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अगले चुनावी मोर्चे से पहले
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com लगभग निरंतर चुनावी मोड में रहनेवाला अपना देश शीघ्र ही झारखंड और दिल्ली के विधानसभा चुनाव देखेगा. बिहार और बंगाल जैसे बड़े और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण राज्यों की बारी भी बहुत दूर नहीं है. अभी संपन्न चुनावों के बाद हरियाणा में तो सरकार बन गयी, लेकिन महाराष्ट्र […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
लगभग निरंतर चुनावी मोड में रहनेवाला अपना देश शीघ्र ही झारखंड और दिल्ली के विधानसभा चुनाव देखेगा. बिहार और बंगाल जैसे बड़े और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण राज्यों की बारी भी बहुत दूर नहीं है. अभी संपन्न चुनावों के बाद हरियाणा में तो सरकार बन गयी, लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के बीच रस्साकशी जारी है.
देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली वैसे ही राजनीति के केंद्र में रही है, लेकिन ‘आप’ के रूप में राजनीति के नये प्रयोग की सफलता-विफलता का मुकाबला प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता से होने के कारण इस ‘आधे-अधूरे’ राज्य की चुनावी राजनीति मायने रखती है. झारखंड भी राजनीतिक दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है. राज्य गठन के बाद 19 वर्षों में आदिवासी-सपनों और महत्वाकांक्षाओं की राजनीति के हाशिये पर जाने और भाजपाई वर्चस्व स्थापित होने के कारण झारखंड का चुनाव देश की नजर में रहेगा ही.
यहां हम झारखंड की चर्चा छोड़कर दिल्ली की चुनावी राजनीति की विस्तार से चर्चा करना चाहते हैं. उसके कुछ उल्लेखनीय कारण हैं. एक तो यही कि दिल्ली देश की राजधानी है और पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिलने के बावजूद उसकी राजनीति पर देशभर की निगाहें लगी रहती हैं. यह वही दिल्ली राज्य है, जहां कांग्रेस की बुजुर्ग नेता शीला दीक्षित ने लगातार तीन बार चुनाव जीतकर सरकार बनायी और चर्चा बटोरी. यह अलग बात है कि उसी के बाद दिल्ली की राजनीति से कांग्रेस के पांव उखड़े.
इस चर्चा का दूसरा और बड़ा कारण यह है कि ‘आम आदमी पार्टी’ (आप) ने दिल्ली में वैकल्पिक राजनीति का शुरुआती डंका बजाया. पहली बार अल्पमत में होने के बाद सरकार गिरी, तो दूसरे चुनाव में विशाल बहुमत मिला. सरकार बनायी और खूब विवाद खड़े किये. यह तब किया, जब देश में नरेंद्र मोदी की भाजपा को अजेय समझा जा रहा था. ‘आप’ ने ही साबित किया कि आम जनता के मुद्दों की राजनीति करके मजबूत भाजपा को पराजित किया जा सकता है.
भारी बहुमत होने के बावजूद केजरीवाल सरकार का पांच साल का कार्यकाल आसान नहीं रहा. पार्टी में बड़े तीखे वैचारिक मतभेदों के बाद विभाजन हुआ.
केजरीवाल पर पार्टी के रास्ते से भटकने के आरोप लगे. भ्रष्टाचार के आरोपों में भी पार्टी नेताओं की फजीहत हुई. केजरीवाल के तौर-तरीके विवाद का कारण बने. वास्तव में, ‘आप’ का विवादों से घनिष्ठ नाता बना रहा. उप-राज्यपाल से टकराव की आड़ में केजरीवाल सरकार केंद्र की ताकतवर मोदी सरकार से भिड़ती रही. केजरीवाल देश के अकेले मुख्यमंत्री हैं, जो समय-समय पर मोदी सरकार को निशाने में रखकर सड़क पर धरना-प्रदर्शन और अनशन करते रहे.
इसके बाद भी केजरीवाल दिल्ली ही नहीं, देश के कई हिस्सों में सराहे जाते हैं. दिल्ली के मध्य-निम्न मध्य और गरीब वर्ग में वे काफी लोकप्रिय हैं. दिल्ली के सरकारी स्कूलों के कायाकल्प की चर्चा देशभर में होती है. दिल्ली में चल रहे मुहल्ला क्लीनिक सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा की व्यापक व्याधि के बीच बड़ी राहत माने जाते हैं. दिल्ली में बिजली सबसे सस्ती है. नगर-बस और मेट्रो में महिलाएं नि:शुल्क यात्रा करती हैं. भ्रष्टाचार मिटाने और पारदर्शिता लाने का उनका वादा भले खरा न उतरा हो, लेकिन कई निर्माण कार्य तय समय और आकलन से कम मूल्य पर पूरे किये जाने की प्रशंसा उनके खाते में गयी.
दिल्ली की अवैध बस्तियों को नियमित करने के मोदी सरकार के ऐलान से स्पष्ट है कि भाजपा केजरीवाल की लोकप्रियता को उनकी राजनीतिक ताकत के रूप में स्वीकार करती है और उनसे स्थानीय मुद्दों पर मजबूती से लड़ने को तैयार है. शायद उसे लगता है कि दिल्ली सरकार के कुछ चर्चित काम भाजपा के भावनात्मक राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़ सकते हैं. इसीलिए दिल्ली का मोर्चा बहुत दिलचस्प होगा.
यह सत्य है कि वैकल्पिक राजनीति, मूलभूत बदलाव और पारदर्शिता की नयी हवा लेकर दिल्ली की राजनीति में छा जानेवाली ‘आप’ वह शुरुआती पार्टी नहीं रह गयी है, जिसने देशभर के लिए बड़ी उम्मीदें जगायी थीं.
उसके कई महत्वपूर्ण साथी आज अलग राह पर हैं. ‘आप’ का अन्य राज्यों में विस्तार विफल ही रहा. पंजाब में शुरुआती कुछ सफलाएं टिक नहीं सकीं. मगर दिल्ली में केजरीवाल सरकार अपने जमीनी कामों के बूते मैदान में डटी है.
हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी सात सीटें जीतीं, लेकिन इसे विधानसभा चुनाव में सफलता की गारंटी नहीं माना जा सकता. विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं. केजरीवाल के उल्लेखनीय काम निश्चय ही उनके पक्ष में जाते हैं. इसलिए भाजपा की कोशिश है कि राष्ट्रीय मुद्दों के अलावा उसके पास दिल्ली के स्थानीय मुद्दों पर लड़ने के प्रभावी हथियार भी रहें.
हरियाणा के परिणाम से उत्साहित कांग्रेस भी पूरी जोर आजमाइश करेगी. लोकसभा चुनाव में ‘आप’ से उसका समझौता चाहकर भी नहीं हो सका था.
अंतिम समय तक हां-ना चलती रही थी. दिल्ली में आप और कांग्रेस, भाजपा के विरुद्ध बड़ी ताकत बन सकते हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में वे शायद वे एक-दूसरे का साथ नहीं लेना चाहेंगे. ‘आप’ ने वैसे भी कांग्रेस का जनाधार ज्यादा छीना है. कांग्रेस वहां खुद की जमीन पाने के लिए हाथ-पैर मारेगी. इसलिए लड़ाई त्रिपक्षीय होगी, किंतु यह भाजपा के पक्ष में ही जायेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता.
भाजपा भावनात्मक राष्ट्रीय मुद्दे निश्चय ही उठायेगी. कश्मीर नया और बड़ा भावनात्मक मुद्दा है, जिसे मोदी सरकार अपनी शानदार कामयाबी के रूप में प्रस्तुत करके लगातार चर्चा में बनाये रखना चाहती है. स्पष्ट भी है कि कश्मीर के बाहर जनता का बड़ा वर्ग, यहां तक कि भाजपा-विरोधी भी, अनुच्छेद 370 खत्म करने के फैसले के साथ है.
कश्मीर और कश्मीरियों की चिंता किये बगैर इसे मोदी सरकार का साहसी कदम माना जा रहा है. विपक्षी नेताओं की दुविधा यह है कि वे चुनाव सभाओं में इस फैसले का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते. उनके पास आर्थिक मंदी में बंद होते कारखाने, बढ़ती बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दे हैं, जिन्हें अब तक भाजपा भावनात्मक मुद्दों से दबाये रखने में कामयाब रही है.
इसके बावजूद दिल्ली का रण अलग ही होगा और केजरीवाल की ‘आप’ उसमें महारथी की तरह उतरेगी, हालांकि अभी चुनावी मुकाबलों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहने का समय नहीं आया है.
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