कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
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आजादी दरवाजे पर खड़ी थी, लेकिन दरवाजा अभी बंद था. जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल रियासतों के एकीकरण की योजना बनाने में जुटे थे. रियासतें चालों और शर्तों के साथ भारत में विलय की बातें कर रही थीं. एक चाल साम्राज्यवादी ताकतें भी चल रही थीं.
कभी इसकी बागडोर इंग्लैंड के हाथ में थी. अब वह अमेरिका की तरफ जा रही थी. दुनिया की धुरी बदल रही थी. अौपनिवेशिक साम्राज्यवादी ताकतों का सारा ध्यान इस पर था कि भले भारत को छोड़ना पड़े, लेकिन वह कौन-सा सिरा अपने हाथ में दबा लें िक जिससे एशिया की राजनीति में अपनी दखलंदाजी बनी रह सके; और मुद्दा यह भी था कि अाजाद होने जा रहे भारत पर भी जहां से नजर रखने में सहूलियत हो.
जिन्ना समझ रहे थे कि अंग्रेज उनके लिए पाकिस्तान बना रहे हैं, जबकि सच यह था कि वे ताकतें मिलकर अपने लिए पाकिस्तान बना रही थीं. साम्राज्यवादी ताकतें समझ रही थीं कि जिन्ना को पाकिस्तान मिलेगा, तभी पाकिस्तान उन्हें मिलेगा; और पाकिस्तान के भावी भूगोल में कश्मीर का रहना जरूरी था, क्योंकि वह भारत के मुकुट को अपनी मुट्ठी में रखने जैसा होगा.
भारतीय नेतृत्व समझ रहा था कि कश्मीर के पाकिस्तान में जाने का मतलब है पश्चिमी ताकतों को अपने सर पर बिठाना. अाजाद होने से पहले ही नेहरू की पहल पर एशियाई देशों का जो सम्मेलन भारत ने अायोजित किया था, जिसमें गांधी ने भी हिस्सा लिया था, उसमें ही यह तय हुआ कि स्वतंत्र भारत की विदेश-नीति का केंद्रीय मुद्दा साम्राज्यवादी ताकतों को एशियाई राजनीति में दखलंदाजी से रोकना होगा.
इसलिए कश्मीर को पाकिस्तान में जाने से रोकने की बात बनी. इसमें नेहरू और पटेल की पूर्ण सहमति थी. लेकिन जिन्ना ने अपना दांव चला और उन्होंने कश्मीर पर हमला कर दिया. इसने कश्मीर को इतनी तेजी से भारत की तरफ धकेल दिया, जिसकी संभावना नहीं थी. नेहरू-सरदार ने इसे अवसर समझा और फिर कश्मीर हमारे साथ अा जुड़ा.
वहां के नौजवान नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला राजशाही के खिलाफ लड़ रहे थे और कांग्रेस के साथ थे. स्थानीय अांदोलन की वजह से जब महाराजा हरि सिंह ने शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया था, तो नाराज नेहरू उसका प्रतिकार करने कश्मीर पहुंचे थे.
राजा ने उन्हें भी उनके ही गेस्टहाउस में नजरबंद कर दिया था. तो महाराजा के लिए नेहरू भड़काऊ लाल झंडा बन गये थे. अब, जब विभाजन भी और अाजादी भी अान पड़ी थी, तो वहां कौन जाये कि जो मरहम का भी काम करे और विवेक भी जगाये? माउंटबेटन ने प्रस्ताव रखा कि क्या हम बापूजी से वहां जाने का अनुरोध कर सकते हैं?
गांधी उसके पहले कभी कश्मीर नहीं गये थे. तब उम्र 77 साल थी. सफर मुश्किल था, लेकिन गांधी जानते थे कि अाजाद भारत का भौगोलिक नक्शा मजबूत नहीं बना, तो रियासतें नासूर बन जायेंगी. वे जाने को तैयार हो गये.
अाजादी से मात्र 14 दिन पहले एक अगस्त, 1947 को रावलपिंडी के दुर्गम रास्ते से गांधी पहली और अाखिरी बार कश्मीर पहुंचे. घाटी में लोगों का वैसा जमावड़ा कभी देखा नहीं गया था. झेलम नदी के पुल पर तिल धरने की जगह नहीं थी. कश्मीरी लोग गांधी की झलक देखकर तृप्त हो रहे थे: ‘बस, पीर के दर्शन हो गये!’
शेख अब्दुल्ला तब जेल में थे. बापू का एक स्वागत समारोह महाराजा ने अपने महल में अायोजित किया था, तो नागरिक स्वागत का दूसरा अायोजन बेगम अकबरजहां अब्दुल्ला ने किया था. महाराजा हरि सिंह, महारानी तारा देवी तथा राजकुमार कर्ण सिंह ने उनकी अगवानी की थी.
बापू ने बेगम अकबरजहां के स्वागत समारोह में कहा- ‘इस रियासत की असली राजा यहां की प्रजा है…, वह पाकिस्तान जाने का फैसला करे तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती है. लेकिन जनता की राय भी कैसे लेंगे अाप? उसकी राय लेने के लिए वातावरण तो बनाना होगा न! प्रजा अाजादी से अपनी राय दे सके, ऐसा कश्मीर बनाना होगा. प्रजा कहे कि भले वह मुसलमान है, लेकिन रहना चाहती है भारत में, तो भी कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती.
अगर पाकिस्तानी यहां घुसते हैं, तो पाक सरकार को उन्हें रोकना चाहिए. शेख अब्दुल्ला लोकशाही की बात करते हैं, हम उनके साथ हैं. उन्हें जेल से छोड़ना चाहिए और उनसे बात कर अागे का रास्ता निकालना चाहिए…. कश्मीर के बारे में फैसला तो यहां के लोग (मुसलमान, हिंदू, डोगरा, कश्मीरी पंडित, सिख) ही करेंगे.’
यह कश्मीर के बारे में भारत की पहली घोषित अाधिकारिक भूमिका थी. गांधीजी सरकार के प्रवक्ता नहीं थे, क्योंकि स्वतंत्र भारत की सरकार अभी बनी भी नहीं थी. वे स्वतंत्र भारत की भूमिका के सबसे अाधिकारिक प्रवक्ता थे.
गांधी के कश्मीर दौरे ने कश्मीर को विश्वास की ऐसी डोर से बांध दिया, जिसका नतीजा शेख अब्दुल्ला की रिहाई में, भारत के साथ रहने की उनकी घोषणा में, कश्मीरी मुसलमानों में घूम-घूम कर उन्हें पाकिस्तान से विलग करने के अभियान में दिखायी दिया. नेहरू, पटेल और शेख अब्दुल्ला की त्रिमूर्ति को गांधी का अाधार मिला और अागे वह इतिहास लिखा गया, जिसे सरकार आज मिटाने में लगी है. जिन्होंने कुछ नहीं बनाया, वे मिटाने के उत्तराधिकार बन गये हैं.
याद रहे कि जब फौजी ताकत के बल पर पाकिस्तान ने कश्मीर हड़पना चाहा था और भारत सरकार ने उसका फौजी सामना किया था, तब गांधी ने भारत के उस फौजी अभियान का समर्थन किया था.