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बेअसर होते एंटीबायोटिक्स

डॉ एके अरुण स्वास्थ्य विशेषज्ञ docarun2@gmail.com एंटीबायोटिक्स दवाओं के प्रभावहीन होने के मामले दुनियाभर में तेजी से बढ़ रहे हैं. अभी ‘क्लेरिथ्रोमाइसिन’ एंटीबायोटिक की चर्चा गर्म है. डॉक्टर एवं वैज्ञानिक यह चेतावनी दे रहे हैं कि इस महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक्स के मुकाबले भी बैक्टीरिया इतना ताकतवर हो चुका है कि इसका असर अब नहीं हो पा […]

डॉ एके अरुण

स्वास्थ्य विशेषज्ञ

docarun2@gmail.com

एंटीबायोटिक्स दवाओं के प्रभावहीन होने के मामले दुनियाभर में तेजी से बढ़ रहे हैं. अभी ‘क्लेरिथ्रोमाइसिन’ एंटीबायोटिक की चर्चा गर्म है. डॉक्टर एवं वैज्ञानिक यह चेतावनी दे रहे हैं कि इस महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक्स के मुकाबले भी बैक्टीरिया इतना ताकतवर हो चुका है कि इसका असर अब नहीं हो पा रहा है.

यानी क्लेरिथ्रोमाइसिन एंटीबायोटिक्स दवा से भी बैक्टीरिया न तो नियंत्रित हो रहा है और न ही मर रहा है. यह स्थिति बेहद गंभीर है और स्वास्थ्य को लेकर यह बड़ी चिंता का विषय भी है. इस विषय पर सिर्फ चर्चा से नहीं, बल्कि एक कारगर स्वास्थ्य नीति बनाकर ही इस समस्या का निदान किया जा सकता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) तो दो दशक पहले ही एंटीबायोटिक्स दवाओं के प्रभावहीन होने तथा बैक्टीरिया के ताकतवर होते जाने पर गहरी चिंता व्यक्त कर चुका है. गौरतलब है कि डब्ल्यूएचओ ने वर्ष 2018 में 12-18 नवंबर के दौरान एंटीबायोटिक्स जागरूकता सप्ताह मनाया था और उस दौरान यह संदेश देने की कोशिश की थी कि ‘एंटीबायोटिक्स दवाओं का उपयोग करने से पहले कई बार सोचें, क्योंकि यह बेहद खतरनाक है.’

वैसे भी डब्ल्यूएचओ ने एंटीबायोटिक्स दवाओं के उपयोग को लेकर सख्त दिशा-निर्देश जारी किया हुआ है. लेकिन, समस्या यह है कि हमारे देश में ऐसे निर्देशों को मानता कौन है! भीड़ में बदलती जा रही भारतीय आबादी के लिए वाकई एंटीबायोटिक्स या एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस (एएमआर) एक विकट और जानलेवा समस्या है. लेकिन विडंबना यह है कि हम इस खतरे को लेकर लापरवाह बने हुए हैं.

‘क्लेरिथ्रोमाइसिन’ एंटीबायोटिक्स के प्रभावहीन होने को लेकर एक ताजा अध्ययन यूनाइटेड यूरोपियन गैस्ट्रोइंटेरोलॉजी (यूईजी), बर्सिलोना से आया है, जिसमें चेतावनी दी गयी है कि ‘क्लेरिथ्रोमाइसिन’ एंटीमाइक्रोबियल दवा की प्रभावहीनता एच पायलोरी बैक्टीरिया पर विगत वर्ष के मुकाबले 21.6 प्रतिशत बढ़ गयी है. यह प्रभावहीनता दूसरे एंटीमाइक्रोबियल दवा लिवोफ्लोक्सासिन एवं मोट्रोमिडाजोल में भी देखी गयी है. इस अध्ययन को 18 देशों के 1,232 मरीजों पर पायलट प्रोजेक्ट के रूप में किया गया.

उल्लेखनीय है कि उक्त एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का इस्तेमाल पेट के अल्सर, लिम्फोमा, पेट के कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों में एलोपैथिक चिकित्सकों द्वारा किया जाता है. इसे समझना बहुत महत्वपूर्ण है और जरूरी भी.

भारत में एंटीमाइक्रोबियल दवाओं के प्रभावहीन होने के कारण चिकित्सा वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों में चिंता है, क्योंकि अभी भी एंटीमाइक्रोबियल दवाओं के उपयोग को लेकर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं है और हमारे देश के गांवों-कस्बों में अकुशल चिकित्सकों द्वारा अनावश्यक रूप से एंटीबायोटिक्स या एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो कि सेहत के साथ खिलवाड़ है.

डब्ल्यूएचओ ने काफी पहले एंटीमाइक्रोबियल दवाओं के दुष्प्रभाव को रोकने के लिए छह-सूत्री नीति योजना लागू की थी. इसमें एंटीबायोटिक्स के अनावश्यक एवं अंधाधुन प्रयोग को रोकने, अस्पतालों में निगरानी व्यवस्था स्थापित करने, दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने, चिकित्सकों और मरीजों को शिक्षित करने पर ज्यादा जोर देने की बात कही थी.

डब्ल्यूएचओ ने इस संबंध में तमाम जन-संगठनों, दवा कंपनियों, चिकित्सकों, मीडिया और स्वास्थ्य के अन्य संबंधित संस्थाओं से सहयोग की अपील की थी, लेकिन तब और अब में कोई खास फर्क नहीं दिखा है.

साल 2010 में जब संभवत: सुपरबग के नाम पर ‘नयी दिल्ली मेटैलो-बीटा-लैक्टामेज-1’ (एनडीएम-1) की चर्चा थी और भारत को एंटीबायोटिक्स रेसिस्टेंस नामक चिकित्सीय अपराध करने का सबसे बड़ा अपराधी माना जा रहा था, तब भी बहस एंटीमाइक्रोबियल दवाओं के दुरुपयोग से ज्यादा देशी-विदेशी तकनीक और दवा की गुणवत्ता के ईर्द-गिर्द घूम रही थी. चिकित्सा/ उपचार के नाम पर एलोपैथिक दवाओं के वर्चस्व का नतीजा है कि जुकाम-खांसी से लेकर गैस्ट्रिक अल्सर या कैंसर तक के इलाज के लिए एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का उपयोग अंधाधुन हो रहा है.

एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस (एएमआर) एक बेहद खतरनाक चुनौती है, जो कभी भी ‘बैक्टीरिया बम’ के रूप में फट कर लाखों लोगों की मौत का कारण बन सकता है. इससे समय रहते चेतने की जरूरत है.

इसका संदेश साफ है कि चिकित्सक अनावश्यक रूप से एंटीमाइक्रोबियल दवाओं के प्रेस्क्रिप्शन लिखने से बचें और लोग भी इसका बिना सोचे-समझे इस्तेमाल न करें. बेहतर हो कि सामान्य बीमारियों में आयुर्वेद या होमियोपैथिक दवाओं का उपयोग करें. किसी भी कीमत पर अनावश्यक एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का दुरुपयोग न हो, यह सुनिश्चित किया जाना बहुत जरूरी है. आयुर्वेदिक एवं होमियोपैथिक दवाओं के प्रचलन को बढ़ाकर ऐसा करना संभव है.

इसके लिए इन सबके प्रति आम मरीजों में एक जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए. यही आज के समय की पुकार है और मानवता की जरूरत भी है, ताकि एक स्वस्थ देश का निर्माण हो सके. स्वस्थ देश का निर्माण एक सशक्त देश का निर्माण है.

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