शफक महजबीन
टिप्पणीकार
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मकबूल सूफी गायिका बेगम आबिदा परवीन कहती हैं- ‘संगीत खुदा का पैगाम है’. शास्त्रीय गायक भी कहते हैं- ‘सुर ही ब्रह्म है’. मौलाना या कारी की आवाज में जब कुरान की आयतों को सुनते हैं, तो उसमें बहता सुर हमें अपनी तरफ खींच लेता है. शायद खुदा को संगीत बहुत पसंद होगा, इसीलिए उसने पैगम्बर हजरत दाउद पर एक किताब ‘जबूर’ ही उतार दी, जिसमें संगीतबद्ध आयतें हैं. हजरत दाउद जब गाते थे, तो पहाड़, चिड़ियां और जानवर उन्हें सुनन लगते थे. संगीतकार खय्याम का संगीत भी ऐसा ही है, जिसे सुनते ही हम एक सूफियाना आगोश में समाते चले जाते हैं.
खय्याम के संगीबद्ध गीतों में वो कैफियत है, जिसे सुनकर रूह का रंग निखर जाता है और दिल की मसर्रतें मचल उठती हैं. तबले की मधुर थाप पर हारमोनियम, बांसुरी, सारंगी और सितार से निकली मीठी स्वरलहरियां दिल में उतर वहां पहुंच जाती हैं, जहां खुदा बसता है. उनके संगीत में रची-पगी रफी और लता की मखमली आवाज तो जैसे हमारी उम्र बढ़ा देती है.
खैय्याम की पैदाइश 18 फरवरी, 1927 को पंजाब में हुई थी. उनका असली नाम ‘मुहम्मद जहूर खय्याम हाशमी’ था, लेकिन उन्हें ‘खय्याम’ के नाम से मकबूलियत मिली. बचपन में ही वे घर से भागकर दिल्ली अपने चचा के पास आ गये, जहां उन्होंने पंडित अमरनाथ से शास्त्रीय संगीत की तालीम हासिल की. महज 17 साल की उम्र में वे लाहौर चले गये, जहां उन्होंने पंजाबी संगीतकार बाबा चिश्ती से सीखा.
साल 1943 में वे लाहौर से लुधियाना लौटे. साल 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध में खय्याम सेना में सिपाही भी रहे. मगर, संगीत में उनकी रुचि उन्हें मुंबई खींच ले गयी. साल 1947 में फिल्म ‘राेमियो एंड जूलियट’ में बतौर गायक उन्होंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की और अगले ही साल 1948 में फिल्म ‘हीर रांझा’ से बतौर संगीतकार काम करना शुरू किया.
खय्याम ने साल 1954 में जगजीत कौर से शादी की, जो उस वक्त भारतीय फिल्म उद्योग में गैर-मजहब में हुई पहली शादी थी. साल 2011 में पद्मभूषण से नवाजे गये खय्याम ने एक से बढ़कर एक गाने बनाये, लेकिन फिल्म ‘उमराव जान’ ने उन्हें सबसे ज्यादा मकबूलियत दी. उमराव जान में बेहतरीन संगीत निर्देशन के लिए उन्हें नेशनल फिल्म अवॉर्ड और फिल्म फेयर अवॉर्ड से नवाजा गया. फिल्म ‘कभी कभी’ के लिए भी उन्हें फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला. ‘नूरी’, ‘थोड़ी सी बेवफाई’, ‘बाजार’ और ‘रजिया सुल्तान’ फिल्म फेयर अवॉर्ड के लिए नामित हुई थीं.
साल 1916 में आयी फिल्म ‘गुलाम बंधु’ उनकी आखिरी फिल्म थी. खय्याम के रचे सारे गीत रूह को बेहद सुकून देते हैं, इसलिए किसी एक गीत को बेहतर कहना उचित नहीं है.
बीते 19 अगस्त को खय्याम ने इस फानी दुनिया को अलविदा तो कह दिया, लेकिन उनका रूहानी संगीत हमेशा जिंदा रहेगा. गायक और सुननेवाले, दोनों को उनके संगीत में एक अलहदा सुकून मिलता है, जो किसी और के संगीत में मुश्किल है. दुआ है कि उनकी रूह को जन्नत नसीब हो.