रांची : डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान व साहित्य अकादमी के तत्वावधान में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय जनजातीय अखड़ा- 2019 का समापन रविवार को हुआ. इसमें देश के 12-14 राज्यों से आये आदिवासी लेखकों और रचनाकारों ने अपनी कल्पना, शिल्प,आदिवासियों की उपलब्धियां और उनकी समस्याओं को साझा किया. एक-दूसरे के साथ संवाद किया और नये उत्साह से अपने-अपने क्षेत्र में और बेहतर करने का संकल्प दोहराया.
समापन दिवस पर ‘आदिवासी साहित्य और स्त्री जीवन के संघर्ष’, ‘आदिवासी साहित्य लेखन दशा, दिशा, वैविध्य और चुनौतियां’, लघु कथा वाचन और काव्य पाठ के सत्र हुए़ इस दौरान 30 शोध पत्र भी प्रस्तुत किये गये
‘आदिवासी साहित्य और स्त्री जीवन के संघर्ष’ सत्र में डॉ चैतन सोरेन ने कहा कि आदिवासी लगातार भूमिहीन, बेरोजगार और विस्थापित हो रहे हैं. इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव स्त्रियों पर होता है. सावित्री बड़ाइक ने कहा कि आदिवासी क्षेत्र डायन प्रथा, शराब और शोषण के शिकार हैं. दमयंती सिंकू ने कहा कि विकास के नाम पर आदिवासी अपने गांव से दूर हो रहे हैं.
श्वेता जायसवाल ने कहा कि आदिवासी साहित्य में स्त्री की वेदना, विद्रोह और संघर्ष भरा है. हेसल सारु ने लोकगीतों के माध्यम से महिलाओं के सौंदर्य और उपस्थिति को रेखांकित किया. शोधार्थी नितिशा खालखो ने कहा कि हमें नये चश्मे से देखने की जरूरत है, हम तभी अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढ पायेंगे़
‘आदिवासी साहित्य लेखन दशा, दिशा, वैविध्य और चुनौतियां’ सत्र में कर्नाटक से आये डॉ शांता नायक ने कहा कि हमें शब्दों के साथ खेलना होगा. आदिवासी साहित्य का अनुवाद होना चाहिए ताकि यह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके. पंकज मित्र ने कहा कि आदिवासी दर्शन मूल रूप से जंगल के साथ सह अस्तित्व पर है, वहीं दूसरे समाज के लोग प्रकृति पर विजय पाना चाहते है.
कालीदास मुर्मू ने कहा कि आदिवासी लेखन की प्रेरणा का मूल स्रोत प्रकृति है. डॉ अनुज लुगुन ने कहा कि अस्मितावाद के खतरे सभी जगह हैं. डॉ मीनाक्षी मुंडा ने कहा कि आदिवासी भाषाओं को शिक्षा व्यवस्था में शामिल कराना जरूरी है. इस सत्र की अध्यक्षता महादेव टोप्पो ने की इस मौके पर अधिवक्ता रश्मि कात्यायन, डॉ जोसफ बाड़ा, टीआरआई के निदेशक रणेंद्र कुमार, डिप्टी डायरेक्टर चिंटू दोरायबुरु, गुंजल इकिर मुंडा, डॉ अभय सागर मिंज उपस्थित थे़ शाम को पाइका नृत्य, जतरा नृत्य व मुंडारी नृत्य ने समां बांधा.