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लोक आस्था का महापर्व छठ : पर्यावरण और प्रकृति के साथ सहजीवन का संदेश है छठ

डॉ अशोक कुमार घोष भारत में सालों भर अनेक पर्व-त्योहार मनाये जाते हैं. लेकिन छठ ही ऐसा पर्व है जिसमें दो बातें खास हैं. इसमें हम ऐसे भगवान की पूजा करते हैं जिन्हें हम रोज अपनी आंखों से देखते हैं. वहीं दूसरे किसी भगवान को हम साक्षात रूप में नहीं देख सकते. सूर्य को भगवान […]

डॉ अशोक कुमार घोष
भारत में सालों भर अनेक पर्व-त्योहार मनाये जाते हैं. लेकिन छठ ही ऐसा पर्व है जिसमें दो बातें खास हैं. इसमें हम ऐसे भगवान की पूजा करते हैं जिन्हें हम रोज अपनी आंखों से देखते हैं. वहीं दूसरे किसी भगवान को हम साक्षात रूप में नहीं देख सकते. सूर्य को भगवान कहना वैज्ञानिक रूप से भी सही है. अगर सूर्य से रोशनी नहीं मिले तो कोई पौधा ग्रोथ नहीं करेगा. प्रकाश न मिलने से धरती अत्यंत ठंढी हो जायेगी. इस तरह से सूर्य का हमारे जीवन में महत्व काफी ज्यादा है.
हिंदू धर्म में अनेकों मौकों पर पूजा पाठ होता है, इनमें पंडितों की जरूरत पड़ती है. लेकिन छठ पूजा ही एक ऐसी पूजा है जिसको करने के लिए किसी पंडित की जरूरत नहीं होती. छठ करने वाला कोई भी व्यक्ति खुद ही यह पूजा कर सकता है. बिना किसी कर्मकांड के इसे किया जाता है. इस तरह से भगवान और उसके भक्त के बीच कोई तीसरा व्यक्ति नहीं होता है. हम इसे करते हुए प्रकृति से सीधे जुड़ते हैं.
यह इको फ्रेंडली पर्व है, इसमें इस्तेमाल होने वाली चीजों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो अप्राकृतिक हो. हर चीज प्रकृति से सीधे ली हुई होती है और वे दुबारा आसानी से नष्ट होकर प्रकृति में मिलने वाली होती हैं. इसका चढ़ावा चाहे वह फल हो, सब्जी हो या कोई भी अन्य चीज सब प्रकृति के साथ हमारे हजारों साल के रिश्ते को बताता है. एक भी ऐसी चीज का प्रयोग छठ पूजा में नहीं किया जाता है जो प्रकृति को नुकसान पहुंचाएं. हाल के दिनों में सूर्य की मूर्ति बैठाने का प्रचलन बढ़ा है लेकिन छठ पूजा की परंपरा में इसे कहीं जरूरी नहीं माना गया है.
छठ पूजा के दौरान जब हम अर्घ देते हैं तब या तो पानी या दूध का अर्घ देते हैं. दोनों ही चीजें नदी या तालाब के पानी को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं और इको फ्रेंडली हैं. पानी में खड़े होकर अर्घ देने और इस दौरान सूर्य की किरणों का हमारे शरीर पर पड़ना हमें प्रकृति से जोड़ता है. अर्घ में इस्तेमाल होने वाले बांस के बने सूप में रखी हल्दी, अदरख, मूली, बैगन, सूथनी, नारियल, ईख आदि चीजें हमें संदेश देती हैं कि फल-सब्जियां जो हमें प्रकृति से मिलती हैं हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं.
ये सभी चीजें मौसमी हैं और आसानी से मिल जाती हैं. छठ व्रतियों के घर में खान – पान से बहुत सी चीजें बाहर हो जाती है जो हमें संयमित रहना सिखाती है. इस दौरान पूरी दिनचर्या बदल जाती है, जिसमें अनुशासन और संयम होता है. यहां तक कि साधारण नमक की जगह सेंधा नमक का प्रयोग होने लगता है. नहाय – खाय के दिन कद्दू-भात खाने का रिवाज है.
छठ पूजा के पहले खरना होता है. इसमें भी मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद बनता है जो हजारों साल के प्रकृति संग मनुष्य के सहजीवन को बताता है. शुद्ध गेहूं के आंटे की रोटी बनती है और गुड़ वाली खीर बनती है. पूजा में शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है. यह शुद्धता प्रकृति से छेड़छाड़ न करने का भी संदेश देती है कि ईश्वर की बनायी प्रकृति में हम छेड़छाड़ नहीं करें. छठ पर्व के दौरान गांव हो या शहर पूरी तरह से स्वच्छ हो जाते हैं.
चारों ओर साफ-सफाई नजर आती है. यह सफाई सिर्फ घर ही नहीं बल्कि सड़कों और घाट पर भी दिखती है. खास बात यह कि इसे समाज के लोग मिल-जुल कर करते हैं. मिलजुल कर परिवार और समाज के लोग छठ पूजा करते हैं. इससे सामूहिकता का भाव मनुष्य में आता है. आज के दौर में इस भाव की बेहद जरूरत है. इतना ही नहीं छठ पर्व के दौरान स्त्री-पुरुष का भी कोई भेदभाव नहीं होता है. हर तबके के लोग बराबरी के साथ इस पूजा को करते हैं. यही कारण है कि सभी पर्व-त्योहारों में छठ प्रकृति के ज्यादा करीब है. लोक आस्था का महापर्व छठ प्रकृति के साथ हमारे सहजीवन का संदेश देता है.
लेखक बिहार राज्य प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के चेयरमैन हैं

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