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झारखंड में हजारों आदिवासी महिलाओं को गुजारना पड़ रहा है ‘दुखनी’ का जीवन

खूंटी : झारखंड के खूंटी के दूर-दराज के आदिवासी इलाके में एक युवा दंपती कुंदुंगी मुंडी और कुदराइस संगा को पहली नजर में ही प्यार हो गया और वे साथ रहने लगे. जल्द ही उनके आंगन में एक प्यारी-सी बेटी ने भी कदम रख दिया. लेकिन, दावत देने के क्रूर नियमों की वजह से वे […]

खूंटी : झारखंड के खूंटी के दूर-दराज के आदिवासी इलाके में एक युवा दंपती कुंदुंगी मुंडी और कुदराइस संगा को पहली नजर में ही प्यार हो गया और वे साथ रहने लगे. जल्द ही उनके आंगन में एक प्यारी-सी बेटी ने भी कदम रख दिया. लेकिन, दावत देने के क्रूर नियमों की वजह से वे विवाह नहीं कर सके और उन्हें वर्षों सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा. उनके समाज ने कुंदुंगी पर ‘दुखनी’ महिला का ठप्पा लगा दिया.

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दुखनी यानी ऐसी स्त्री, जो बिना ब्याह के घर में प्रवेश करती है. समाज ने अपने क्रूर नियम-कानूनों के चलते न केवल उसे बल्कि अब पांच साल की हो चुकी प्यारी-सी बिटिया को भी मान्यता देने से इन्कार कर दिया. हालांकि, इस साल जनवरी महीने में हालात तब बदले, जब एक स्वयंसेवी संगठन ने सामूहिक विवाह के जरिये उन्हें अपने रिश्ते को समाज की निगाहों में कुबूल करवाने का मौका दिया.

कुदराइस ने बताया, ‘जब हमें इस सामूहिक विवाह के बारे में पता चला, तो लगा कि सालों से आंखों में पल रहा सपना साकार हो गया. अब हम वैधानिक रूप से ब्याहता हैं और हमारे बच्चे को भी कानूनी मान्यता मिल गयी है.’ कुंदुंगी और कुदराइस इन सामाजिक नियमों की जकड़न में फंसकर तिल-तिल घुटने वाले अकेले दंपती नहीं हैं. उनके जैसे हजारों युवा दंपती हैं, जिनकी शादी को समाज ने महज इसलिए मान्यता नहीं दी, क्योंकि उनके पास अपने समुदाय को दावत देने के लिए धन नहीं था.

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यह दावत अनिवार्य मानी जाती है और अगर इसे नहीं दिये जाने पर विवाह को सामाजिक मान्यता नहीं मिलती. गरीबी की दलदल और कर्जे के न खत्म होने वाले सिलसिले में फंसे इन आदिवासियों के लिए यह मुमकिन नहीं हो पाता कि वे ऐसी दावत का आयोजन कर सकें. ऐसे शादी करने वाले जोड़े को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और इसकी सबसे अधिक मार पड़ती है ऐसा विवाह करने वाली स्त्री पर, जिसे ‘दुखनी’ करार दिया जाता है.

दुखनी का दुख

ऐसी ‘दुखनी’ को न तो सिंदूर लगाने की इजाजत होती है, न ही चूड़ियां पहनने की. ऐसे ब्याह से पैदा हुए बच्चों को उनके पिता की संपत्ति से हिस्सा तक नहीं मिलता. दुखनी की तकलीफों का सिलसिला ताउम्र तो रहता ही है, मरने के बाद भी यह खत्म नहीं होता. दुखनी महिला को गांव के दक्षिणी इलाके में दफनाया जाता है, न कि उस जगह, जहां सामान्य लोगों को मिट्टी दी जाती है.

खूंटी के टोडंकेल गांव में 85 घर हैं, जहां कुंदुंगी और कुदराइस रहते हैं. कुदराइस ने कहा, ‘हमारी सबसे बड़ी चिंता बड़ी हो रही बेटी को नहीं मिल रही सामाजिक मान्यता को लेकर थी. उसके कान वे इसलिए नहीं छिदवा पाये, क्योंकि उसे सामाजिक मान्यता नहीं मिली थी. पूरे समाज को खाना खिलाने के लिए 50 हजार रुपये की जरूरत पड़ती, जिसे जुटा पाना उनके बूते की बात नहीं थी.’

दावत में परोसना होता है मुर्गा और हंडिया

उन्होंने कहा कि इन 85 घरों के लोगों को दावत में मुर्गा और हंडिया (चावल से बनी स्थानीय मदिरा) परोसना जरूरी होता है. हर घर से पांच लोगों का औसत लगाया जाये, तो इन लोगों को भोजन कराने के लिए धन कहां से आयेगा. गैर सरकारी संगठन निमित्त की सचिव निकिता सिन्हा को जब इस सच का पता चला, तो वे अवाक रह गयीं. जब उन्होंने इस तकलीफ को समझना शुरू किया, तो पता चला कि कई दंपती अपने जीवन में ऐसे बहिष्कार की पीड़ा को भोग रहे हैं और उनसे से कुछ के नाती-पोते तक हो चुके हैं.

उन्होंने कहा कि वह तकरीबन 200 जोड़ों का विवाह करा चुकी हैं और इस काम के लिए उन्हें आदिवासी समुदाय के कड़े विरोध का भी सामना करना पड़ा. वह कहती हैं कि झारखंड में करीब 32 हजार गांव हैं. अगर हर गांव में ऐसे तीन से चार दंपती हैं, तो पीड़ित परिवारों की संख्या एक लाख से अधिक हो सकती है.

उन्होंने बताया कि उन्हें ऐसे दंपतियों की पहचान करने और उनका सामूहिक विवाह कराने के काम में बरसों लग गये. खूंटी के कुमकुमा गांव में अपने दो बच्चों के साथ रह रहे सुमित्रा टूटी (24) और किशोर मुंडा(26) ने कहा कि निमित्त संगठन ने उनकी दुनिया बदल दी. लालमुनी कुमारी (65) ने कहा कि उन्होंने दुखनी की तकलीफ को देखते हुए ही तय किया वे शादी ही नहीं करेंगी.

झारखंड में लिव-इन की परंपरा

झारखंड में सहजीवन (लिव-इन रिलेशनशिप) की परंपरा मुंडा, उरांव और हो जनजातियों में खासतौर पर प्रचलित है. झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने बताया कि उन्होंने दूर-दराज के इलाकों में बड़े स्तर पर विकास कार्य शुरू किये हैं और धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं. सरकार की कुछ योजनाएं हैं, जिससे मदद हो सकती है. मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत 30 हजार रुपये की मदद की जाती है, ताकि गरीब की बेटी की शादी हो सके.

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