आज फादर कामिल बुल्के की 111वीं जन्मतिथि है. वह बेल्जियम से भारत आये एक मिशनरी थे. भारत आकर मृत्युपर्यंत संस्कृत, हिंदी और तुलसी के भक्त रहे. इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.
फादर बुल्के हिंदी के अनन्य साधक, कर्मयोगी और अप्रतिम शब्द शिल्पी थे. अपनी लंबी साधना के द्वारा फादर कामिल बुल्के ने जीवन की अधेड़ उम्र में हिंदी की टिप्पणी शुरू की और हिंदी की लंबी यात्रा की. उन्होंने न केवल हिंदी को अपनाया, बल्कि भारत और भारतीयता को भी स्वीकार किया. भारतीय होने का उन्हें बड़ा गर्व था और भारत की हिंदी पर नाज था.
हिंदी की गहराई को दी बेहतर अभिव्यक्ति
फादर बुल्के ने महसूस किया था कि हिंदी में वे सभी क्षमताएं मौजूद हैं, जो किसी भी विदेशी भाषा में होती हैं. अनुवाद के माध्यम से, रचनात्मक साहित्य के माध्यम से, हिंदी की गहराई को बेहतर अभिव्यक्ति दी. उनका शब्दकोश मील का पत्थर है. चौदह भाषाओं के विद्वान फादर कामिल बुल्के जब हिंदी बोलते थे, तो शुद्ध हिंदी बोलते थे. उन्हें कतई स्वीकार नहीं था कि हिंदी की अभिव्यक्ति में किन्हीं दूसरी भाषाओं के शब्द इस्तेमाल किये जायें.
राम और तुलसी में इन्हें चुनेंगे
फादरको तुलसी प्रिय थे और तुलसी के राम भी उनके आदर्श चरित्र थे. तुलसी की पंक्तियों ने उन्हें काफी प्रभावित किया था. वे कहते थे कि स्वर्ग मेंयदि तुलसी या राम से मिलना हो, तो पहले तुलसी से ही मिलेंगे. कर्मयोगी की भांति उन्होंने हिंदी की सच्ची साधना की. हिंदी की उपेक्षा उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं थी.
हिंदी के उच्चारण को लेकर सतर्क
आज जो भारतीय हिंदी की ताकत पर संदेह व्यक्त करते हैं, उनके लिए फादर बुल्के का हिंदी चिंतन और हिंदी व्यवहार आंखें खोलने वाला है. हां, उन्हें हिंदी के उच्चारण में तकलीफ होती थी, पर सही ध्वनि का उच्चारण कर सकें, इसके लिए हमेशा सतर्क रहते थे. उनमें सीखने की अदभुत ललक थी और जीवन के अंतिम क्षण तक हिंदी के लिए कार्य करते रहे. सभी हिंदी भाषियों के लिए, जो हिंदी से सरोकार रखते हैं, फादर बुल्के एक आदर्श व्यक्ति हैं.