उमेश कुमार, देवघर : देवघर की बैद्यनाथ-कथा का एक अध्याय ‘हरिलाजोड़ी’ से संबद्ध है. हरिलाजोड़ी देवघर शहर से करीब सात किमी उत्तर में अवस्थित एक गांव है, जहां एक छोटा शिवालय है. यह वही स्थान है, जहां लंकापति रावण ने ग्वालवेशधारी भगवान विष्णु के हाथों में शिव का कामनालिंग सौंपा था.
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बैद्यनाथ-कथा का आरंभ तो हरिलाजोड़ी से है
उमेश कुमार, देवघर : देवघर की बैद्यनाथ-कथा का एक अध्याय ‘हरिलाजोड़ी’ से संबद्ध है. हरिलाजोड़ी देवघर शहर से करीब सात किमी उत्तर में अवस्थित एक गांव है, जहां एक छोटा शिवालय है. यह वही स्थान है, जहां लंकापति रावण ने ग्वालवेशधारी भगवान विष्णु के हाथों में शिव का कामनालिंग सौंपा था. देवघर में बाबा बैद्यनाथ […]
देवघर में बाबा बैद्यनाथ का आविर्भाव की कथा यहीं से आरंभ होती है. इसलिए बैद्यनाथ-कथा को जानने वाले देश-विदेश के कांवरिया और शिवभक्त देवघर आने के बाद हरिलाजोड़ी जाने की इच्छा रखते हैं. श्रावण मास में यहां भी कांवरिया अच्छी-खासी संख्या में आते हैं. हरिलाजोड़ी से बैद्यनाथ-कथा के अंतर्संबंधों को पुराणों में भी अभिव्यक्त किया गया है और इसके पुरातात्विक साक्ष्य भी हैं.
पद्मपुराण में प्रसंग
पद्मपुराण के पाताल खंड में इस पुराण के रचनाकार ने भगवान शिव के मुंह से माता चंडी को कहलवाया है-
पूर्व सागरगामिन्या: गंगाय: दक्षिणे तटे
हरीतकीवने दिव्ये दु:संचारे भयावहे
अद्यापि वर्तते चण्डि वैद्यनाथो महेश्वर:।
भावार्थ यह कि पूर्व सागरगामिनी गंगा के दक्षिण तट स्थित हरितकी वन, जो दुर्गम और भयावह है, हे चंडी, श्री वैद्यनाथ वहां विराजमान हैं.
पालकालीन शिलालेख
पुरातत्ववेत्ता मिस्टर बेगलर सन 1872-73 में ‘हरिलाजोड़ी’ आये थे. यहां उन्होंने ‘प्रोटो बांग्ला’ (आदि बांग्ला भाषा) में एक शिलालेख देखा था. उनका अभिमत था कि वह शिलालेख ‘क्रिमिला देश’ से संबंधित था.
बाद में इसे अधिक स्पष्ट करते हुए देवघर काॅलेज, देवघर के संस्थापक प्राचार्य एवं पुरातत्व के गहन जानकार कृष्णनंदन सहाय (1994-2009) ने बताया कि प्राचीन काल में हरलाजोड़ी क्रमिल विषय (प्रांत) के अंतर्गत था. क्रमिल विषय (प्रांत) पूर्व मुंगेर और वर्तमान लखीसराय जिले के बालगूदर नामक जगह के पास अवस्थित था. स्वर्गीय सहाय के अनुसार, हरिलाजोड़ी में मिला वह शिलालेख पालवंशीय राजा नयपाल (1038-1055) के समय का था.
मूल कामनालिंग
हरिलाजोड़ी से शुरू हुई देवनागरी देवघर की यात्रा को श्रीहरि विष्णु ने एक सार्थक परिणति दी. मिथकों में इतिहास की कौंध भी मिलती है. बताते हैं कि श्रीहरि विष्णु द्वारा संस्थापित कामना लिंग आठ अंगुल ऊंचा और सप्तपाताल तक अभिव्याप्त था :
दशाड़्लं च तल्लिड़्य वेदिकोपरिचोछितं
इत्युक्तं विष्णुना यावत् तत्क्षणे शिवलिंड़्गकम
सप्तपातालमाक्रम्य स्थितमष्टाड़्गुलं क्षितौ।
एक अन्य शिलालेख में तत्कालीन चोल राजा को मंदिर निर्माण के संबंध में सांकेतिक रूप से निषेधित करते हुए कहा गया है कि ‘कलियुग में सर्वमंगल दाता (ईश्वर) मनुष्य रूप में अवतरित होकर एक लिंग की स्थापना करेंगे, जो एक लाख योजन तक विस्तृत होगा, परंतु वेदी पर आठ अंगुल ही ऊंचा होगा. इसका ऊपरी हिस्सा ढालवें शिखर की तरह होगा, जो आधे योजन तक विस्तृत होगा. इसकी आराधना से 100 हजार लिंग की पूजा जितना पुण्य मिलेगा.’
शिलालेख के शब्दों के संकेत
शिलालेख में वर्णित ‘ढालवां शिखर’ का आशय कामनालिंग के क्षतिग्रस्त ऊपरी भाग से है. ‘शिवपुराण’ के अनुसार, लंका नरेश रावण जब देवघर की धरा पर स्थापित हो चुके कामनालिंग को उठाने में असमर्थ हो गये, तब उन्होंने क्रोध में आकर लिंग के ऊपर प्रहार कर दिया, जिससे इसका शिरोभाग किंचित क्षतिग्रस्त हो गया. हालांकि, घिस चुके पुराने कामनालिंग को 14 जुलाई,1997 को पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की उपस्थिति में बदल दिया गया है, तथापि आज भी यहां के तीर्थ पुरोहित शिवलिंग की पूजा के बाद उसे अपने अंगूठे से थोड़ा दबा देते हैं. मानो भक्ति के गहन ओज में कामना कर रहे हों- ‘बाबा आप यहीं रहें! कहीं दूसरी जगह नहीं जाएं!’
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