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राष्ट्रीय एकता का कठोर मिशन

प्रभु चावला वरिष्ठ पत्रकार prabhuchawla @newindianexpress.com सत्ता की भाषा को अनुवाद की आवश्यकता नहीं होती. उसे केवल व्याख्या चाहिए. क्या राष्ट्रीय एकता सिर्फ एक धर्म अथवा भाषा पर या कि दोनों के संश्लेषण पर निर्भर है? बड़ी तादाद में देशों ने इस्लाम को अपनी शासकीय आस्था घोषित करने के द्वारा अपनी भौगोलिक पहचान कायम रखी […]

प्रभु चावला
वरिष्ठ पत्रकार
prabhuchawla
@newindianexpress.com
सत्ता की भाषा को अनुवाद की आवश्यकता नहीं होती. उसे केवल व्याख्या चाहिए. क्या राष्ट्रीय एकता सिर्फ एक धर्म अथवा भाषा पर या कि दोनों के संश्लेषण पर निर्भर है? बड़ी तादाद में देशों ने इस्लाम को अपनी शासकीय आस्था घोषित करने के द्वारा अपनी भौगोलिक पहचान कायम रखी है, हालांकि उसकी व्याख्या के आधार पर उनमें से कुछ आपस में खूंखार संघर्षों के शिकार भी हैं. विश्व के दूसरे भागों में स्थित राष्ट्रों में लगभग दो तिहाई एक ही भाषा से बंधे हैं.
भारत में हालांकि 70 प्रतिशत नागरिक किसी न किसी रूप में हिंदू मतावलंबी हैं, पर हमारे संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की संज्ञा दी. भारत में 60 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिंदी बोल या पढ़ सकती है, फिर भी, विविधता में एकता की पहचान के लिए भारत किसी समान आधिकारिक भाषा का प्रयोग नहीं करता है. इन सबके बावजूद, यहां विभिन्न सांस्कृतिक तथा पंथिक पहचानों के बीच आंतरिक विरोध का सतत दबाव बना ही रहता है.
संभवतः संघर्ष समाधान के ख्याल से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा उनके विश्वासपात्र गृह मंत्री ने देशी भाषा की समस्या से सीधी तौर पर निबटने का मन बनाया है. वे ऐसी किसी भी चीज से पीछा छुडाने पर आमादा हैं, जो गैर भारतीय लगती है. उन्हें यकीन है कि अल्पसंख्यकों का अत्यधिक तुष्टीकरण भारत को कमजोर कर रहा है. अपने प्रथम कार्यकाल में मोदी अर्थव्यवस्था एवं राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित रहे.
पर इस दूसरे कार्यकाल में वे चाहते हैं कि ‘एक राष्ट्र-एक कानून’ से एकताबद्ध भारत के उनके विचार की विजय सुनिश्चित हो. उनके मस्तिष्क में समान नागरिक संहिता एवं समान रूप से स्वीकार्य भाषा की प्राथमिकता है. इस विविधताभरे राष्ट्र के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक एकीकरण हेतु मोदी को एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी, जिसमें उनके विचारों को निर्भीकता से लागू करने की इच्छाशक्ति हो, जिसे उन्होंने शाह में पाया.
भाजपा अध्यक्ष ने अपनी पार्टी को विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन बना डाला है. इसमें उनकी रणनीति गैर समझौतावादी रही. छोटी-बड़ी पार्टियों को विभाजित किया गया. बड़े पैमाने के दल-बदल आयोजित किये गये. इस रणनीति ने राज्यसभा में भाजपा को बहुमत के दायरे में लाकर संसद के दोनों सदनों में उसे अपने इच्छित विधायी कदम उठाने की शक्ति प्रदान कर दी. जहां अन्य प्रधानमंत्रियों ने सहयोगियों को अपने पद अथवा वंशावली की रक्षा के लिए बौना बनाये रखा, मोदी अमित शाह के बहुमत के बल पर सर्वथा सुरक्षित हैं.
ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी प्रधानमंत्री ने अपने शक्तिशाली नंबर दो को लोकप्रिय जनादेश लागू करने की आजादी दे रखी है. इसके बदले में, शाह अपने गुरु मोदी के सबसे मजबूत सिपहसालार हैं.
पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों से कहा कि वे प्रत्येक जिले और प्रमुख शहरों का दौरा कर सरकार में अपने प्रथम सौ दिनों की उपलब्धियां बताएं. मंत्रियों ने घूम-घूम कर इसकी व्याख्या की कि किस तरह अनुच्छेद 370 तथा 35ए के उन्मूलन ने भारत को एक कर दिया है.
अभी तक उदारवादी तथा धर्मनिरपेक्षतावादी विभिन्न संगोष्ठियों तथा परिसंवादों में यह बता कर फल-फूल रहे थे कि इन धाराओं ने भारत पर धर्मनिरपेक्षता का प्रतिष्ठित ठप्पा लगा रखा है. मगर देश के 31वें गृहमंत्री ने उस दूरी तक प्रयाण किया, जिसे नापने का साहस किसी भी पूर्ववर्ती गृह मंत्री ने नहीं किया था.
शाह गुजरात से इस पद पर पहुंचनेवाले चौथे नेता हैं. सरदार पटेल के अलावा, बाकी दो और मोरारजी देसाई एवं एचएम पटेल थे, पर वे दोनों छह महीने से भी कम वक्त के लिए इस पद पर रह सके.
सरदार ने देश के रजवाड़ों को भारतीय संघ में शामिल होने को बाध्य कर इतिहास रचा. बहत्तर वर्षों बाद शाह ने सियासी रूप से पेचीदा तथा राष्ट्रीय तौर पर संवेदनशील इस मंत्रालय का कार्यभार संभाला और 70 दिनों में ही वह कर दिया, जिसे कोई अन्य गृहमंत्री 70 वर्षों में नहीं कर सका. प्रधानमंत्री के पूरे समर्थन के बल पर उन्होंने अपने मंत्रालय तथा कानूनी बिरादरी के संशयवादियों को धता बताते हुए संवैधानिक रूप से एक ऐसा ढांचा विकसित किया, ताकि जम्मू और कश्मीर को सच्चे अर्थों में भारत का एक अविभाज्य अंग बना दिया जाये.
पिछले दो महीनों में यह कदम राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन चुका है. ऐसा पहली बार हुआ कि जो सियासी पार्टियां इस धारा को हटाने पर व्यापक खून-खराबे की भविष्यवाणी किया करती थीं, वे अब इस कदम का नहीं, बल्कि सिर्फ इसके तरीके का विरोध करने पर उतर आयीं.
इस मुद्दे पर मोदी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी चुप करा पाकिस्तान को बिल्कुल अलग-थलग कर दिया. शाह ने स्थानीय लोगों को भी यह यकीन दिला दिया कि राज्य का विशिष्ट दर्जा भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी और विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचे के अभाव का स्रोत था.
मगर यह तो भारत की दुखती रगों के उपचार के शाह के एक बड़े सपने का केवल एक हिस्सा था. उनकी बार-बार दुहरायी गयी चेतावनी कि एक भी घुसपैठिये को भारत में बने रहने की इजाजत नहीं दी जायेगी, पूरे देश को उनके इस निश्चय पर एकजुट करने की घोषणा है कि बांग्लादेश तथा म्यांमार से आये 350 लाख घुसपैठियों को देशनिकाला दिया जायेगा.
किसी भी अन्य सरकार ने एनडीए की तरह राष्ट्रीय नागरिक पंजी को पूरा करने का निश्चय नहीं व्यक्त किया. अवैध आप्रवासी पंजाब से केरल तक हर राज्य में घुसपैठ कर राष्ट्रविरोधी षड्यंत्रों तथा जबरदस्ती धर्मांतरण के केंद्र बने बैठे हैं.
स्वयं को मुस्लिम-विरोधी करार दिये जाने की चिंता किये बगैर शाह ने अपने मंत्रालय को यह निर्देश दिया है कि सीमा पार से आये प्रत्येक व्यक्ति की पहचान कर उसे हिरासत में लिया जाये. मंत्रालय ने उनके लिए हिरासत शिविरों के निर्माण हेतु बहुत बड़ी राशि पहले ही स्वीकृत कर रखी है. शाह की योजना उस अल्पसंख्यक वोट बैंक को समाप्त करने की है, जो विरोधी पार्टियों का आधार और देश की सुरक्षा तथा सांप्रदायिक सद्भावना पर जोखिम है.
अब उन्होंने यह कह कर कि केवल हिंदी ही पूरे भारत को भाषाई रूप से एक सूत्र में बांध सकती है, एक राष्ट्रीय बहस का आगाज कर डाला है. उनके कदम, गतिविधियां, साधन तथा कार्यप्रणाली सब का उद्देश्य भारतीयों को समवेत स्वर में इस घोषणा के लिए बाध्य कर देना है कि ‘हमें राष्ट्रीयतावादी होकर गर्व है.’

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