सुरेश कांत
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मुफ्त हाथ आये तो बुरा क्या है?
सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार drsureshkant@gmail।com ‘मुफ्त’ शब्दकोश में ही ‘मुफ्त’ होता है, व्यवहार में उसकी भी एक कीमत होती है, जो बहुत बड़ी भी हो सकती है. दक्षिण अफ्रीकी राजनेता डेसमंड टूटू ने लिखा है कि जब मिशनरी लोग अफ्रीका आये, तो उनके पास बाइबल थी, जिसे वे मुफ्त में बांट रहे थे, और हमारे […]
वरिष्ठ व्यंग्यकार
drsureshkant@gmail।com
‘मुफ्त’ शब्दकोश में ही ‘मुफ्त’ होता है, व्यवहार में उसकी भी एक कीमत होती है, जो बहुत बड़ी भी हो सकती है. दक्षिण अफ्रीकी राजनेता डेसमंड टूटू ने लिखा है कि जब मिशनरी लोग अफ्रीका आये, तो उनके पास बाइबल थी, जिसे वे मुफ्त में बांट रहे थे, और हमारे पास थी जमीन. उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे लिए मुफ्त में प्रार्थना करने आये हैं. हमने अपनी आंखें बंद कर लीं और जब खोलीं, तो हमारे हाथ में बाइबल थी और उनके हाथ में हमारी जमीन.
अपने देश में मुफ्तखोरी की इस आदत को सबसे पहले चार्वाक ने महिमामंडित किया था, जिन्होंने कहा था कि जब तक जियो, सुख से जियो और कर्जा लेकर ही सही, पर घी पियो. कर्ज लेना भी मुफ्तखोरी का ही एक रूप है, जिसे आम आदमी भले ही वैसा न समझे, बड़े-बड़े उद्योगपति खूब समझते हैं, जो बैंकों से कर्ज लेते ही इसलिए हैं कि चुकाना नहीं है, भले ही विदेश क्यों न भागना पड़े. बैंक भी यह समझते-बूझते हुए उन्हें कर्ज देते हैं कि यह रकम वापस नहीं आयेगी.
ऐसे कर्जों के लिए उन्होंने ‘एनपीए’ नामक दान-खाते की व्यवस्था की हुई है, जिसे हिंदी में ‘गैर-निष्पादक परिसंपत्तियां’ कहते हैं. यानी ऐसे कर्ज, जिनसे कोई आमदनी होनी तो दूर, उलटे उन्हें खुद डूब जाना है. ऐसे डुबनशील कर्जों को ‘गैर-निष्पादक परिसंपत्तियां’ नाम शायद इसलिए दिया गया है, क्योंकि वे गैरों यानी कर्जदारों के लिए निष्पादक संपत्तियां होती हैं, बैंकों के लिए नहीं.
मिर्जा गालिब भी कर्ज की मय पीते थे, लेकिन समझते थे कि हां, रंग लावेगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन. वे जानते भी थे और मानते भी, कि मुफ्तखोरी में कुछ नहीं रखा, लेकिन फिर भी उसे बुरा नहीं समझते थे- मैंने माना कि कुछ नहीं ‘गालिब’, मुफ्त हाथ आये तो बुरा क्या है?
लोगों की मुफ्तखोरी की आदत को दो वर्गों ने खूब पहचाना- एक व्यापारी और दूसरे नेता. हालांकि, कुछ लोग इन दोनों में ज्यादा फर्क नहीं करते, क्योंकि उनकी नजर में नेता भी राजनीति को व्यापार समझकर ही चलते हैं.
बहुत-से व्यापारी भी देर-सबेर राजनीति में चले जाते हैं, सो इसी कारण. व्यापारियों और दुकानदारों ने लोगों को ‘एक के साथ एक फ्री’ और ‘फ्री डिलीवरी’ जैसे प्रलोभन दिये, तो नेताओं ने मुफ्त चावल, मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त आमदनी जैसी योजनाओं से भरमाया. इसी सिलसिले में, दिल्ली सरकार ने महिलाओं को बसों और मेट्रो में मुफ्त यात्रा की पेशकश कर दी है. विपक्षियों द्वारा इसका न तो समर्थन करते बन रहा है, न विरोध करते. बहरहाल, उम्मीद है कि महिलाएं इस मुफ्त योजना का खूब लाभ उठायेंगी और यह नहीं सोचेंगी कि उनसे इसकी क्या कीमत वसूली जायेगी.
वैसे जनता इन फरेबों को खूब समझती है. वह जानती है कि नेता उसे बरगलाने के लिए ही वायदे किया करते हैं. यही कारण है कि वह नेताओं पर बिल्कुल विश्वास नहीं करती. गालिब की तरह वह भी खुशी से मर न जाती अगर एतबार होता? फर्क सिर्फ यह है कि वह अपनी पसंद के नेता या दल द्वारा ही बरगलाया जाना पसंद करती है.
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