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कमजोर मॉनसून के आसार, सूखे का बढ़ता संकट, भारत के 42 प्रतिशत हिस्से पहले से ही सूखे की चपेट में

देश के अनेक हिस्सों में सूखे की मौजूदा स्थिति तथा जून-जुलाई में कमजोर मॉनसून की आशंका अर्थव्यवस्था और खाद्यान्न निर्भरता के लिए बेहद चिंताजनक है. खरीफ फसलों की बुवाई के महीनों में कम बारिश होने का सबसे ज्यादा असर मध्य और पूर्वी भारत पर हो सकता है. यदि यह आशंका सच होती है, तो औसत […]

देश के अनेक हिस्सों में सूखे की मौजूदा स्थिति तथा जून-जुलाई में कमजोर मॉनसून की आशंका अर्थव्यवस्था और खाद्यान्न निर्भरता के लिए बेहद चिंताजनक है. खरीफ फसलों की बुवाई के महीनों में कम बारिश होने का सबसे ज्यादा असर मध्य और पूर्वी भारत पर हो सकता है. यदि यह आशंका सच होती है, तो औसत से कम बारिश होने का यह लगातार तीसरा साल होगा. अनेक जिलों में तो पिछले कई सालों से सूखे की हालत है.
इससे खेती पर असर के साथ पानी की कमी भी हो जायेगी. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (गांधीनगर) द्वारा संचालित प्रणाली ने पिछले महीने जानकारी दी थी कि देश का 42 फीसदी जमीनी हिस्सा सूखे की चपेट में है, जहां हमारी 40 फीसदी आबादी रहती है. भूजल, नदियों और जलाशयों के साथ जमीनी हिस्से के लिए पानी का सबसे बड़ा स्रोत बारिश ही है. इस समस्या के विविध पहलुओं पर विश्लेषण के साथ इन दिनोंकी यह प्रस्तुति…
भारत के 42 प्रतिशत हिस्से सूखे की चपेट में
ड्राउट अर्ली वार्निंग सिस्टम (डीईडब्ल्यूएस (ड्यूस)) के अनुसार, भारत का लगभग 42 प्रतिशत भू-भाग इस वक्त सूखे की चपेट में है. 26 मार्च, 2019 को समाप्त हुए सप्ताह के आंकड़ों के आधार पर रीयल टाइम सूखा निगरानी प्रणाली ड्यूस ने ये आंकड़े जारी किये हैं.
आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर-पूर्वी राजस्थान के हिस्से, तमिलनाडु और तेलंगाना सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य हैं. इन राज्यों में ही देश की लगभग चालीस प्रतिशत आबादी (50 करोड़ के करीब) निवास करती है.
इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार आंध्र पदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान सरकार तो अपने कई जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर चुकी है, लेकिन केंद्र सरकार की तरफ से अभी इस तरह की कोई घोषणा नहीं की गयी है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर के एसोसिएट प्रोफेसर और ड्यूस के डेवलपर विमल मिश्र का इस बारे में कहना है कि इन इलाकों में मॉनसून पूर्व के अगले दो-तीन महीने काफी मुश्किल भरे रहनेवाले हैं.
भारत के 6 प्रतिशत भू-भाग असाधारण सूखे की स्थिति से जूझ रहे हैं, जो बीते वर्ष की समान अवधि (1.6 प्रतिशत क्षेत्र) से लगभग चार गुना अधिक है. वहीं अत्यधिक और असाधारण सूखे की श्रेणी में देश का 11 प्रतिशत हिस्सा शामिल है, जबकि बीते वर्ष मार्च के दौरान महज 5 प्रतिशत भू-भाग ही इन दोनों श्रेणी में थे. इस प्रकार, इस वर्ष यह प्रतिशत दोगुने से ज्यादा है.
हिमांशु ठक्कर
पर्यावरणविद
हर स्तर पर हो जल का संग्रह
देशभर में, कहां पर सूखे की स्थिति क्या है, इसको नापने के लिए कुछ पैरामीटर होते हैं. इसमें पानी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, मसलन- भूजल का स्तर क्या है, नदियों और जलाशयों में पानी की स्थिति क्या है, हमारा भंडारण कितना सक्षम है और हमारे पास जल-संरक्षण को लेकर नीतियां क्या हैं.
आईआईटी, गांधीनगर के पास एक मॉनिटरिंग सिस्टम है, उसी के हिसाब से यह मालूम हुआ है कि देश के 42 प्रतिशत हिस्सों में सूखे की स्थिति है. देश जिस सूखे की चपेट में है, इसमें भी कुछ क्षेत्रों में भयानक सूखे की हालत है, खासकर गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर कर्नाटक, तमिलनाडु, झारखंड और दक्षिण बिहार के कुछ हिस्सों में तो गंभीर सूखा है. देश के एक बड़े भाग में सूखे की गंभीर समस्या पैदा हो सकती है, इसका अंदाजा तो तभी हो गया था, जब बारिश का पिछला मौसम खत्म हुआ था. उस वक्त बहुत कम बारिश यानी औसत से कम हुई थी. तभी से हमारी सरकारों को संभल जाना चाहिए था और भंडारण की तैयारी कर लेनी चाहिए थी. लेकिन, हमारी सरकारों के साथ समस्या यह है कि वे समय पर कभी नहीं जागती हैं.
दूसरी बात यह है कि नॉर्थ-ईस्ट मॉनसून भी ठीक से नहीं आया और सामान्य से तकरीबन 40 प्रतिशत कम रहा. उसका भी असर रहा कि देश में सूखे की हालत पैदा हुई, क्योंकि मॉनसून भी अच्छी-खासी बारिश लेकर आता है. इन सब चीजों को देखते हुए सरकार को पहले ही तैयार हो जाना चाहिए था और जल-भंडारण से लेकर उन तमाम चीजों की व्यवस्था करनी चाहिए थी, ताकि सूखा आने पर भी हम जन-जीवन को पानी की कमी नहीं होने देते.
सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि देश की एक बड़ी आबादी को प्रभावित करनेवाले इस मुद्दे पर राजनीतिक पार्टियां मौन हैं. न उन्होंने चुनावी भाषणों में इसका कहीं कोई जिक्र किया और न ही अपने घोषणापत्रों में इस समस्या के उन्मूलन की कोई योजना रखी है. यह एक दुर्भाग्य की बात है, जहां पूरा चुनाव किसान-किसान करके या किसानों के लिए लुभावने वादे करके लड़ा जा रहा है. आखिर सूखा पड़ेगा, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान किसको होगा? जाहिर है किसानों को होगा, उनकी खेती और अन्न उत्पादन को होगा.
पिछले साल नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश भयंकर पानी की समस्या से जूझ रहा है और आगामी समय में इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.
नीति आयोग ने काफी-कुछ चेतावनी भी दी थी, लेकिन उसके बावजूद आज तक उस पर कोई चर्चा नहीं हुई और न ही हर व्यक्ति तक पानी की सामान्य उपलब्धता सुनिश्चित करने को लेकर पार्टियों के घोषणापत्रों में मुद्दा बनाया गया. जाहिर है, हमारे देश के नेताओं में गंभीर मुद्दों को हल करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति है ही नहीं. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि देश लगातार सूखे की चपेट में आता चला जा रहा है और साफ पानी की अनुपलब्धता की समस्या विकराल होती जा रही है. भूजल हमारे देश का जीवनरस है और कह सकते हैं कि इसके रिचार्ज की हमें हरसंभव व्यवस्था करनी चाहिए. जिस तरह भूजल का दोहन हो रहा है, वह एक तरह से खतरे की घंटी है. विडंबना है कि देश की राष्ट्रीय जल नीति भी इस संबंध में मौन है.
भूजल को बचाये रखने के लिए जरूरी है कि भूजल को रिचार्ज किया जाये और उसके संरक्षण की नीतियां बनाकर दोहन से बचाया जाये, ताकि सूखे के खतरों को कम किया जा सके. अभी गर्मी अपने चरम पर नहीं है, फिर भी कई जगहों पर पानी की तंगी बढ़ने लगी है. दूसरी बात यह भी है कि देश के कई हिस्सों में बहुत पानी है, लेकिन उसका सार्थक उपयोग नहीं हो पा रहा है. मध्य प्रदेश में सोन नदी (जो दक्षिण बिहार तक भी जाती है) पर बाणसागर बांध है, उसमें अब भी 62 प्रतिशत पानी भरा हुआ है. आज देश के किसी जलाशय में अगर सबसे ज्यादा पानी है, तो वह बाणसागर में है, लेकिन इसका उपयाेग नहीं हो रहा है.
इस बार जून की शुरुआत और जुलाई में आनेवाला मॉनसून सामान्य से कम बारिश लायेगा. वहीं अल नीनो के कारण भी मॉनसून पर असर पड़ता है.
प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह गर्म हो जाती है, इसी घटना को अल नीनो कहा जाता है. इसकी वजह से बारिश के कम होने की संभावना है, जो सूखे की हालत से निजात नहीं दिला पायेगा. बारिश कम होगी तो आगामी खरीफ की फसल पर इसका असर पड़ेगा, क्योंकि हमारे देश में ज्यादातर किसान अपनी खेती करने के लिए बारिश के पानी पर निर्भर हैं. खेती प्रभावित होगी, तो जाहिर है अन्न उत्पादन कम हो जायेगा, जो खाद्य-संकट को जन्म देगा. कृषि विकास दर कम होगी, तो इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है.
और सबसे बड़ा संकट तो ग्रामीण क्षेत्र में पड़ेगा, क्योंकि छोटे और गरीब किसान भारी तनाव के शिकार हो सकते हैं. ये सब बड़ी चुनौतियां हैं. इन चुनौतियों से निपटने के लिए सबसे पहले हमें आज से ही तैयारी शुरू कर देनी चाहए कि इस बार जितनी भी बारिश होगी, उसको संरक्षित करेंगे और भूजल को रिचार्ज करने की व्यवस्था बनायेंगे. यह इस तरह से हो सकता है कि इस गर्मी को जैसे-तैसे काटने के बाद जब बारिश आये, तो ग्रामीण मजदूरों को जल-संग्रहण के काम में लगा दिया जाये, इसके दो फायदे होंगे. एक तो ग्रामीण मजदूरों को रोजगार मिलेगा और दूसरा जल का संग्रहण होगा. इसके साथ ही, हमें किसानों को भी जागरूक करना चाहिए कि वे इस बार ऐसी फसलों को लगायें, जिसके लिए पानी की कम जरूरत पड़ती हो.
और आखिरी बात यह कि कांग्रेस ने जो गरीबतर लोगों के लिए न्याय योजना की बात की है, वह बहुत महत्वपूर्ण है. उम्मीद है कि हमारी नयी सरकार इस बारे में सोचेगी, ताकि खेती-किसानी और जल-संग्रहण के साथ ही हम अतिगरीब लोगों को राहत पहुंचायें, क्योंकि सूखे की समस्या से लड़ने के लिए यह सब जरूरी है. कुल मिलाकर, हर स्तर पर हमें जल का संग्रह करने की योजना बनानी चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
इन चुनौतियाें से भी जूझना होगा
ऐसी आशंका है कि सूखे के कारण कृषि संकट व भूजल दोहन के बढ़ने और गांव से शहरों की तरफ पलायन में वृद्धि हो सकती है. साथ ही राज्यों, खेतों, शहरों व उद्योगों के बीच पानी को लेकर टकराव बढ़ सकता है.
पांच में तीन जिले सूखे से
निबटने के लिए तैयार नहीं
बीती सदी के वर्षा के आंकड़े बताते हैं कि भारत को प्रति आठ या नौ वर्ष में गंभीर सूखे का सामना करना पड़ता है. इंडियास्पेंड की रिपोर्ट कहती है कि भारत के 60 प्रतिशत जिले, या प्रति पांच में तीन जिले सूखे से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं. आईआईटी, इंदौर और आईआईटी, गुवाहाटी द्वारा सितंबर 2018 में संयुक्त रूप से प्रकाशित पेपर से यह बात सामने आयी है. इस अध्ययन में यह भी कहा गया
है कि 634 में 241 (41 प्रतिशत) जिले सूखे से निपटने में सक्षम हैं. 634 में 133 जिलों को हर वर्ष सूखे से जूझना पड़ता है और इनमें से अधिकांश जिले छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान के हैं.
30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में केवल 10 के पास 50 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र ऐसे थे जो सूखे से निपटने में सक्षम थे. इन राज्यों में 56.74 क्षेत्र के साथ तमिलनाडु ने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था. इसके बाद आंध्र प्रदेश (53.43 प्रतिशत) और तेलंगाना (48.61 प्रतिशत) का स्थान था. वहीं इस सूची में कर्नाटक (17.38) और केरल (19.13) निचले पायदान पर थे. पूर्वाेत्तर के राज्यों की बात करें, तो सूखे से निपटने के मामले में 20.72 प्रतिशत क्षेत्र के साथ असम निचले पायदान पर था.
दक्षिण-पश्चिम मॉनसून के दौरान बारिश में कमी
वर्ष 2018 से दक्षिण-पश्चिम मॉनसून में औसत से कम बारिश दर्ज हुई है, यहां जून से सितंबर के बीच 9 प्रतिशत और मॉनसून बाद अक्तूबर से दिसंबर की अवधि में 44 प्रतिशत कम बारिश रिकॉर्ड की गयी है.
वहीं, जनवरी 2019 से 15 फरवरी, 2019 के बीच सर्वेक्षण किये गये कुल 660 जिलों में 23 प्रतिशत जिले में इस दौरान कोई बारिश नहीं हुई थी, जो मार्च में बढ़कर सामान्य से 46 प्रतिशत नीचे चली गयी, आईएमडी आंकड़ों के अनुसार.
भूजल स्तर में गिरावट पूर्व में हुई कम बारिश इस स्थिति के लिए जिम्मेदार
वर्तमान में उत्पन्न हुई सूखे की स्थिति का प्राथमिक कारण मॉनसून में कम बारिश का होना है. भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) का कहना है कि उत्तर-पूर्व मॉनसून, जिसे पोस्ट मॉनसून बारिश (अक्तूबर-दिसंबर) के नाम से जाना जाता है, के दौरान वर्ष 2018 में 44 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी थी.
भारत में होनेवाली बारिश में 10 से 20 प्रतिशत हिस्सा उत्तर-पूर्व मॉनसून बारिश का हैै. वहीं दक्षिण-पश्चिम मॉनसून (जून-सितंबर), जो भारत में होनेवाली बारिश के 80 प्रतिशत हिस्से के लिए उत्तरदायी है, में भी बीते वर्ष 9.4 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी थी. इस प्रकार देखा जाये तो पोस्ट मॉनसून बारिश में 44 प्रतिशत की कमी ने सूखे की समस्या को और बढ़ा दिया.
अल-नीनो के कारण हाे रही कम बारिश
वर्ष 2017 को छोड़कर, 2015 से प्रति वर्ष भारत को बड़े पैमाने पर सूखे का सामना करना पड़ रहा है. अल-नीनो के कारण ही भारत में ग्रीष्मकाल में ज्यादा गर्मी हो रही है और बारिश कम हो रही है. इस वर्ष भी उत्तर-पश्चिम मॉनसून पर इसका प्रभाव रहेगा, नतीजा बारिश कम होगी. अल-नीनो के कारण ही इस वर्ष पूर्व मॉनसून बारिश (मार्च से मई) कम हुई है. आईएमडी के आंकड़े बताते हैं कि 1 मार्च से 28 मार्च, 2019 के बीच दीर्घकालिक औसत की तुलना में 36 प्रतिशत कम बारिश हुई है. इस अवधि में, दक्षिणी प्रायद्वीपीय क्षेत्र में रिकॉर्ड 60 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की गयी है.
जलाशयों के जल स्तर में आयी कम
पूर्व मॉनसून बारिश के कम होने से देश के जलाशयों के जल स्तर में कमी आयी है. देश भर के 91 प्रमुख जलाशयों में मौजूदा जल स्तर में पांच महीने में (22 मार्च, 2019 तक) 32 प्रतिशत प्वाॅइंट की कमी आयी है. वहीं दक्षिणी राज्यों के 31 जलाशयों का जल स्तर पांच महीने में 36 प्रतिशत नीचे आ गया है. केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट कहती है कि बारिश की कमी के कारण लोग जलाशयों का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं. दक्षिणी राज्यों के 31 जलाशयों में उसकी कुल क्षमता का 25 प्रतिशत ही जल उपलब्ध है, जबकि बीते वर्ष नवंबर में यह क्षमता 61 प्रतिशत थी. इस प्रकार इन पांच महीनों में पानी की उपलब्धता में 36 प्रतिशत प्वाॅइंट की कमी आयी है.
2020 तक 21 शहरों के भूजल समाप्त हो जायेंगे
नीति आयोग द्वारा जून, 2018 में प्रकाशित समग्र जल प्रबंधन सूचकांक की रिपोर्ट कहती है कि 2020 तक बेंगलुरु, दिल्ली, चेन्नई और हैदराबाद सहित 21 शहरों में भूजल समाप्त हो जायेगा, जिससे 10 करोड़ लोग प्रभावित होंगे.
इस सूचकांक के अनुसार, जलसंकट से जूझ रहे 60 करोड़ भारतीयों में से आधे को अत्यधिक पानी की कमी का सामना करना पड़ता है.
75 प्रतिशत घरों के परिसर में पीने का पानी नहीं है.
40 प्रतिशत आबादी को पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध नहीं होगी वर्ष 2030 तक. आईआईटी (खड़गपुर) ने एक कनाडाई विश्वविद्यालय के साथ 2005 से 2013 के बीच के आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर बताया है कि असम, पंजाब, बिहार, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भूजल का तेजी से क्षरण हुआ है. इसका मुख्य कारण कृषि उत्पादन में पानी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल है.
आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़ जैसे पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में भूजल की घटी मात्रा फिर से भरने के रुझान मिले हैं.

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