13.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

151 वर्ष पहले जब रामकृष्ण परमहंस को रोहिणी में ‘दरिद्र नारायण’ के दर्शन हुए

उमेश कुमार umeshjharkhand@gmail.com 27 जनवरी,1868. मकर संक्रांति के बाद दक्षिणायन हुआ सूरज भी शीत के आगे सहमा-सा है. ओस से गदराई हवा धुंध की तरह आसमान में तिर रही है. इधर रोहिणी (देवघर, झारखंड) की ‘वंचित बस्तियों’ के छप्पर हिल रहे हैं. वहीं, उस तांबई मूरत के हाथों में एक टूटा कटोरा है, जिससे अधपके […]

उमेश कुमार
umeshjharkhand@gmail.com
27 जनवरी,1868. मकर संक्रांति के बाद दक्षिणायन हुआ सूरज भी शीत के आगे सहमा-सा है. ओस से गदराई हवा धुंध की तरह आसमान में तिर रही है. इधर रोहिणी (देवघर, झारखंड) की ‘वंचित बस्तियों’ के छप्पर हिल रहे हैं. वहीं, उस तांबई मूरत के हाथों में एक टूटा कटोरा है, जिससे अधपके चावल की सफेदी झांक रही है. मूरत की बुझी-बुझी आंखों में एक सवाल तैर रहा है. यह मुट्ठी भर चावल वह किस तड़पती भूख के हिस्से करे? उस मां के, जिसकी जिंदगी मजूरी में गुजर गयी और अब पनीली धरती पर हड्डियों की शक्ल में सांस भर ले रही है?
उस स्त्री के नाम, जिसके अधरों का वसंत अब दर्द की जुंबिश भर है या फिर उन तीन नौनिहालों के नाम, जिनके हिस्से में मां का स्तन निचोड़ने के बाद भी दूध कभी आया ही नहीं! रोहिणी गांव के रास्ते पर दर्द की कुछ और लकीरें भी तो हैं. वे सयानी लड़कियां, जिनके चीथड़े उड़ा-उड़ा कर बैरी हवा मांसलता को बेपर्दा कर रही है. उनके उलझे-बिखरे बालों की तहें तेल से अपने रिश्ते की अकाल-मृत्यु की जगहंसाई करा रही हैं.
यह मंजर देख उस संत का कारवां थाम जाता है, जो बंगाल से तीर्थ दर्शन के निमित्त चला है. फिलवक्त उन्हें बाबा बैद्यनाथ के दरबार में प्रस्तुत होना है.
वह संत हैं ‘दक्षिणेश्वर मंदिर¹’(कोलकाता) के प्रधान पुजारी गदाधर चटर्जी, जिन्हें कोई ‘ठाकुर’, तो कोई ‘रामकृष्ण परमहंस’ की उपमा देता है. दक्षिणेश्वर काली के साथ उनके सख्य-भाव के कई किस्से बंगाल से लेकर बिहार के इस निविड़ गांव तक कौतुकेय बने हैं, पर ठाकुर हैं कितने भोले और कोमल हृदय! रोहिणी की यह व्यथा उन्हें अंदर तक बेध रही है. वह पालकी से उतर रहे हैं. कारवां में खलबली मच रही है. ठाकुर भाव-विभोर हैं. मां काली से बतिया रहे हैं- ‘यह कैसी लीला है मां! किसी को दूध-भात की कमी नहीं और कोई एक मुट्ठी अन्न को इस कदर तरसता है? यह कैसा संसार है मां?
इतना भेद!’ अब तक समाधि की एकांतिक दुनिया में व्यापने वाले, माता श्यामा की काली लटों से आंखों को ढकने वाले भावुक संत का सम्मोहन यहां दरक रहा है. अपने धनी शिष्य एवं कारवां के व्यवस्थापक मथुर मोहन विश्वास को कह रहे हैं कि इन ‘दरिद्र नारायणों’ को पहले भरपेट भोजन, भरकाया कपड़े और भर माथा तेल दो, तभी आगे की यात्रा होगी. व्यवस्था और गणित का कैसा साझापन होता है! कोई मथुर बाबू की ललाट की सिलवटें पढ़े, तो जाने. जबान इन्हीं सिलवटों को शह देती है, पर ठाकुर ऐसी जबानी दलीलें नहीं बूझते.
वह तो बच्चे सरीखे हैं और राजा सदृश भी. क्षणे तुष्टा, क्षणे रुष्टा! जब समझाने का मथुर बाबू पर उन्होंने कोई असर नहीं देखा, तो तमक कर तांबई रंगतों के बीच जा बैठे. उद्विग्न चेहरा और नि:शब्द अधर. बस, झर-झर आंसू! मानो हुगली का सारा पानी उन मोती-नयनों से छलकने लगा हो! ठाकुर रानी रासमणि के अधीश्वर हैं और इस तीर्थ यात्रा के पुरोहित. उनकी ऐसी भाव-भंगिमा! ऐसा मूक आर्तनाद!
सर्द हवा में ठिठुरा सूरज कुछ ऊपर उठा है और मथुर बाबू ठाकुर के चरणों में लिपटे दिख रहे हैं. बारंबार क्षमा-याचना करते. तुरंत कोलकाता की राह पकड़ते. ठाकुर के कहे अनुसार भोजन, कपड़े और तेल लाने.
रोहिणी की रैयत और पीड़ित जनता आश्चर्य से ठाकुर को निहार रही है. उनकी बेहतरी के लिए ऐसा भावयज्ञ! ऐसा सत्याग्रह! यह तो कोई पुरोधा हैं.अब मथुर बाबू चाहें जब आएं. अभी तो यह हमारे अतिथि हैं. हमारे ठाकुर हैं.
समय ने एक दस्तक दी है. करुणा तथा विश्वास के साझे क्षण और घने हो गये हैं. कोई सप्ताहभर बाद सभी जरूरी चीजों के साथ मथुर बाबू कोलकाता से रोहिणी लौट रहे हैं. रोहिणी की मलिन बस्तियां खिलखिलाने लगी हैं.
एक ‘ठाकुर’ का ठौर उन्हें पुलकित जो कर रहा है. बड़े से कड़ाह में सबकी भूख का इंतजाम हो रहा है. ठंड के वजूद पर ‘महाप्रसाद’ की खुशबू फैल रही है. ठाकुर खुद परोस रहे हैं. अतृप्त अधरों पर तृप्ति की मुस्कान सजने लगी है. ठाकुर मथुर बाबू से कह रहे हैं- ‘शिवसेवा के पहले जीवसेवा!’ इतिहासकार की कलम मचल उठी है. शब्द उकेरे जा रहे हैं.
कुछ स्तुति के, कुछ आलोचना के. जिस रोहिणी में कोई दस बरस पहले (1857 में) गदर की धूम मची, उसके पीछे के आर्थिक सवालों और संदेशों को कहां दफन कर दिया गया? ब्रिटिश हुक्काम के साथ स्थानीय रजवाड़ों ने भी गरीबी, भुखमरी, बेकारी, लैंगिक असमानता और विस्थापन जैसे मुद्दों से क्यों आंखें चुरा लीं? क्यों छोड़ दिये कुछ अनुत्तरित आर्थिक प्रश्न, जिनसे ठाकुर अंदर तक आहत हुए? उधर ठाकुर के नाम पर मठ बनाने वालोें ने इस घटना से क्या सीखा और गुना? कह सकते हैं कि शिक्षा को गरीबी और बेकारी का हल माना.
1922 के दरम्यान एक बड़ा शैक्षिक केंद्र देवघर में खोला गया, पर इस केंद्र में अमूमन खाये-अघाये घरानों के बच्चे आते हैं. क्या यहां वैसी मलिन, बजबजाती बस्तियों के बच्चों को लिया जाता है, जिनकी तृप्ति को कभी ठाकुर ने मजहब से भी ऊंचा माना था? शिक्षा अगर व्यापार नहीं है, तो मठों-प्रतिष्ठानों के द्वार वंचितों और कमजोरों के लिए भी खुलने चाहिए.
– लेखक झारखंड शोध संस्थान, देवघर के सचिव हैं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें