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जंगलों में आग, समुद्री जल-स्तर में बढ़त, तीव्र भूमि क्षरण, बाढ़ व सूखे की बढ़ती बारंबारता, भूजल के स्तर में गिरावट, नदियों में कम पानी, बेमौसम की बारिश आदि जैसे संकेतों के बावजूद कई लोगों को लगता है कि जलवायु संकट जैसी कोई समस्या नहीं है और है भी, तो अभी चिंता की कोई बात […]

जंगलों में आग, समुद्री जल-स्तर में बढ़त, तीव्र भूमि क्षरण, बाढ़ व सूखे की बढ़ती बारंबारता, भूजल के स्तर में गिरावट, नदियों में कम पानी, बेमौसम की बारिश आदि जैसे संकेतों के बावजूद कई लोगों को लगता है कि जलवायु संकट जैसी कोई समस्या नहीं है और है भी, तो अभी चिंता की कोई बात नहीं है.

ऐसे लोगों को 153 देशों के 11 हजार से अधिक वैज्ञानिकों की चेतावनी का संज्ञान लेना चाहिए. इन वैज्ञानिकों ने 1979 में जेनेवा में हुए पहले विश्व जलवायु सम्मेलन के 40 साल पूरे होने के मौके पर प्रतिष्ठित जर्नल ‘बायोसाइंस’ में अपनी चिंता जाहिर की है.

इस बयान का उद्देश्य कार्बन उत्सर्जन और धरातल के तापमान बढ़ने के मानकों के इतर जलवायु संकट के कारणों व परिणामों के तमाम संकेतों को सामने लाना है. अब हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि धरती आपातकालीन स्थिति से जूझ रही है और जीने-रहने लायक भविष्य के लिए वर्तमान के रहन-सहन में बदलाव लाना होगा. वैश्विक समाज के तौर-तरीकों तथा प्राकृतिक पारिस्थितिकी के साथ संबंधों में भी परिवर्तन की आवश्यकता है.

जिस गति से यह संकट गहरा रहा है, वह अधिकतर वैज्ञानिक शोधों के अंदेशे से कहीं अधिक है. आबादी में बढ़त, हवाई उड़ान, मांस उद्योग और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन का बढ़ना, मौसम में तेज बदलाव, ग्लेशियरों का पिघलना व समुद्र में अधिक पानी होना जैसे कारक यह बता रहे हैं कि यदि अभी से ठोस उपाय नहीं किये गये, तो धरती पर जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है और मनुष्य जाति को भयावह त्रासदियों का सामना करना होगा.

यह पहला मौका नहीं है, जब बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से चेतावनी दी है. साल 1992 में लगभग 1,700 शीर्षस्थ वैज्ञानिकों ने ‘मानवता को चेतावनी’ दी थी. उसके 25 साल बाद 15 हजार से ज्यादा वैज्ञानिकों ने प्रदूषण के खतरे और धरती से वन्य जीवों के सामूहिक रूप से लुप्त होने के संकट की ओर दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया था. उस निवेदन को अनेक देशों की संसद में भी पढ़ा गया था.

बीते तीन दशकों में विभिन्न मसलों व पहलुओं पर भी वैज्ञानिक अध्ययन लगातार प्रकाशित होते रहे हैं. वैज्ञानिक चेतावनी देकर अपना नैतिक कर्तव्य तो पूरा कर रहे हैं, चुनौतियों से निपटने के लिए राजनीतिक नेतृत्व को ही अगुआई करनी है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब ऐसी चेतावनियां आ रही हैं, अमेरिका ने पेरिस जलवायु समझौते से अलग होने का निर्णय किया है. ब्राजील भी इसे मानने के लिए तैयार नहीं है तथा रूस ने इस संबंध में अभी कोई संकल्प नहीं लिया है.

इस समझौते को अमली जामा पहनाने का दारोमदार भारत, चीन और यूरोपीय देशों पर आ पड़ा है. इन देशों को भी अपने विकास की चिंता करनी है. जलवायु संकट वैश्विक है, इसलिए इसका सामना भी सभी देशों को मिल-जुलकर करना पड़ेगा. हमें वैज्ञानिकों की बातों को गंभीरता से लेते हुए कारगर नीतियां बनाने पर विचार करना होगा. देरी अब विकल्प नहीं है.

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