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पढ़ें अभि. पुष्पेंद्र की कविता ‘एक रंग’

एक रंग अभाव का रंग घोलें, शुद्ध पानी से अपनी अंगुलियों की कूची से वह सफेद दीवार के कैनवास पर कोई अनजान सी आकृति बनाता, पर उसकी अंगुलियों के हटते ही वह गुम हो जाती वह अपने रूप को समेटते हुए कहीं खो जाती वह खोया सा, बादलों के बीच बनती-उभरती तस्वीरों में अथक चेष्टा […]

एक रंग

अभाव का रंग घोलें, शुद्ध पानी से

अपनी अंगुलियों की कूची से

वह सफेद दीवार के कैनवास पर

कोई अनजान सी आकृति बनाता, पर

उसकी अंगुलियों के हटते ही वह गुम हो जाती

वह अपने रूप को समेटते हुए कहीं खो जाती

वह खोया सा, बादलों के बीच बनती-उभरती तस्वीरों में

अथक चेष्टा करता उसे खोजने की, सफेद फाहों में

वह दीवार पर उमगती हुए तस्वीर को

धुएं से जलते हुए देखता

उसके रंग को गलते हुए, गिरते हुए देखता

अपने हाथों से ही उसे बदशक्ल करते हुए देखता

सफेद पट्टियों में जलन के दर्द को सहते हुए देखता

लेकिन आज वह संतुष्ट था कि उसके लकीरों की, एक पहचान बनी थी

वह आकृति जो उसका सपना थी, बनती जा रही थी

उसके अंगुलियों से घिसते-घिसते

सख्त सफेद दीवार बन गयी थी

वह आकृति अब तस्वीर से आगे, चलती-फिरती, जी उठी थी

अब वह स्पष्ट देख पा रहा था

उस सपने के रंग को, जब आज वह जा रही थी

निर्भय सी ना कि मर रही थी निर्भया सी…

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