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…ऐसी ईद कब आयेगी

डॉ शाहिद हसन रमजान का चांद देखने से लेकर ईद का चांद नजर आने तक हम दूसरे तरह के मुसलमान हो जाते हैं. फजर की नमाज से तरावीह तक मस्जिदें भरी रहती हैं. जुमे की नमाज के वक्त मस्जिदों में जगह नहीं मिलती. सुबह-शाम हम कलामे पाक की तिलावत करना नहीं भूलते. हमारा किरदार पिछले […]

डॉ शाहिद हसन
रमजान का चांद देखने से लेकर ईद का चांद नजर आने तक हम दूसरे तरह के मुसलमान हो जाते हैं. फजर की नमाज से तरावीह तक मस्जिदें भरी रहती हैं. जुमे की नमाज के वक्त मस्जिदों में जगह नहीं मिलती. सुबह-शाम हम कलामे पाक की तिलावत करना नहीं भूलते. हमारा किरदार पिछले बारह महीनों के मुकाबले पूरी तरह अलग दिखने लगता है. हमें ऐसा महसूस होता है, जैसे सारे मजहबी अरकान को इसी महीने पूरा करने का हुक्म है. बाकी के ग्यारह महीनों में जैसे अल्लाह ने अरकान में स्पेशल छूट दे रखी है. इन ग्यारह महीनों में भी हमारा ईमान तो अडिग रहता है, लेकिन अमल में कोताही बढ़ जाती है.
माह-ए-रमजान के बाद हमारा अपने पर ऐतमाद इतना बढ़ा रहता है कि छोटी-छोटी गुनाहों पर हम ध्यान ही नहीं दे पाते हैं. अगर ध्यान चला भी जाता है तो यह मान लेते हैं कि अल्लाह रहमान और रहीम है, हमें जरूर माफ करेगा और छोटी गलतियां करते-करते बड़े गुनाह में शामिल हो जाते हैं. इसका ख्याल ही नहीं रहता और ये बड़े गुनाह आदत बन जाते हैं. हम झूठ बोलना शुरू कर देते हैं, गीबत करते हैं. फिक्स्ड डिपॉजिट में पैसे जमा करने लगते हैं.
शादी के वक्त निहायत गरीब लड़कीवालों से भी टू-व्हीलर की मांग करते हैं और नहीं देने पर बारात जाने से इनकार करते हैं. बारातियों की तादाद को बड़ा मसला बनाते हैं. मासूम लड़कियों को झूठा सब्ज-बाग दिखला कर शादी के लिए तैयार करते हैं, जबकि वो पहले से शादीशुदा होते हैं.
बेटियों और बहनों को मां-बाप की जायदाद में शरीयत के कानून को भूल जाते हैं. कुरान का पहला अल्फाज ‘इकरा’ (पढ़ो) है, मगर हम तालीम से कोसों दूर हैं. हमारा नौैजवान तबका दवा की दुकान के सामने बाइक खड़ी कर जहरीला कफ-सीरप खरीदने का आदी हो चुका है और नशीली दवाअों के इस्तेमाल का गुलाम बन चुका है. जहां तक जिंदगी जीने का सवाल है, तो हमारे ज्यादातर बच्चे आसान सा बहाना बनाकर पढ़ाई से दिलचस्पी हटा देते हैं कि हमें नौकरियां नहीं मिलतीं, इसलिए कम उमर में ही ड्राइविंग लाइसेंस बनवा कर ड्राइवर बन जाते हैं, राजमिस्त्री का काम करते हैं, घरों में पेंटिंग करते हैं, या फिर गराजों में मैकेनिक बनते हैं.
जिस मजहब में गुस्से को हराम करार दिया गया है, उसके माननेवालों का गुस्सा हमेशा सर चढ़कर बोलता है. हम कलामे पाक तर्जुमा के साथ नहीं पढ़ते, रसूले पाक (स), खलीफा ए दिन और सहाबा ए कराम की जिंदगी पर अमल नहीं करते और कई फिरकों में बंट जाते हैं.
और यह मान बैठते हैं कि हमारा अपना जो नजरिया है, वही सही है. मुहम्मद (स) ने हज्जतुल विदा के वक्त तो खुतबा दिया था और उसके बाद जिब्रैल (अ) ने आकर यह ऐलान किया कि अल्लाह ने इस दिन को मुकम्मल कर दिया और जो शख्स अल्लाह की रस्सी को (कुरान और सुन्नाह) को थाम कर रहेगा, वह दुनिया में कामयाब रहेगा.
मगर अफसोस की बात यह है कि वो रस्सी हमारे हाथों से छूटती जा रही है और हम नाकामी की तरफ बढ़ते चले जा रहे हैं.
जिस दिन पूरी कौम फिर से रस्सी को मजबूती से थाम लेगी, उसी दिन सही मायने में हमारी ईद होगी.

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