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सिनेमा : जल, जंगल और जमीन की दावेदारी
अजित राय वरिष्ठ फिल्म समीक्षक साल 1895 में बीस साल का नौजवान बिरसा मुंडा ने आदिवासियों के आत्मसम्मान और आजादी के लिए जंग का ऐलान किया था, जिसे हम ‘उलगुलान’ के नाम से जानते हैं. समाजशास्त्री कुमार सुरेश सिंह ने इतिहास में भुला दिये गये महानायक बिरसा मुंडा की खोज की (1966). उनका शोध ग्रंथ […]
अजित राय
वरिष्ठ फिल्म समीक्षक
साल 1895 में बीस साल का नौजवान बिरसा मुंडा ने आदिवासियों के आत्मसम्मान और आजादी के लिए जंग का ऐलान किया था, जिसे हम ‘उलगुलान’ के नाम से जानते हैं. समाजशास्त्री कुमार सुरेश सिंह ने इतिहास में भुला दिये गये महानायक बिरसा मुंडा की खोज की (1966). उनका शोध ग्रंथ ‘द डस्ट स्टार्म एंड द हैंगिंग मिस्ट- अ स्टडी ऑफ बिरसा मुंडा एंड हिज मूवमेंट इन छोटानागपुर (1874-1901)’ आंखें खोलनेवाला है. इस खोज के आधार पर ही महाश्वेता देवी ने अपना विश्व प्रसिद्ध उपन्यास लिखा- ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार), जिसे 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला.
हांगकांग के वांग कार वाई की अमर फिल्म ‘इन द मूड फॉर लव’ (2000) के संगीतकारों की टीम के अगुआ रहे नंदलाल नायक ने कोलकाता के व्यवसायी सुमित अग्रवाल के साथ जिस ‘धुमकुड़िया’ फिल्म का निर्माण-निर्देशन किया है, वह बिरसा मुंडा के उलगुलान, नेहरू के नियति से साक्षात्कार वाले भाषण और नये राज्य के रूप में झारखंड बनने के वादों और वादा-खिलाफी के बीच आदिवासियों की अस्मिता और आजादी के प्रश्नों को सामने लाती है.
साल 1915 में बनी डी डब्ल्यू ग्रिफिथ की फिल्म ‘द बर्थ ऑफ ए नेशन’ से लेकर आॅस्ट्रेलिया के राल्फ डी हीर की ‘चार्लीज कंट्री’ (2014) और अमेरिका के स्पाइक ली की ‘ब्लैकक्लांसमैन’ (2018) तक दुनियाभर के फिल्मकार आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर दावेदारी को लेकर फिल्में बनाते रहे हैं. नंदलाल नायक और सुमित अग्रवाल की फिल्म ‘धुमकुड़िया’ को विश्व सिनेमा की इसी परंपरा में देखने की जरूरत है.
एक फिल्म क्या कर सकती है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ‘द बर्थ आॅफ ए नेशन’ है, जिसके रिलीज होते ही अमेरिका के आठ राज्यों में दंगे शुरू हो गये थे और दुनिया में पहली बार सेंसर बोर्ड की जरूरत महसूस हुई थी. यह फिल्म बताती थी कि कैसे काले और मूल निवासियों को मार-काटकर विशाल अमेरिकी साम्राज्य स्थापित किया गया था.
फिल्म ‘धुमकुड़िया’ इन सारे सवालों को मानवीय करुणा के आईने में दिखाती है. हाॅकी खेल में ओलंपिक का सपना देखनेवाली एक आदिवासी लड़की ऋषु लगातार छल का शिकार होकर दिल्ली के एक अमीरजादे के यहां नौकरानी का काम करते हुए बलात्कार का शिकार होती है.
हाॅकी का मशहूर खिलाड़ी उसका पिता सामंती हिंसा का प्रतिरोध करते हुए एक बार भूमिगत हुआ, तो फिर वापस नहीं लौटा. बलात्कार से गर्भवती होने के बाद ऋषु दिल्ली से मुक्ति की कोशिश में घर लौटने के दौरान जब ट्रेन रांची पहुंचती है, तो ऋषु और उसकी नवजात बच्ची की लाश उतरती है. इस पटकथा के भीतर कई पटकथाएं हैं, जिसमें बुधवा जैसा आदिवासी चरित्र है, जिसे पता ही नहीं चलता कि कब वह अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए बाहरी लोगों के शोषण तंत्र का औजार बन जाता है. इस फिल्म की पटकथा थोड़ी कमजोर जरूर है, लेकिन सिनेमेटोग्राफी कमाल की है.
फिल्म में संवाद बहुत कम हैं और दृश्य ही ज्यादा बोलते हैं. मानव तस्करी और गुलामी की इस दास्तान में राजनीति की भूमिका गायब है.
फिल्म यह भी सवाल उठाती है कि झारखंड को बाहरी लोगों ने तो लूटा ही, पर सबसे अधिक धोखा खुद आदिवासी राजनेताओं और नये आदिवासी प्रभु वर्ग ने दिया. नंदलाल नायक और सुमित अग्रवाल ने एक बड़ी कोशिश जरूर की है कि सिनेमा में झारखंड के वजूद पर सवाल उठाये. सिनेमाई व्याकरण की दृष्टि से यह फिल्म अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के करीब है.
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