प्रभाशंकर उपाध्याय, टिप्पणीकार
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कविवर रहीमदास जी कह गये कि यह जिह्वा बावरी है. ऐसी बावरी कि पल में सरग-पताल कर, भीतर घुस जाये और जूती खानी पड़े कपाल को. पलक झपकते ही भू-मंडल का चक्कर लगा लेनेवाली जीभ का हश्र तो देखो कि उसे गिरना तो खाई में ही होता है. दो जबड़ों तथा बत्तीस दांतों की अंधेरी गुहा में कैद हो जाती है.
कमबख्त यह जुबान, वहीं कैद ही रहे तो अच्छा. वरना तो जब भी बाहर निकली है, गजब ही ढाया है इसने. वैसे तो यह महज चार-पांच इंची मास का लसलसा-सा टुकड़ा है. मधु, तिक्त तथा कटु को अनुभूत करने और करानेवाली. मधुर रस का पान करे और मधुर रस बरसाये तो रसना. परंतु, कटु तथा तिक्त उवाचे, तो आग लगा देती है.
फिलहाल, सियासी व्यक्तियों की जुबानों से छूटती ज्वालाएं, देश को दावानल बनाने को उतारू हैं. हैरत की बात है कि संजीदा किस्म के लोग भी अपनी जबान की लगाम उतारकर ‘टंग की इस जंग’ में उतर पड़े हैं.
विधि विग्रह ने सटीक टिप्पणी की है- ‘जैसी बानी ये बोलत हैं, बोले नहीं गंवार. कैसे देश भक्त ये चालू और लबार.’ सुभाष जी ने भी अपनी एक कविता में लिखा है, ‘देश प्रेम पारे सा फिसले, पहले नहीं हुआ. नेता हुरियारे सा पहले नहीं हुआ.’
दरअसल, जुबान की इस जंग ने हमारे मुल्क को एक अनूठा राष्ट्रीय-रस प्रदान कर दिया है. हम इस रस में डूबकर अपनी बदहाली, भूख, भय और बेरोजगारी को भूल चुके हैं. सार्वजनिक मंचों, वार्तालापों तथा टीवी चैनलों की बहसों में जुबानें फिसल रही हैं. ट्वीटर तथा ब्लॉग पर अंगुलियां रपटे जा रही हैं.
‘निंदा-रस’ का राष्ट्रीय रिकाॅर्ड तोड़ डाला है, इस बेहया फिसलन ने. लिहाजा, फिसलन की स्पर्धा सी चल निकली है. आजकल के फिसलन भरे इस माहौल को देखकर बरबस याद हो आता है बॉलीवुड का यह गीत- ‘आज रपट जायें तो हमें न उठइयो… हमें जो उठइयो तो खुद भी फिसल जइयो…’
हैरत तो इस बात पर भी हुई कि जुबान पर लगाम लगानेवाले आयोग की जुबान ही तालू से चिपक गयी. शुक्र है शीर्ष अदालत का, जिसने आयोग का ‘तालू-भंजन’ कर दिया. वरना तो लोग अली और बली के पीछे ही हाथ धोकर पड़ गये थे.
अली और बली तक पहुंचनेवालों ने पहले कैटल, कुत्ता, घोड़ा, बिच्छू और फिर मच्छर तक को पकड़ा था. कुछ वर्ष पूर्व एक नेताजी ने तो स्वयं को डेंगू के मच्छर से भी अधिक खतरनाक बता दिया था. एक पार्टी के महासचिव ने एक स्वामीजी को माफिया डॉन तक कह दिया था, तो दूसरे दल के महासचिव ने उनकी तुलना फिल्मी दुनिया की ऑइटम गर्ल से कर डाली थी.
काश! जुबान के ये जंगबाज श्रीप्रकाश शुक्ल की ये पंक्तियां ही पढ़ लेते- ‘जीभ महज स्वाद ही नहीं मित्रो, बछड़ों को चाटती हुई मां है.’ और वह ऐसी मां है, जो चाटते हुए जख्म भी भर देती है.