-डॉ आनंद श्रीवास्तव-
आज ‘हिंदी दिवस’ है. ‘स्वतंत्रता दिवस’ अभी महीने भर पहले ही बीता है और ‘गणतंत्र दिवस’ आने में करीब चार महीने की देरी है. सवाल उठना लाजिमी है कि हिंदी दिवस से बात शुरू हुई थी, ये स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस बीच में कहां से आ गये? दरअसल, अपने देश में जिसको विशिष्ट सम्मान देना हो, श्रद्धासुमन अर्पित करना हो, श्रद्धांजलि देनी हो, उसका ‘दिवस’ मनाने की परंपरा रही है. आज स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र/लोकतंत्र दिवस, आम भारतवासियों के लिए महज रस्म अदायगी या छुट्टी का दिन बन कर रह गये हैं. अपनी मातृभाषा हिंदी का भी कुछ ऐसा ही हाल है. जिस देश में ‘आजादी’ से लोगों का दम घुटता हो, लोकतंत्र के मंदिरों की कार्यवाही शर्मसार करती हो, वहां हिंदी भला कैसे हिंदुस्तान के माथे की बिंदी हो सकती है? फिलहाल हिंदी तो हमें शर्मसार करती है और तो और लोगों को हम पर हंसने का अवसर भी मुहैया कराती है. और लोग हंसे भी क्यों न?, हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे.
हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर हम ऐसी ही एक घटना के साक्षी बने. शाम के करीब साढ़े छह बज रहे थे. करीब 10-12 हिंदी भाषी मित्रों की उपस्थिति में एक देवी का प्रवेश हुआ. परिचय देने के क्रम में उन्होंने जो पहला वाक्य बोला, उससे लगा कि वह देशज हैं, देसवाली हैं, घर की हैं. अपनी माटी की खुशबू भी महसूस हुई. किसी महानगर में कोई अपने जैसा दिख जाये, तो बड़ी खुशी होती है. लगता है कोई अपना मिल गया. दूसरे वाक्य में तो उन्होंने खुद को हम सबका पड़ोसी साबित कर दिया. हममें से ज्यादातर लोगों की मूल रिहाइश यूपी-बिहार की है. देवी भी शायद वहीं से ताल्लुक रखती थीं. अब यह सवाल मत उठाइएगा कि देवी के आगे “जी” क्यों नहीं लगाया, यहां तो आम आदमी को भी सम्मान देने के लिए उसके नाम, पद या रिश्ते के आगे “जी” लगाते हैं. फिर वह तो देवी ठहरीं. असल में, उन्हें “…जी”, “…जी”, “…जी”, प्रत्यय वाले संबोधन “डाउन मार्केट” यानी देसी लगते दिखे. उन्होंने कहा भी, मुझे किसी के नाम के आगे “जी” लगाना बहुत खराब लगता है, इसका क्या मतलब है? तभी लग गया कि देसी माटी वाली खुशबू “फ्लेवर्ड” है. तब तक यह भी समझ चुका था कि उन्हें देवी समझ कर गलती कर रहा था, वो तो “डिवा” हैं. क्या करूं, ऐसी गलती हो ही जाती है. हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे.
अंग्रेज चले गये, औलाद छोड़ गये. बचपन में इस जुमले का मतलब समझ में नहीं आता था. धीरे-धीरे भान हो गया कि इसका आशय अंग्रेजों के मानस पुत्र -पुत्रियों से है. इस देश में तमाम ऐसे लोग हैं, जिन्हें लगता है कि दुर्भाग्य से भारत में पैदा हो गये. बेचारे. अनफार्चुनेटली बार्न इन इंडिया. मैं इन जैसों को यूबीआइज कहता हूं. जो रहते हिंदुस्तान में हैं, खाते हिंदी की हैं और गुणगान मैभा महतारी (सौतेली मां) यानी अंग्रेजी का करते हैं. जबकि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बोली, समझी जाती है हिंदी. मैं तो अपने पाकिस्तानी/बांग्लादेशी/नेपाली साथियों से हिंदी में ही बात करता हूं. देसी डिवा ने बहुत गर्व से बताया, मैं तो अंग्रेजी में लिखती हूं. उसका हिंदी में अनुवाद होता है, जिसे देखकर मुझे बड़ी हंसी आती है. लगता ही नहीं कि जो लिखा था, वह यही है. हंसी आनी भी चाहिए. हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे.
कोई हिंदी की रोटी खाता है, हिंदी को खरी खोटी सुनाता है, यह कहने में गर्व अनुभव करता है कि मेरे दिमाग में विचार भी अंग्रेजी में ही आते हैं. और हम चुपचाप सुनते रहते हैं. उनके लिखे का अनुवाद करते रहते हैं. वो तो अच्छा है कि कुछ अंग्रेजीदां मौके की नजाकत को भांपकर, न केवल हिंदी बोलने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि समझने और लिखने की भी. उन जैसों से हिंदी को बहुत उम्मीद है.
आजादी मिले सात दशक से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन ज्यादातर हिंदुस्तानियों की मातृभाषा, फिलहाल राजभाषा का ही दर्जा हासिल कर पायी है. हिंदी दिवस पर आज से लेकर पखवाड़े भर तक, एक बार फिर देशभर में जलसों/आयोजनों की रस्म अदायगी होगी. संकल्प लिए जायेंगे. लेकिन हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान तभी मिल सकता है, जब हमपर हंसने वालों को करारा जवाब मिलेगा. जब हिंदी कुलीनों और संभ्रांतों की भाषा बन जाएगी. जब हिंदी बोलने में लोग शर्म नहीं, गर्व का अनुभव करेंगे. जब यूबीआइज को खुद को एफबीआइज (फार्चुनेटली बार्न इन इंडिया) बताने में फख्र महसूस करेंगे. हिंदुस्तान में हिंदी को नीचा समझने वाले, नीचा दिखाने वाले, जब तक अपनी गलती का अहसास नहीं करेंगे, हिंदी की दुर्दशा होती रहेगी. हम देखते रहेंगे. हम हिंदी वाले हैं ही ऐसे.
अगर यही हाल रहा, हम मौन धारण किये रहे, चुपचाप अपनी हंसी उड़वाते रहे, तो बाल दिवस पर नेहरू जी और गांधी जयंती पर गांधी जी (हम तो जी लगाएंगे ही) की तस्वीर पर माला पहनाने जैसा ही रिचुअल, हमें हिंदी दिवस पर हिंदी की तस्वीर के साथ करना पड़ेगा. संभव है, हिंदी की तस्वीर को माला पहनाने का अवसर मेरे या आपके जीवनकाल में न आये, लेकिन अगर यही स्थिति रही, तो मेरा यह सोचना सही साबित होगा कि आने वाली पीढ़ियां जरूर उस ऐतिहासिक क्षण की साक्षी बनेंगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)