सुमित कुमार, पटना : केंद्र में भारी बहुमत के साथ मोदी सरकार की वापसी के बाद राजनीतिक पंडित हैरत में हैं. उनको तलाश है मोदी के उस ‘जिन्न’ की, जिसने लगातार दूसरे चुनाव में तमाम जातिगत समीकरणों को ध्वस्त करते हुए रिकॉर्ड तोड़ जीत दिलायी. एनडीए की जीत के पीछे राष्ट्रवाद और हिंदू वोटों की गोलबंदी जैसे कारण गिनाये जा रहे हैं.
लेकिन, इन सबसे इतर बिहार में मोदी-नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग भी रही, जिसने इस सफलता की राह को आसान बनाने का काम किया. इस सोशल इंजीनियरिंग ने ‘माय’ समीकरण को ध्वस्त करते उस ‘जिन्न’ को भी अपने कब्जे में किया, जिसे कभी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद बैलेट बॉक्स से निकाला करते थे.
सवर्ण-दलित के साथ खेला अति पिछड़ा कार्ड
दरअसल बिहार की राजनीति में सवर्ण, पिछड़े व दलित वोटों पर अलग-अलग पार्टियों का एकाधिकार माना जाता है. लेकिन बिहार में अति पिछड़ा समुदाय बहुत बड़ा (करीब 27 फीसदी) वोट बैंक है, जो हर चुनाव में निर्णायक होता है. एनडीए ने अति पिछड़ा कार्ड को सवर्ण-दलित के साथ मिलकर खेला, जिससे ‘माय’ समीकरण की काट आसान हो गयी. बिहार की तमाम सीटों पर इसका असर देखा जा सकता है. छोटी-बड़ी करीब 113 जातियों वाले इसी वोट बैंक को तरीके से साधकर लालू प्रसाद ने पहली बार 1990 में सत्ता पायी थी.
राजद से दूर होता गया अति पिछड़ा वोट बैंक
अति पिछड़ा वोट बैंक के साथ लालू परिवार ने 15 वर्षों तक बिहार पर राज किया. हालांकि, वर्ष 1996 टर्निंग प्वाइंट था, जब पंचायती राज व्यवस्था में यादव, कोइरी, कुर्मी को आरक्षण नहीं दिये जाने के पटना हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ लालू प्रसाद सुप्रीम कोर्ट चले गये. नीतीश कुमार जब वर्ष 2005 में सत्ता में आये तो उन्होंने अपनी सोशल इंजीनियरिंग से इस वोट बैंक को साधा और सुप्रीम कोर्ट से एसएलपी वापस ले लिया और पंचायती राज व्यवस्था में अति पिछड़ों को आरक्षण देने का फैसला किया.
यहीं से अति पिछड़ा समुदाय लालू प्रसाद से छिटक कर नीतीश कुमार के साथ हो लिया. इस लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ा वर्ग के एक बड़े हिस्से को साधने के लिए महागठबंधन ने मुकेश सहनी को जोड़ा, लेकिन इस समुदाय ने नये नेतृत्व के बजाय अपने पुराने नेतृत्व पर ही भरोसा जताया.
राजद ने मात्र एक, तो जदयू ने पांच व भाजपा ने दो अति पिछड़ों को दिया था टिकट
जदयू के मुकाबले राजद में नहीं मिला वाजिब प्रतिनिधित्व
वर्तमान लोकसभा चुनाव में राजद ने अपने कोटे की 20 सीटों में एकमात्र भागलपुर में अति पिछड़ा वर्ग के शैलेश कुमार उर्फ बुलो मंडल को टिकट दिया. वहीं, जदयू ने अति पिछड़ा वर्ग के पांच उम्मीदवार उतारे. भागलपुर से अजय मंडल, झंझारपुर से रामप्रीत मंडल, सुपौल से दिलेश्वर कामत, सीतामढ़ी से सुनील कुमार पिंटू जैसे नये चेहरों पर विश्वास दिखाया. नीतीश ने भूमिहार बहुल जहानाबाद सीट पर अति पिछड़ा वर्ग के चंदेश्वर प्रसाद चंद्रवंशी काे टिकट देकर दांव खेला, जो सफल भी रहा. वहीं, भाजपा ने दो सीटों पर मुजफ्फरपुर और अररिया में अति पिछड़ा उम्मीदवार उतारे, जो विजयी रहे.
एमवाइ समीकरण की पार्टी बनकर रह गया राजद !
राजनीतिक पंडित सवाल उठा रहे हैं कि क्या राजद सिर्फ मुस्लिम-यादव गठबंधन की पार्टी बन कर रह गयी है. इस चुनाव में भी उनके अधिकतर उम्मीदवार इन्हीं दोनों समुदाय से थे. इससे पहले वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में भी राजद-जदयू-कांग्रेस गठबंधन के दौरान राजद कोटे की 104 सीटों में से सिर्फ चार सीटें अति पिछड़ाें को दी गयीं, जबकि इसके मुकाबले जदयू ने अपने कोटे की 104 सीटों में से 11 सीटों पर अति पिछड़ा वर्ग से उम्मीदवार दिये. राजद कोटे की करीब 60 सीटें सिर्फ यादवों को दी गयीं.
रास-विप में भी नहीं मिली जगह
राजद को अति पिछड़ा वर्ग की नाराजगी दूर करने का मौका विधान परिषद व राज्यसभा चुनावों में भी मिला, लेकिन पार्टी नाकामयाब रही. राज्यसभा की पहली दो सीटों पर लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती और सुप्रीम कोर्ट में उनके पैरोकार राम जेठमलानी, जबकि दूसरे चरण की दो सीटों पर मनोज झा व कटिहार मेडिकल कॉलेज के संचालक अशफाक करीम को राज्यसभा भेजा गया.
विधान परिषद में भी किसी अति पिछड़े को मौका नहीं दिया गया. वहीं 2005 में सत्ता में आने के बाद नीतीश ने विधान परिषद व राज्यसभा में अति पिछड़ों को मौका दिया. अभी राज्यसभा में जदयू के दो सदस्य अति पिछड़ा वर्ग से हैं. लोकसभा चुनाव में राजद को इसका खामियाजा उठाना पड़ा है.