की दावतों में ही बिरयानी का देग बड़े चूल्हों पर चढ़ाया जाता था और उस दौर में रोजमर्रे के लिए पुलाव ही पौष्टिक तथा स्वादिष्ट भोजन समझा जाता था. लेकिन अब तो बिरयानी ही आम हो चली है और पुलाव कभी-कभार घरों में पकाये जाने लगे हैं. पुलाव के इतिहास के बारे में बता रहे हैं खान-पान के जानकार प्रोफेसर पुष्पेश पंत…
हाल के वर्षों में बिरयानी ने कुछ ऐसा हल्ला मचाया है कि हमारे पुराने दोस्त पुलाव की सुध खानेवालों ने बिसरा दी है. गुजरे जमाने में बिरयानी का देग खास मौके की दावतों में ही दम पर पकाया जाता था और रोजमर्रा के लिए पुलाव ही पौष्टिक तथा स्वादिष्ट भोजन समझा जाता था. आज इतिहासकार भले ही यह हठ पाले रहें कि यह मध्य एशिया के ‘पिलाफ’ नामक व्यंजन की संतान है, पर प्राचीनकाल में भी आयुर्वेद की पुस्तकों में पुलाव का उल्लेख मांस और मसालों के साथ पकाये स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में मिलता है.

हमारी राय में पुलाव का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह बदलते मौसम के अनुकूल खुद को ढाल सकता है. सामिष पुलाव में सबसे नफीस लखनऊ का नवाबों का पसंदीदा यखनी पुलाव है, जिसमें चावल का एक-एक दाना अलग रहकर भी शोरबे के स्वाद और गंध को अपने में सहेज कर रखता है. मलाइयत ऐसी की आप बिना रायते या दही के साथ इसका पूरा मजा ले सकते हैं. यह भी जरूरी नहीं कि इसे बकरी के गोश्त से ही तैयार किया जाथे. इसके लिए मुर्ग और झींगों का उपयोग भी कर सकते हैं. अवध के तकल्लुफ के खानों में मोती पुलाव, शीशरंगा और नारंगी पुलाव मशहूर हैं. मोती बनाने के लिए कीमे की नन्हीं नफीस गोलियां बनाकर चांदी के वर्क से मढ़ी जाती थीं.

खैर, यह न सोचें कि पुलाव का आनंद शाकाहारी नहीं ले सकते. राजस्थान में गट्टे का पुलाव बनाया जाता है. हरी मीठी मटर या सिर्फ जीरे के पुलाव के मजे भी कम नहीं हैं. मुगलों के जमाने से ‘कबूली’ का चलन रहा है, जिसमें काबुली चने इस्तेमाल होते हैं. आजकल गाजर, गोभी, बीन, मटर जैसी सब्जियों को काजू, किशमिश आदि मेवों के साथ मिलाकर नवरतन पुलाव परोसा जाता है. कश्मीर में गुच्छियां नायाब समझी जाती हैं. अविभाजित पंजाब में यही सर्वश्रेष्ठ पुलाव था. कटहल और जिमीकंद के शाकाहारी पुलाव भी बीच-बीच में प्रकट और लुप्त होते रहते हैं. साधन सीमित और सभी पदार्थ सुलभ न हों, तब भी आप सोया बड़ी अथवा खुंब का पुलाव पका सकते हैं.

मीठे पुलाव के भी विभिन्न अवतार देखने-चखने को मिलते हैं. सबसे आम जर्दा है, जिसको मीठे चावल कहना घोर अन्याय है. अनानास या आम के साथ पकाये जानेवाले ‘मुजाफर’ भी पुलाव ही हैं. ‘मुतंजन’ पुलाव पकाने में सबसे कठिन और गरिष्ठ होता है. कुशल कारीगर बावर्ची एक किलो मांस में चार किलो चीनी खपा देते हैं. कलाकारी यह है कि मिठास के बावजूद यह सामिष व्यंजन अपनी ओर चुंबक की तरह खींचता है. मुतंजन का मूल नाम ‘मुश्के तंजन’ है अर्थात् सुगंध का खजाना.

अंग्रेजी राज में मिश्रित नस्ल के एंग्लो इंडियन समुदाय में ‘पिलाफ राइस’ ईजाद किया गया, जिसमें हल्दी के पुट से पीरी रंगत पैदा की जाती थी और जिसे किसी भी मांसाहारी शोरबे के साथ खाया जाता था. बंगाल में मछली का कोरमा पुलाव भी इसी दौर में विकसित हुआ. दक्षिण भारत में नींबू, टमाटर, करी पत्ते और नारियल वाले छौंके चावल बनाये जाते हैं, शायद इसीलिए देश के इस भाग में पुलाव कम दिखायी देता है. हां, केरल में जरूर ‘फिश बिरयानी’ बनती है, जो बिरयानी कम और पुलाव ज्यादा लगता है.

रोचक तथ्य
इतिहासकार भले ही यह हठ पाले रहें कि पुलाव मध्य एशिया के ‘पिलाफ’ नामक व्यंजन की संतान है, लेकिन प्राचीनकाल में भी आयुर्वेद की पुस्तकों में पुलाव का उल्लेख मांस और मसालों के साथ पकाये स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में मिलता है.
सामिष पुलाव में सबसे नफीस लखनऊ का नवाबों का पसंदीदा यखनी पुलाव है, जिसमें चावल का एक-एक दाना अलग रहकर भी शोरबे के स्वाद और गंध को अपने में सहेज कर रखता है.

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