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हिंदू का शत्रु हिंदू ही क्यों?
तरुण विजय वरिष्ठ नेता, भाजपा tarunvijay55555@gmail.com राजधानी दिल्ली से प्रकाशित एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक के संपादकीय पृष्ठ पर मेरा लेख (22 मार्च, 2003) छपा था, जिसका शीर्षक था- हिंदू ही हिंदू के प्रथम शत्रु. इसमें सदियों के अत्याचारों और जुल्म के बाद उदित हो रहे हिंदू अभिमान और गौरव का जिक्र करते हुए गजनी, गोरी […]
तरुण विजय
वरिष्ठ नेता, भाजपा
tarunvijay55555@gmail.com
राजधानी दिल्ली से प्रकाशित एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक के संपादकीय पृष्ठ पर मेरा लेख (22 मार्च, 2003) छपा था, जिसका शीर्षक था- हिंदू ही हिंदू के प्रथम शत्रु. इसमें सदियों के अत्याचारों और जुल्म के बाद उदित हो रहे हिंदू अभिमान और गौरव का जिक्र करते हुए गजनी, गोरी तथा अन्य इस्लामी आक्रमणकारियों के समय स्थानीय राजाओं की पारस्परिक फूट के कारण हुए सोमनाथ विध्वंस जैसे घटनाक्रम का वर्णन था.
जिस दिन यह लेख छपा, उसी सुबह मुझे एक शख्स का फोन आया. उन्होंने ढेरों शुभकामनाएं दीं तथा कहा- तरुणजी, मैं अापके लेखों का प्रशंसक हूं और अापने अपने लेख में बिल्कुल सत्य कहा है.
उस लेख को पंद्रह साल हो गये और आज मैं आसेतु हिमाचल एक अद्भुत और असाधारण हिंदू उभार एवं आग्रही हिंदू अभिमान का उदय देख रहा हूं. सदियों का दर्द है, कुछ समय तो लगेगा ही. यह उभार अब थमनेवाला नहीं.
दुर्भाग्य से जिन्होंने मुझे ‘हिंदू ही हिंदू का शत्रु’ लेख लिखने पर बधाई दी थी, वे आज किस पक्ष का दामन थामे हैं, यह देखकर आश्चर्य नहीं होता कि सत्तर साल की आजादी के बाद भी भारत अपने चीन जैसे पड़ोसी देश से पिछड़ा रहा. सब कुछ मिलने के बाद भी अगर मनमाफिक न मिले, तो हिंदू भी हिंदू का शत्रु हो जाता है.
क्या देश हमारी विचारधारा, दल या चुनावी लाभालाभ से बड़ा हो सकता है? किसी न किसी को किसी न किसी के प्रति ईर्ष्या, विद्वेष होगा ही. सब के प्रति समान सम्मान का व्यवहार या तो संघ के प्रचारक कर सकते हैं या दुर्लभ आध्यात्मिक संत. राजनीति में तो व्यवहार का आधार ही जाति, धन और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के आधार पर तीव्र घृणा या अतिशय स्नेह में तब्दील हो जाता है. महाभारत से लेकर आज तक कोई भी इससे अछूता नहीं रहा. कृष्ण और कर्ण. अभिमन्यु और जरासंध. जो भा गया उसे दर्जनों जिम्मेदारियां मिलती हैं और जो नहीं भाया उसे पोर्ट ब्लेयर में संत-समागम में भेज दिया जाता है.
पत्रकारिता में मेरे पूर्वज केआर मलकानी, जिन्हें अपमानित करके हटाया गया, फिर राज्यपाल बनाया गया, कहते थे- जीवन में अपनी लीक कभी बदलनी नहीं, चाहे अपमान हो या सम्मान हो. जो मेरा घर है, वह किराये का नहीं, बल्कि मेरे विचारों का जन्मदाता घर है, जिसे मैं जीवनभर नहीं छोड़ूंगा.
मेरी विचारधारा मेरी मां जैसी होती है. जैसी मेरी जननी जन्मभूमि. कितना ही एेश्वर्य और बेहतर सम्मान परधर्म में मिले, फिर भी वह त्याज्य ही है.
बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में अपने पुत्र परीक्षित के बारे में लिखा है कि परीक्षित पढ़ने के लिए विदेश जाना चाहते थे, क्योंकि वहां बेहतर करियर की आशाएं थीं. बलराज साहनी ने भावुक होकर कहा कि अगर तुम्हारी मां अस्वस्थ है और गोरी-चिट्टी भी नहीं है, तो तुम किसी और को सिर्फ इसीलिए अपनी मां बनाने जा सकते हो क्या, जो तुम्हारी जन्मदाता मां से ज्यादा भली दिखे? बस यह सुनकर परीक्षित ने विदेश जाने का निश्चय त्याग दिया.
आज देश में हिंदू समाज के विभिन्न घटकों में हो रहे अन्याय, अत्याचार और आघातों पर एकजुटता नहीं दिखती. पाकिस्तान में दो हिंदू बहनों पर अमानुषिक अत्याचार हुआ, पर सिर्फ भाजपा बोली. क्या हिंदुओं पर बोलने की जिम्मेदारी सिर्फ संघ और भाजपा की है?
चुनावी फायदे के लिए हम अपने ही देश के उन हिंदू भाई-बहनों का दुख भुलाने का प्रयास करते हैं, जिन्होंने गत एक हजार साल से बहादुरी के साथ आक्रमण झेले, अपना धर्म बचाकर रखने की कोशिश की.
जिन्होंने उनका धर्म खत्म करने का प्रयास किया, उनके साथ भी हिंदुओं ने मित्रता का व्यवहार करना चाहा. कट्टर हिंदू-विरोधी भी मानता है कि भारतवर्ष में यदि बहुलता, लोकतंत्र, सर्वपंथ समभाव तथा अल्पसंख्यक अधिकार सुरक्षित हैं, तो केवल हिंदू बहुसंख्या के कारण. जहां हिंदू घटेगा, वहां इस देश का हाल पड़ोसी देशों जैसा होने की पूरी आशंका है. लेकिन, हिंदुओं में एकता का आज भी वही हाल है, जो साेमनाथ, गोविंदजी का मंदिर, मथुरा या पानीपत के समय था.
पानीपत में तो जाट, राजपूत और मराठा ताकतें इकट्ठा होकर अब्दाली की फौजों के सामने खड़ी थीं. हारने का प्रश्न ही नहीं था. सिर्फ भोजन व्यवस्था कौन करेगा, इस विवाद और अहंकार में हिंदू ने हिंदू को हरा दिया.
हिंदुओं ने सबक नहीं सीखा. हिंदू जब जीतकर सत्ता में आते हैं, तो इतना भयंकर अहंकार दिखाते हैं कि वे सामने वाले के नमस्ते का जवाब तक नहीं देते. नेताओं के पास जितना धन-पद का प्रभाव होता है, उतना ही बड़ा उनका अहंकार होता है. संघ के निवर्तमान सर संघचालक प्रो राजेंद्र सिंह कहते थे कि ईश्वर से सब कुछ मांगना, पर यह प्रार्थना भी करना कि प्रभु कभी अहंकार मत देना. मैं आजीवन दरिद्र रहूं, पर विनम्रता मुझसे दूर न जाये, क्योंकि वही सबसे बड़ा धन है.
राजनीति में कौन जीतता है कौन हारता है, यह एक संपूर्ण जाति के अस्तित्व, उसके सम्मान की रक्षा और उसकी संख्या की सुरक्षा के सामने गौण है.
पाकिस्तान, बांग्लादेश से लेकर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदू निर्वासित हो रहे हैं, धर्मांतरित हो रहे हैं, प्रमुख मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है, मंदिरों में वे कैसे प्रवेश करें, इसका निर्धारण अधार्मिक संस्थाएं और व्यक्ति कर रहे हैं, पर हम तात्कालिक फायदा-नुकसान देख रहे हैं. दलों से ऊपर उठकर राजनीति में हिंदू हितों की बात करने का चलन होना चाहिए. हिंदू का हनन कर क्या देश का भला होगा?
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