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इतिहास की भूलों का अंत हुआ

अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार awadheshkum@gmail.com जब राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह विधेयकों और संकल्पों की प्रतियां लेकर खड़े हुए, तो शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि वाकई वे इतिहास बदलने का दस्तावेज लेकर आये हैं. जैसे ही उन्होंने कहा कि महोदय, मैं संकल्प प्रस्तुत करता हूं कि यह सदन अनुच्छेद 370(3) के अंतर्गत […]

अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
awadheshkum@gmail.com
जब राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह विधेयकों और संकल्पों की प्रतियां लेकर खड़े हुए, तो शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि वाकई वे इतिहास बदलने का दस्तावेज लेकर आये हैं.
जैसे ही उन्होंने कहा कि महोदय, मैं संकल्प प्रस्तुत करता हूं कि यह सदन अनुच्छेद 370(3) के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी की जानेवाली अधिसूचनाओं की सिफारिश करता है, तो हंगामा आरंभ हो गया. उन्होंने हंगामे के बीच ही पढ़ा कि संविधान के अनुच्छेद 370(3) के अंतर्गत अनुच्छेद 370 खंड 1 के साथ पठित अनुच्छेद 370 के खंड 3 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति संसद की सिफारिश पर यह घोषणा करते हैं कि जिस दिन भारत के राष्ट्रपति द्वारा इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये जायेंगे और इसे सरकारी गजट में प्रकाशित किया जायेगा, उस दिन से अनुच्छेद 370 के सभी खंड लागू नहीं होंगे, सिवाय खंड 1 के. जम्मू-कश्मीर को तीन भागों में बांटकर लद्दाख को अलग तथा जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित बनाने का फैसला भी अभूतपूर्व है.
आम धारणा थी कि धारा 370 को जम्मू-कश्मीर से हटाने का फैसला करने के लिए संसद का बहुमत पर्याप्त नहीं होगा. चूंकि इसे जम्मू कश्मीर की संविधान सभा ने भी पारित किया था, इसलिए उसका कोई रास्ता निकालना होगा. संविधानविदों ने साफ कर दिया था कि राष्ट्रपति को अनुच्छेद 370 के उपबंध (3) के तहत अनुच्छेद 370 को खत्म करने का अधिकार है.
शाह ने सदन में धारा 370 के खंड 3 का उल्लेख किया और कहा कि देश के राष्ट्रपति महोदय को धारा 370(3) के अंतर्गत सार्वजनिक अधिसूचना से धारा 370 को सीज करने का अधिकार है. सुबह राष्ट्रपति महोदय ने एक नोटिफिकेशन निकाला, कॉन्स्टिट्यूशन ऑर्डर निकाला, जिसके अंदर उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा का मतलब जम्मू और कश्मीर की विधानसभा है. चूंकि संविधान सभा तो अब है ही नहीं, इसलिए संविधान सभा के अधिकार जम्मू-कश्मीर विधानसभा में निहित होते हैं.
चूंकि वहां राज्यपाल शासन है, इसलिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा के सारे अधिकार संसद के दोनों सदन के अंदर निहित है. राष्ट्रपति के इस आदेश को साधारण बहुमत से पारित कर सकते हैं. पहले भी कांग्रेस पार्टी 1952 में और 1962 में धारा 370 में इसी तरीके से संशोधन कर चुकी है. इस तरह इसको किसी तरह असंवैधानिक कहना गलत है.
अनुच्छेद 370 ने जम्मू-कश्मीर को अजीब तरह से विशेष अधिकारों वाला बना दिया था. उसका अलग संविधान था. जम्मू कश्मीर ने 17 नवंबर, 1956 को अपना संविधान लागू किया था. इसका झंडा भी अलग था. जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती थी. भारत का अलग और कश्मीर का अलग. इसके 35-ए के कारण जम्मू-कश्मीर को अपनी नागरिकता देेने का अलग से अधिकार था.
संसद जम्मू-कश्मीर के मामले में सिर्फ तीन क्षेत्रों- रक्षा, विदेश मामले और संचार के लिए कानून बना सकती थी. इसके अलावा किसी कानून को लागू करवाने के लिए केंद्र सरकार को राज्य सरकार की मंजूरी की जरूरत पड़ती थी. शहरी भूमि कानून (1976) भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता था. जम्मू-कश्मीर के घोषित नागरिकों के अलावा कोई जमीन नहीं खरीद सकते थे.
जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल छह साल होता था. यदि कोई कश्मीरी महिला पाकिस्तान के किसी व्यक्ति से शादी करती थी, तो उसके पति को भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जाती थी. कश्मीर में अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों को आरक्षण नहीं मिलता था. जम्मू-कश्मीर में वोट का अधिकार सिर्फ वहां के स्थायी नागरिकों को ही था. वहां आरटीआई और शिक्षा का अधिकार (आरटीई) लागू नहीं होता था.
अब अनुच्छेद 370 के हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष अधिकार पूरी तरह से खत्म हो गये हैं. अब वहां भारतीय संविधान पूरी तरह से लागू होगा. अब उसका राष्ट्रध्वज तिरंगा रहेगा. दोहरी नागरिकता नहीं होगी. अब देश का कोई भी नागरिक जम्मू-कश्मीर में संपत्ति खरीद पायेगा. अब मोदी सरकार के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत का कोई भी नागरिक वहां का वोटर और प्रत्याशी बन सकता है. कश्मीर विधानसभा वाला केंद्रशासित प्रदेश होगा. विधानसभा का कार्यकाल पांच साल का होगा.
देश के लोगों में हमेशा 370 को लेकर गलतफहमी पैदा की गयी कि जम्मू कश्मीर के भारत में विलय विशेष था और इस कारण उसे विशेष अधिकार दिया गया.
आप 26 अक्तूबर, 1947 का विलय पत्र देख लीजिये. वह हूबहू वही है जो दूसरे रियासतों के विलय के लिए बना था. गोपालस्वामी आयंगर ने धारा 306-ए का प्रारूप पेश किया था, जो बाद में धारा 370 बनी. लेकिन यह कश्मीर में भारत के विलय के दो वर्ष बाद की बात थी. डॉ आंबेडकर ने इसे देश की एकता और अखंडता के खिलाफ बताकर स्वयं को इससे अलग कर लिया. नेहरू जी की जिद के कारण सरदार पटेल ने सदस्यों काे समझाकर इसे अस्थायी एवं संक्रमणकाली प्रावधान के रूप में रखवाया.
यह नेहरू की कृपा थी कि 1951 में राज्य को अपना अलग संविधान सभा गठित करने की अनुमति दी गयी. नवंबर 1956 में राज्य के संविधान का कार्य पूरा हुआ और 26 जनवरी 1957 को राज्य में विशेष संविधान लागू कर दिया गया. जो प्रावधान अस्थायी है, उसे कब तक लागू रखा जाना चाहिए? यह जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ संपूर्ण रूप से एकाकार होनेकी मार्ग की बाधा बन गया था. साथ ही वहां के नेताओं को इस मायने में निरंकुश बना दिया था कि वे चाहे जितना भ्रष्टाचार करें.
लद्दाख के लोग वर्षों से केंद्रशासित प्रदेश बनाने की मांग कर रहे थे. जम्मू के लोग भी कश्मीर से अलग होना चाहते थे. वैसे भी जम्मू-कश्मीर की समस्या का समाधान करना है, तो केंद्र की भूमिका वैधानिक रूप से प्रभावी होनी चाहिए. इसलिए पुनर्गठन के तहत राज्य को बांटकर केंद्रशासित प्रदेश में बदलने का निर्णय कश्मीर के भविष्य की दृष्टि, राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद तथा लोकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए बिल्कुल उचित है.
अब जम्मू-कश्मीर विधानसभा वाला केंद्रशासित प्रदेश होगा, जबकि लद्दाख चंडीगढ़ की तरह बिना विधानसभा वाला केंद्रशासित प्रदेश रहेगा. जम्मू-कश्मीर में दिल्ली और पुडुचेरी की तरह विधानसभा होगी. लद्दाख में चंडीगढ़ की तरह मुख्य आयुक्त होगा. सच कहें, तो इससे पुराना इतिहास बदला और नये इतिहास का निर्माण हुआ है. जम्मू-कश्मीर का वास्तविक विलय अब हुआ है.

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