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वामपंथ की रीढ़ माकपा 10 वर्षों में ढही

नतीजा : इस बार राज्य मेें वामो का खाता तक नहीं खुला कोलकाता : किसी जमाने में वामपंथी राजनीति को कम से कम पूर्वी भारत में फौलादी राजनीति माना जाता था और इस वामपंथी गठबंधन में परस्पर तालमेल और अनुशासन की इसके धुर विरोधी भी मिसाल दिया करते थे, लेकिन ऐसा क्या हो गया कि […]

नतीजा : इस बार राज्य मेें वामो का खाता तक नहीं खुला

कोलकाता : किसी जमाने में वामपंथी राजनीति को कम से कम पूर्वी भारत में फौलादी राजनीति माना जाता था और इस वामपंथी गठबंधन में परस्पर तालमेल और अनुशासन की इसके धुर विरोधी भी मिसाल दिया करते थे, लेकिन ऐसा क्या हो गया कि आज वामपंथी बुर्ज अनेक देखी और अनदेखी दरारों की वजह से ढह गया.

दरअसल यह दरार 10 साल पहले खुलकर दिखने लगी थी और इसके साथ ही 34 साल तक लगातार शासन से आयी निरंकुशता और सत्ता छीनने के बाद भी बरकरार अहंकार ने उन्हें रसातल में ढकेल दिया. भाकपा से टूटकर माकपा के गठन के बाद राज्य के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब लोकसभा चुनाव 2019 में वाममोर्चा की अगुआ माकपा का खाता तक नहीं खुला. यही हाल उसके अन्य घटक दलों का भी रहा. वर्ष 1977 से वर्ष 2011 तक माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चा ने राज्य की सत्ता की बागडोर संभाली. इस बार लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा को राज्य में महज 7.46 प्रतिशत वोट मिल पाये.

पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य रहा है जहां चुनावों में माकपा के बेहतरीन प्रदर्शन की वजह से वर्ष 1989, वर्ष 1999 और वर्ष 2004 में केंद्र में सरकार के गठन में माकपा ने अपनी भूमिका अदा की थी. लेकिन वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद राज्य में माकपा और वाममोर्चा में शामिल घटक दलों के पतन का सिलसिला थमा नहीं है. 10 वर्षों में माकपा अर्श से फर्श पर गिर चुकी है.

सिंगूर आंदोलन के बाद कमजोर हुईं जड़ें : वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव और वर्ष 2006 में हुए राज्य में हुए विधानसभा चुनाव तक यहां माकपा व अन्य वामपंथी दलों की स्थिति मजबूत थी. वर्ष 2004 में माकपा को राज्य की 42 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी जबकि वाममोर्चा में शामिल अन्य घटक दलों को नौ सीटें मिली थी, यानी राज्य में वाममोर्चा का कुल 35 सीटों पर कब्जा था. 2006 के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा के हाथों ममता बनर्जी नीत तृणमूल कांग्रेस को करारी पराजय का सामना करना पड़ा था.

294 सीटों पर हुए मतदान में वाममोर्चा को 235 सीटें मिली थी, जबकि तृणमूल कांग्रेस को महज 29 सीटों पर सिमट गयी थी. 2006 के विधानसभा चुनाव में अकेले माकपा को सबसे अधिक 175 सीटें मिली थी. इसी वर्ष यानी 2006 में राज्य में सिंगूर आंदोलन शुरू हुआ. यह तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के लिए आंदोलन बड़ा मौका साबित हुआ. उन्होंने इस बहाने माकपा और उसकी नीतियों को खूब निशाने पर लिया. किसानों की हित की बात कह अपना जनाधार काफी मजबूत किया. माकपा अगुवाई वाली वाममोर्चा सरकार ने ही टाटा नैनो प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण करवाया था. आंदोलन दो साल तक चलता रहा.

आखिरकार 2008 में टाटा ने सिंगूर परियोजना रद्द कर दी और नैनो प्लांट गुजरात स्थानांतरित कर दिया. इसी आंदोलन के बाद यानी वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में राज्य में माकपा का पतन तृणमूल कांग्रेस के उदय के साथ शुरू हुआ. इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में राज्य की 42 सीटों में से माकपा को महज छह मिली, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 19 और उस वक्त उसकी सहयोगी कांग्रेस को छह सीट मिली. वर्ष 2014 में माकपा और वाममोर्चा में शामिल घटक दलों की काफी बुरी हो गयी और इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में माकपा को महज दो सीटें हासिल हो पायीं. जैसे-जैसे लेफ्ट पार्टियां सिकुड़ रही हैं पश्चिम बंगाल में, तो भारतीय जनता पार्टी का असर वहां पर बढ़ता जा रहा है.

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