II उर्मिला कोरी II
फ़िल्म : सांड की आंख
निर्माता : अनुराग कश्यप
निर्देशक : तुषार हीरानंदानी
कलाकार : भूमि पेंडेरेकर, तापसी पन्नू,प्रकाश झा, विनीत कुमार
प्रकाश झा और अन्य
रेटिंग : साढ़े तीन
बायोपिक फिल्मों के इस दौर में यह फ़िल्म भारत की सबसे उम्रदराज़ महिला शार्प शूटर चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर की कहानी है जो शूटर दादी के नाम से भी प्रसिद्ध हैं. यह महिला सशक्तिकरण की कहानी है. दो औरतों के संघर्ष और उनकी जीत की कहानी है जो संघर्ष करती हैं, पुरुष सत्ता के खिलाफ खड़ी होती हैं अपने लिए नहीं बल्कि अपनी बेटी और पोतियों के लिए. चंद्रो तोमर( भूमि पेंडेरेकर) और प्रकाशी तोमर( तापसी पन्नू) एक दूसरे की जेठानी और देवरानी है. वे ऐसे गाँव परिवार से आती हैं.
जहां पुरुष की मर्जी के बिना वे घर से बाहर तक नहीं जा सकती है सिर्फ यही नहीं तस्वीर खिंचवाते हुए अपना चेहरा दुप्पटे से बाहर नहीं निकाल सकती. उन्हें पता है कि घर के जानवर और उनमें कोई फर्क नहीं है.
दोनों को अपने पतियों और समाज से शिकायतें हैं लेकिन उन्होंने उसे अपनी नियति मान लिया है लेकिन वे अपनी बेटियों और पोतियों की वो ज़िन्दगी नहीं चाहती हैं. वे चाहती हैं कि उन्हें किसी भी तरह सरकारी नौकरी मिल जाए ताकि उनकी ज़िंदगी अलग हो. इसी बीच उन्हें मालूम पड़ता है कि उनके परिचित एक रिश्तेदार ने शूटिंग रेंज स्थापित किया है.
वे घर की बेटियों को शूटिंग रेंज में सीखाने के लिए घर के मर्दों से चुपचाप पहुंच जाती है लेकिन उन्हें मालूम पड़ता है कि वे दोनों खुद बहुत अच्छी शूटर हैं. वे घर के पुरुषों की बिना जानकारी के प्रतियोगिता में भाग लेती हैं और मेडल जीतती रहती हैं. घर के पुरुषों से यह सब चार सालों तक लुका छिपी चलती रही. अपनी बेटियों और पोतियों की प्रेरणा के लिए वो कुछ भी कर सकती हैं. सबकुछ ठीक चल रहा होता है लेकिन फिर कहानी में ऐसा मोड़ आ जाता है कि महिलाओं को खुद ही घर के पुरुषों के सामने ये राज जाहिर करना पड़ता है.
क्या पुरूष सत्ता महिलाओं को उनकी जिंदगी से उन्हें जीने देगा. क्या चंद्रो और प्रकाशी अपना हक ले पाएंगी. इसके लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी. निर्देशक तुषार की तारीफ करनी होगी.यह उनकी बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म है.महिला सशक्तिकरण की इस फ़िल्म का ट्रीटमेंट उन्होंने पूरी तरह से लाइट हर्टेड किया है. फ़िल्म शुरुआत से अंत तक हैवी नहीं होती है।इसके साथ ही फ़िल्म अपने विषय के साथ न्याय भी करती है.
निर्देशक ने अपनी कहानी के माध्यम से गाँव की मानसिक स्थिति को बखूबी उकेरा है. जहां औरतों को उनके नाम से नहीं बल्कि दुप्पटे के रंग से जाना जाता है. घर की हर महिला ने एक एक रंग चुन लिया है ताकि घर के मर्दों को उन्हें पहचानने में दिक्कत ना हो.
फ़िल्म के कुछ दॄश्य बहुत प्रभावी बन गए हैं फिर चाहे पंचायत वाला दृश्य हो या फिर वो दृश्य जहां तापसी अपनी बेटी को बताती है कि वे कैसी ज़िन्दगी चाहती हैं जिसे उन्होंने सुना है जिया नहीं है. फ़िल्म की खामी की बात करें तो तापसी और भूमि का प्रोस्थेटिक मेकअप बहुत अखरता है. कई दृश्यों में बाल ज़्यादा सफेद दिखते हैं कई में कम. फ़िल्म के मेकअप और लुक में कॉन्टिनुईटी एरर कई बार नज़र आया है. फ़िल्म की एडिटिंग थोड़ी और चुस्त हो सकती थी.
अभिनय की बात करें तो भूमि तापसी के मुकाबले 20 रही हैं. उन्होंने अपने किरदार को बहुत बढ़िया तरीके से आत्मसात किया है. उनके बोलने, चलने, मुस्कुराने, नाचने सभी दृश्यों मड़इन उन्होंने 60 प्लस के अपनी उम्र को दृश्य के मुताबिक जिया है. तापसी भी अच्छी रही हैं लेकिन उम्रदराज़ वाले किरदार में वे थोड़ी चूक गयी हैं. प्रकाश झा नकारात्मक किरदार में छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं. विनीत भी अपने प्रभावशाली रहे हैं. बाकी के किरदारों का काम अच्छा रहा है.
गीत संगीत की बात करें तो वुमनिया और उड़ता तीतर अच्छा बन पड़ा है. फ़िल्म के संवाद अच्छे बन पड़े हैं कुछ संवाद ताली बजाने को मजबूर करते हैं तो कुछ आंखें नम भी कर देते हैं. लेकिन एक पहलू ये भी है कि उनका हरियाणवी लहजा कुछ वर्ग के दर्शकों को अखर भी सकता है. कुलमिलाकर कुछ खामियों के बावजूद ये प्रेरणादायी एंटरटेनिंग फ़िल्म है जो सभी को देखनी चाहिए.