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जन पत्रकारिता के 35 साल

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in प्रभात खबर अपनी यात्रा के 35 वर्ष पूरे कर रहा है. यह एक बड़ी उपलब्धि है. 14 अगस्त, 1984 को प्रभात खबर ने रांची से अपने सफर की शुरुआत की थी, लेकिन कुछ ही समय में प्रभात खबर ने राष्ट्रीय फलक पर अपनी जगह बना ली. आज प्रभात […]

आशुतोष चतुर्वेदी

प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in
प्रभात खबर अपनी यात्रा के 35 वर्ष पूरे कर रहा है. यह एक बड़ी उपलब्धि है. 14 अगस्त, 1984 को प्रभात खबर ने रांची से अपने सफर की शुरुआत की थी, लेकिन कुछ ही समय में प्रभात खबर ने राष्ट्रीय फलक पर अपनी जगह बना ली. आज प्रभात खबर दस स्थानों- रांची, जमशेदपुर, धनबाद, देवघर, पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया, कोलकाता और सिलीगुड़ी से एक साथ प्रकाशित होता है. 2019 के इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक प्रभात खबर के पाठकों की संख्या 1.41 करोड़ है.
केवल तीन राज्यों से प्रकाशित होने के बावजूद देश के शीर्ष हिंदी अखबारों में प्रभात खबर छठे स्थान पर है. अपनी यात्रा के दौरान अखबार ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन अखबार की यात्रा निरंतर जारी है. पिछले 35 वर्षों के दौरान राजनीति बदली और अर्थनीति में भी भारी परिवर्तन आया है. अखबार निकालना पहले भी चुनौतीपूर्ण था, लेकिन मौजूदा दौर में और चुनौतीपूर्ण हो गया है.
इसके बावजूद प्रभात खबर पूरी मजबूती से आगे बढ़ रहा है. सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता ही प्रभात खबर की पत्रकारिता की पहचान रही है और उसने अपने सामाजिक दायित्व को बखूबी निभाया है. प्रभात खबर ने पर्यावरण और जल संरक्षण के लिए अभियान चलाया और पॉलिथीन के इस्तेमाल के खिलाफ मुहिम चलायी है. आजादी के 70 साल हो गये, लेकिन गांवों में बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है.
प्रभात खबर इस बात को शिद्दत से महसूस करता है कि गांवों का जीवनस्तर सुधरना चाहिए. प्रभात खबर झारखंड में गांवों पर केंद्रित अखबार पंचायतनामा निकालता है. साथ ही ग्रामीण, खासकर महिलाओं को हमने गांव में बदलाव की खबरें देने के लिए प्रशिक्षित किया है. ये महिलाएं पंचायतनामा की रिपोर्टर हैं. वे अपने गांवों से खबरें भेजती हैं. साथ ही वे ग्रामीणों को उनके अधिकारों और सरकारी योजनाओं की जानकारी देती हैं.
कुछ समय पहले एक प्रयोग के रूप में प्रभात खबर के बिहार और झारखंड के आठ संस्करणों ने एक-एक गांव को गोद लिया था. हमारा मानना है कि एक चेतन समाज और अखबार का भी दायित्व बनता है कि वह ऐसे कामों में भी हाथ बंटाए. हमने जनप्रतिनिधियों और सरकारी योजनाओं के माध्यम से इन गांवों तक विकास योजनाओं को पहुंचाने की पुरजोर कोशिश की है.
आज खबरों के अनेक स्रोत हो गये हैं, लेकिन यह सच है कि मौजूदा दौर में खबरों की साख का संकट है. आपने गौर किया होगा कि सोशल मीडिया पर रोजाना कितनी सच्ची-झूठी खबरें चलती हैं. टीवी चैनल तो रोज शाम एक छद्म विषय पर बहस कराते है. टीवी में एक और विचित्र बात स्थापित हो गयी है.
वहां एंकर जितने जोर से चिल्लाये, उसे उतना ही सफल माना जाता है. ऐसा नहीं है कि अखबारों में कमियां नहीं हैं. अखबारों ने भी जनसरोकार के मुद्दों को उठाना कम कर दिया है. बाजार के दबाव में वे शहर केंद्रित हो गये हैं.
दूसरी ओर सरकारें बड़ा विज्ञापनदाता हो गयीं हैं, वह दबाव अलग है, पर इधर देखने में आया है कि मीडिया पर एकतरफा टीका-टिप्पणी करने का चलन बढ़ता जा रहा है. कोई भी और कभी भी पूरे मीडिया जगत के विषय में बयान दे देता है और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर देता है. पत्रकारों के लिए प्रेस्टीट्यूट, न्यूज टेडर्स, बाजारू या दलाल जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया गया है.
कुछ समय पहले एक व्हाट्सएप मैसेज चला, जिसमें कहा गया था- पहले अखबार छप के बिका करते थे, अब बिक के छपा करते हैं. इस संदेश में मीडिया की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़ा कर दिया गया, लेकिन हम सब के लिए यह जानना जरूरी है कि मीडियाकर्मी कितने दबाव और प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करते हैं
और कई बार यह दबाव उनकी जान भी ले लेता है. वह यह चुनौती इसलिए स्वीकार करते हैं, ताकि लोगों तक निष्पक्ष और सटीक खबरें पहुंच सकें. उनके काम करने के घंटे निर्धारित नहीं होते. वे सुबह 9 से शाम 5 बजे तक की सुकून भरी नौकरी नहीं करते.
अखबार में खबरें जुटाने का काम दिनभर चलता है और फिर अखबार को तैयार करने का काम देर शाम शुरू होकर आधी रात तक चलता है. जब आप सो रहे होते हैं, तब मीडियाकर्मी आपके लिए अखबार तैयार कर रहे होते हैं. आपको हर रोज सुबह अखबार चाहिए और टीवी, वेबसाइट पर ताजातरीन खबरें चाहिए, इसलिए मीडियाकर्मी लगभग 365 दिन काम करते हैं.
छोटी जगहों पर पत्रकारिता करना और चुनौतीपूर्ण होता है. वहां दबंगों से टकराना आसान नहीं होता है. इन स्थानों से पत्रकारों पर हमले की खबरें अक्सर आती रहती हैं. यह कोई दबा-छुपा तथ्य नहीं है कि मीडियाकर्मियों को कई तरह के दबावों का सामना करना पड़ता है. इसमें राजनीतिक और सामाजिक, दोनों दबाव शामिल हैं.
इतने दबावों के बीच आप अंदाज लगा सकते हैं कि खबरों में संतुलन बनाये रखना कितना कठिन कार्य होता है. हालांकि यह भी सही है कि पत्रकारों को खेमेबंदी से बचना चाहिए. पिछले कुछ समय से पत्रकार दो खेमों में बंटे हुए नजर आ रहे हैं. आप किसी भी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन समाचारों में यह नहीं झलकना चाहिए.
हाल में तकनीक के विस्तार ने अखबारों के समक्ष नयी चुनौती पेश की है. इसका असर देश-विदेश के सभी अखबारों पर पड़ा है. मुझे ब्रिटेन में रहने और बीबीसी के साथ काम करने का अनुभव रहा है. ब्रिटेन के गार्डियन जैसे प्रतिष्ठित अखबार संघर्ष कर रहे हैं, जबकि ब्रिटेन के अखबारों का मॉडल दूसरी तरह का है, वहां लोग खबरें पढ़ने के लिए पूरी कीमत अदा करने को तैयार रहते हैं.
वहां गार्जियन, टाइम्स और इंडपेंडेंट जैसे अखबार हैं, जो लगभग दो पाउंड यानी लगभग 180 रुपये में बिकते हैं, लेकिन हिंदी पाठक अखबार के लिए सामान्य कीमत भी अदा करने को तैयार नहीं होते हैं, जबकि एक अखबार को तैयार करने में लगभग 20 से 25 रुपये की लागत आती है.
अखबारी कागज का दाम लगातार बढ़ता जा रहा है. उसका दबाव अलग है. दुनिया में संभवत: यह एकमात्र उत्पाद है, जो अपनी लागत से कम मूल्य पर बिकता है. विज्ञापनों के जरिये इस लागत को पूरा करने की कोशिश की जाती है, लेकिन उसकी कीमत भी अदा करनी पड़ती है.
अखबार को चलाना अब बड़ी पूंजी का खेल हो गया है. जाहिर है कि इसके लिए मीडिया को बाजार के अनुरूप ढलना पड़ता है. सबसे गंभीर बात है कि समय के साथ पाठक भी बदल गये हैं. अखबार पहले खबरों के लिए पढ़े जाते थे, लेकिन मार्केटिंग के इस दौर में अखबार फ्री कूपन और मुफ्त लोटा-बाल्टी के आधार पर निर्धारित किये जाने लगे हैं. पाठकों को भी इस विषय में गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा.

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