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विकास और शून्य-मुद्रास्फीति

डॉ निशिकांत दुबे सांसद, लोकसभा nishikant.dubey.mp@gmail.com पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के ‘किसी भी कीमत पर मुद्रास्फीति नियंत्रण’ के सिद्धांतों का अनुसरण करनेवालों द्वारा भारत विकास बनाम मुद्रास्फीति के फंदे में पड़ता तथा धकेला जा रहा है. हमें अपने एक पड़ोसी देश की स्वतंत्र मौद्रिक नीति पर गौर करना चाहिए, जो एक धाकदार वैश्विक विनिर्माण एवं औद्योगिक शक्ति […]

डॉ निशिकांत दुबे
सांसद, लोकसभा
nishikant.dubey.mp@gmail.com
पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के ‘किसी भी कीमत पर मुद्रास्फीति नियंत्रण’ के सिद्धांतों का अनुसरण करनेवालों द्वारा भारत विकास बनाम मुद्रास्फीति के फंदे में पड़ता तथा धकेला जा रहा है. हमें अपने एक पड़ोसी देश की स्वतंत्र मौद्रिक नीति पर गौर करना चाहिए, जो एक धाकदार वैश्विक विनिर्माण एवं औद्योगिक शक्ति के रूप में उभरा है. यह विकास अभिमुखी तरलता से संभव हो सका है, न कि पाश्चात्य आर्थिक संस्थानों को खुश रखने से.
पूर्ववर्ती एनडीए सरकार की नीतियों की वजह से यूपीए के पहले कार्यकाल के वक्त ब्याज दरें निम्न थीं और विकास नौ प्रतिशत की ऊंचाई का छू रहा था. मुंबई आतंकी हमले के बावजूद जिसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस ने अगले आम चुनाव में उठाया, मगर यूपीए के दूसरे कार्यकाल ने ऊंची ब्याज दरों की वजह से विकास में गिरावट का रुख रहा, जिस वक्त न तो मुद्रास्फीति में कमी आयी और न ही विकास में तेजी. हमारी एनडीए सरकार फिर उसी दुर्भाग्य का शिकार क्यों बने?
इस लेख में मेरे विचार कर दरों एवं भारतीय बचत की प्रकृति पर केंद्रित हैं. प्रत्यक्ष करों की 25 प्रतिशत की शीर्ष दरों में चरणबद्ध कमी होनी चाहिए. वैश्विक स्तर पर वे देश अधिक तेजी से बढ़त करते हैं, जहां करों की दरें कम हैं. युवा भारत ईमानदारी से जीना चाहता है और कर का अनुपालन करना चाहता है.
मध्यवर्ग के लिए लाभदायक नयी सरल बचत योजना बने. भारतीय मानसिकता बचत की है और अमेरिका के उलट हमारे लोग उपभोग को लेकर अभी भी रूढ़िवादी हैं, लेकिन बचत के सही विकल्पों के अभाव में भारत में कई लोग नकदी और कालाधन पैदा करते हैं. इसका समाधान वैसे सही कराधान के देश के द्वारा किया जा सकता है, जो दीर्घावधि की बचत पर अधिक लाभ देता हो.
मध्यवर्ग की कमी के कारण सरकारी नीतियों से जुड़े हैं, जैसे- वृद्धि को बाधित करनेवाले नियमन, बड़ी गरीब आबादी तथा सर्वाधिक चिंताजनक बात- मानव विकास मानकों पर खराब प्रदर्शन. समुचित संख्या में विद्यालयों के बावजूद शिक्षा में कमी और कार्यबल में महिलाओं की कम भागीदारी दो ऐसे कारक हैं, जिनके कारण कुशल कामगारों की कमी और कम उत्पादन की स्थिति है. उत्पादकों (आय अर्जित करनेवाले) के मध्यवर्ग के बिना उपभोक्ताओं का मध्यवर्ग नहीं हो सकता है.
देश की जनसंख्या का तीन प्रतिशत से भी कम हिस्सा इतना कमाता है कि उसे मध्यवर्ग कहा जा सके. श्रम बाजार के मानकों पर भारत के खराब प्रदर्शन से इंगित होता है कि अर्थव्यवस्था पर लंबे समय तक बोझ बना रहेगा. भारत जिस तरह से मध्यवर्ग बनाने की दिशा में लड़खड़ाता हुआ बढ़ रहा है, उससे लगता है कि सकारात्मक प्रभावों के अनुभव से पहले एक या अधिक पीढ़ियां गुजर जायेंगी.
वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के तीन से अधिक दशकों तक भारत की विकास गाथा और विकास संभावना आत्म-निर्भरता, आयात विस्थापन और संरक्षण के तर्कों से अवरुद्ध थीं. अस्सी से प्रारंभ होकर अगले दो दशकों ने हिचकिचाहट के साथ उदारीकरण का दौर देखा. इन दो दशकों में बहुत अधिक उधार लिया गया, भुगतान के संतुलन का संकट पैदा हुआ, जिसने देश को दिवालियेपन के कगार पर पहुंचा दिया तथा बैंकिंग संकट हुआ- यह सब अस्सी के दशक के अंतिम और नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में हुआ. अब 2014 के बाद स्थिति बदल गयी है.
स्वतंत्रता के बाद से भारत के सामने आम तौर पर व्यापार संतुलन घाटे का संकट रहा है. बैंकिंग तंत्र की दबावग्रस्त परिसंपत्तियों की समस्या बरकरार है, खराब वैश्विक वृद्धि से आर्थिक बढ़त अवरुद्ध है और वैश्विक व्यापार के विस्तार में संकुचन है.
कॉरपोरेशन लाभ नहीं कमा पा रहे हैं और कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं. बेईमान मालिकों द्वारा धन को निजी उपयोग में लगा कर धोखधड़ी की जा रही है. यह भारत के बैंक-संकट के कारणों में एक है. ऐसे में सरकार को कम वृद्धि के वातावरण में वित्तीय घाटे के अनुपात पर नजर रखने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि जब कर्ज बड़ी मात्रा में उपलब्ध होता है और आर्थिक माहौल अतार्किक रूप से समृद्ध होता है, तब वित्त अपनी अनुशासनिक शक्ति खो देता है.
वित्तीय बाजार शायद ही कभी खराब आर्थिक नीतियों पर रोक लगा पाता है. निवेशक बिना समुचित आकलन के कर्ज दे देते हैं और निवेश वस्तुनिष्ठ व्यावसायिक सोच-विचार की बजाय उम्मीदों पर अधिक आधारित होता है. ऐसे बुलबुलों से वृद्धि का लंबा दौर हासिल नहीं किया जा सकता है.
इस संबंध में चीन से तुलना की जा सकती है, जो विवेक और धैर्य के कन्फ्यूसियस के मूल्यों का अनुगामी होने के बावजूद उधार से संचालित अस्थायी वृद्धि के दोष से मुक्त नहीं है.
इसका भविष्य अधिक अनिश्चित लगता है, क्योंकि चीन में कर्ज की बड़ी उपलब्धता पूरी तरह से राज्य द्वारा निर्देशित रही है. इस वजह से कर्ज के भारी बोझ और बैंकिंग तंत्र में फंसे हुए कर्जों की समस्या के समाधान के लिए बाजार के तौर-तरीकों पर निर्भर करना बेहद मुश्किल है. वास्तव में, 2009 के बाद बहुत कम अवधि में भारी मात्रा में कर्ज जमा होने तथा सरकार की इसमें भूमिका होने के कारण भारत की तुलना में चीन की बढ़त की संभावनाएं बहुत मंद हैं.
माइकल शूमैन ने 2008 के वित्तीय संकट के प्रति चीन की बहुप्रशंसित प्रतिक्रिया पर लिखा है कि देश में कर्ज और नकदी की भरमार कर चीन ने एक ऐतिहासिक मंदी के दौर में नौ प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर हासिल की. आइएचएस ग्लोबल के अनुसार, 2014 में कर्ज की मात्रा सकल घरेलू उत्पादन का 248 प्रतिशत हो गयी, जो कि 2008 के स्तर से लगभग दुगुनी थी. पूरे देश में खाली पड़े अपार्टमेंट और बेकार फैक्ट्रियों की भरमार हो गयी.
किसी भी अर्थव्यवस्था, न सिर्फ भारत के आकार की आर्थिकी, के लिए उच्च वृद्धि के लंबे दौर के लिए बड़ी संख्या में कुशल कामगारों की लगातार अथक आपूर्ति, मजबूत और बड़े पूंजी बाजार, विस्तृत आर्थिक आधार, निरंतर बढ़ती इंफ्रास्ट्रक्चर क्षमता तथा एक स्थायी व्यापक आर्थिक वातावरण की आवश्यकता होती है. इन सभी तत्वों के साथ विस्तारित आय वृद्धि, अनुकूल निर्यात माहौल और राजनीतिक व सामाजिक स्थिरता होना भी आवश्यक है. यदि हम ध्यान से देखें, तो भारत में इनमें से कई कारकों की मजबूती पर सवालिया निशान हैं.

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