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प्रत्यक्ष लाभ से जगा जनता में विश्वास

आशीष रंजन, राजनीतिक विश्लेषक चुनाव परिणामों से दो बातें बिल्कुल स्पष्ट है कि 2014 के मुकाबले इस बार भाजपा का वोट लगभग आठ प्रतिशत बढ़ा है. सत्तारूढ़ दल को इतना बड़ी बढ़त शायद ही देखने को मिलती है. इससे पहले 1984 में कांग्रेस का वोट आठ प्रतिशत बढ़ा था. यह चुनाव केवल मुद्दों और अंकगणित […]

आशीष रंजन, राजनीतिक विश्लेषक

चुनाव परिणामों से दो बातें बिल्कुल स्पष्ट है कि 2014 के मुकाबले इस बार भाजपा का वोट लगभग आठ प्रतिशत बढ़ा है. सत्तारूढ़ दल को इतना बड़ी बढ़त शायद ही देखने को मिलती है. इससे पहले 1984 में कांग्रेस का वोट आठ प्रतिशत बढ़ा था. यह चुनाव केवल मुद्दों और अंकगणित पर नहीं था, बल्कि जनभावनाओं पर था. आमधारणा बन गयी थी कि मोदी को एक और मौका देना चाहिए. भाजपा ने लोगों को विश्वास दिलाया कि देश का नेतृत्व एक मजबूत हाथों में है और इससे बेहतर और कोई विकल्प नहीं है. चुनाव संदेश देने और उसे समझाने के खेल पर टिका होता है. अपने मतदाता को विश्वास में लेना होता है. इसमें भाजपा की सफलता अभूतपूर्व है. समाज विज्ञान के शोधकर्ताओं और पत्रकारों को भी यह सोचने और समझने का समय है. यह मानने वाले भी लोग थे कि 2014 वाली हवा नहीं है, लेकिन अगर ऐसा नहीं है, तो आठ प्रतिशत की बढ़त कैसी हुई. यह सबके समक्ष बड़ा प्रश्न होगा.
दूसरी बड़ी बात है कि यह जनादेश किस वजह से मिला. एक पैमाना है कि भाजपा आमजनता तक अपना संदेश पहुंचाने में सफल रही, दूसरा यह कि सरकार के नीतिगत फैसलों ने लोगों के जीवन पर असर डाला है. किसान सम्मान निधि, शौचालय निर्माण, उज्जवला जैसी योजनाओं का जनता पर सीधा असर पड़ा है. सबसे खास बात है कि बिचौलियों को खत्म करने में सरकार एक हद तक सफल रही है. किसी काम के लिए बिचौलियों की दखलअंदाजी की परंपरा खत्म कर सरकार ने प्रत्यक्ष लाभ हस्तातंरण की व्यवस्था को प्रभावी बनाया. इससे जनता का जुड़ाव सरकार के प्रति सीधे तौर पर बढ़ा है. ऐसा तो नहीं कह सकता है कि यह व्यवस्था पूरी तरह खत्म हो गयी है, लेकिन प्रभावी हल निकालने में सरकार सफल रही है.

उत्तर प्रदेश के चुनावों को देखें, तो यहां द्विध्रुवीय मुकाबला हुआ है. भाजपा और महागठबंधन यहां सीधे तौर पर मुकाबले में थे और जाति गणित पूरी तरह से काम किया है. मुस्लिम, यादव और जाटव की जहां-जहां आबादी अधिक रही है, वहां वोट प्रतिशत सीटों में तब्दील हुआ है.

जहां पर यह समीकरण कमजोर पड़ा, वहां भाजपा आसानी से जीतने में सफल रही. सवर्ण, गैर-यादव पिछड़ी जातियां, गैर-जाटव दलित सब इकट्ठे होकर भाजपा के पक्ष में वोट किये. इस चुनाव की खासियत रही कि ज्यादातर राज्यों में लड़ाई मुख्यरूप से दो पार्टियों के बीच ही रही है. तीसरे उम्मीदवार को देखेंगे, तो उसका वोट प्रतिशत उम्मीद से बहुत कम रहा है. बहुत कम सीटें दिखेंगी, जहां त्रिकोणीय मुकाबला हुआ है. जबकि पहले तीन से चार उम्मीदवारों के बीच मुकाबला हुआ करता था, जिससे वोट प्रतिशत बिखर जाता था. जब वोट प्रतिशत के बीच फासला अधिक होगा, तो वह सीटों में तब्दील नहीं हो पायेगा. जब वोट प्रतिशत के बीच फासला पांच-सात प्रतिशत का होता है, तो वह सीट में तब्दील हो जाता है. बिहार को देखें, तो यहां जातीय समीकरण पूरी तरह से प्रभावी रहा. हालांकि, कुछ दिन बाद यह मुद्दा बनाया जा सकता है कि जातीय समीकरणों पर विकास का मुद्दा हावी रहा, लेकिन जातिगत राजनीति को यहां सिरे खारिज नहीं किया जा सकता है.

महागठबंधन के साथ उनके कोर समर्थक जुड़े रहे और उसके अलावा अन्य मतदाता भाजपा के पक्ष में लामबंद हुए. बिहार में सवर्ण, अत्यंत पिछड़ा वर्ग और दलितों का एक वर्ग भाजपा और जेडीयू के पक्ष में झुका है. कुल मिलाकर देखेंगे, तो एनडीए का वोट प्रतिशत अन्य दलों के मुकाबले अधिक है. भाजपा की रणनीति और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को जनता से स्वीकार किया है और अपने समर्थन की मुहर लगायी है. मुझे ऐसे कई लोग मिले, जो कहते हैं कि वे पहले इंदिरा को वोट करते थे, क्योंकि उनको आवास या अन्य सुविधाएं मिली. मतदाता बहुत ईमानदार होते हैं. जिनकी सरकार में या नेतृत्व में उनको कुछ मिलता है, तो उनको उसके बदले में अपना समर्थन देते हैं. उनको अगर सरकार से परेशानी होती है, तो उसका भी बदला वे सरकार से लेते हैं.

(बातचीत पर आधारित)

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