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बिहार में लोकसभा चुनाव: लोकतंत्र में बढ़ा विश्वास तो उखड़ गये नक्सलियों के पांव

कंचन गया : राज्य में नक्सलियों का गढ़ माना जाने वाला क्षेत्र मगध यानी दक्षिण बिहार, जहां के अधिकतर हिस्सों में पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल को संपन्न हो गया. संपन्न ऐसा हुआ, जैसे लगा मतदान हुआ ही न हुआ हो. राज्य में लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान में नक्सली खौफ पर […]

कंचन

गया : राज्य में नक्सलियों का गढ़ माना जाने वाला क्षेत्र मगध यानी दक्षिण बिहार, जहां के अधिकतर हिस्सों में पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल को संपन्न हो गया. संपन्न ऐसा हुआ, जैसे लगा मतदान हुआ ही न हुआ हो. राज्य में लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान में नक्सली खौफ पर बिहार के मतदाताओं ने खूब चोट किया. पिछले साल की तुलना में 2.27 प्रतिशत अधिक वोटिंग के साथ ही वोटरों ने यह जता दिया कि प्रदेश में लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत हो रही हैं. गया, औरंगाबाद, नवादा व जमुई में हुए मतदान पर नक्सली खौफ का कोई असर नहीं रहा. 2014 लोकसभा चुनाव का रिकॉर्ड तोड़कर मतदाताओं ने 53.50 प्रतिशत मतदान किया. पिछले चुनाव से यह करीब 2.27 फीसदी अधिक है. गया में सबसे अधिक 56 प्रतिशत तो औरंगाबाद में सबसे कम 51.5 प्रतिशत वोटिंग हुई. वहीं नवादा में 52.5 व जमुई में 54 प्रतिशत वोट पड़े.

चार महीने से जंगल, पहाड़ की खाक छान रहे थे अर्द्धसैनिक बलों के जवान : तीन सालों में बिहार-झारखंड की सीमा पर स्थित गया जिले व औरंगाबाद के सीमा क्षेत्र डुमरिया, इमामगंज, बांकेबाजार, बाराचट्टी आमस व मदनपुर, देव इलाके में सीआरपीएफ के सेवरा, छकरबंधा, लुटुआ, कोठी-सलैया, इमामगंज, डुमरिया, बाराचट्टी, मदनपुर में कैंप स्थापित किये गये. छकरबंधा व बाराचट्टी में कोबरा बटालियन के कैंप स्थापित हैं. पिछले चार महीने से अद्धसैनिक बलों के जवानों ने जंगल, पहाड़ का कोना-कोना छान मारा. इस इलाके के नेतृत्व करने वाले तीन नक्सली कमांडर संदीप, अरविंद भुइयां व भोक्ता ऑपरेशन के बाद क्षेत्र छोड़ अपनी कंपनी के साथ भाग खड़े हुए. गांवों में इनके द्वारा बनाये गये स्लीपर सेल के कार्यकर्ता छिटपुट रूप से अपनी उपस्थिति बनाये रखने के लिए बनावटी बम, पोस्टर, पर्चा बीच-बीच में छोड़ते रहे. पर, जनता जिन्हें लोकतंत्र में विश्वास जाग गया है. उनके झांसे में नहीं आ रहे हैं. ना ही उन्हें सेल्टर दे रहे हैं.

नक्सलियों के खिलाफ चलाये गये ऑपरेशन व स्थापित कैंप से बढ़ा विश्वास
एक ओर जहां नक्सलियों के जंगल में छिपने की जगह पर ‘ ऑपरेशन ग्रीन हंट’ व ‘ ऑपरेशन सफलता’ जैसे अभियान चलाये गये. वहीं, पनाहगारों के बीच ‘सिविक एक्शन प्लान’ के तहत जन उपयोगी सामान बांटे गये. उन्हें छोटे-छोटे प्रशिक्षण देकर रोजी-रोजगार से जोड़ा गया. खेलकूद के माध्यम से आपसी समन्वय बनाया गया. तब जाकर प्रशासन जनता के बीच पैठ जमा पाया और उनके विश्वास को जीतने में कामयाबी मिली. फिर, नक्सलियों के गढ़ में कोबरा व सीआरपीएफ के कई कैंप स्थापित कर दिये गये. इससे जनता का और विश्वास बढ़ा और दूर होने लगा नक्सलियों का खौफ.
बदली सरकार, बदले हालात
इस क्षेत्र में 1980 के दशक से 2000 तक नक्सलियों की तूती बोलती थी. नतीजा यह भी हुआ कि प्रतिशोध में प्रतिक्रियावादी कुछ निजी सेनाएं भी पनप गयीं. नरसंहारों का दौर शुरू हो गया. सरकार बदली और हालात भी बदले. यह सब एक दिन में संभव नहीं हुआ. इसमें शासन-प्रशासन व इस व्यवस्था से ऊब चुके लोगों ने भी खूब मदद की. जनता दो चक्की में पीस रही थी. एक तो नक्सलियों या निजी सेनाओं की प्रताड़ना व दूसरी ओर प्रशासन के ऑपरेशन के दौरान पकड़े जाने के बाद जेल में ठूंसे जाने का.

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