16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

रोम-रोम रंग डाला उसने

डॉ देशबंधु ‘शाहजहांपुरी’ सुबह के सात बज रहे थे. मैं होली की छुट्टियों में अपने गांव जा रहा था. रेलगाड़ी मेरे गंतव्य के एक स्टेशन पूर्व तक ही जाती थी और वह तय समय से उस स्टेशन स्टेशन पर पहुंच गयी थी. मैं प्लेटफार्म से निकल ही रहा था कि अचानक एक 22-23 वर्षीय युवक […]

डॉ देशबंधु ‘शाहजहांपुरी’
सुबह के सात बज रहे थे. मैं होली की छुट्टियों में अपने गांव जा रहा था. रेलगाड़ी मेरे गंतव्य के एक स्टेशन पूर्व तक ही जाती थी और वह तय समय से उस स्टेशन स्टेशन पर पहुंच गयी थी. मैं प्लेटफार्म से निकल ही रहा था कि अचानक एक 22-23 वर्षीय युवक मेरे पास आया और मेरे पैर छूकर बोला- ‘बाबू जी, आप इस स्टेशन पर?’
‘होली की छुट्टियों में अपने गांव जा रहा हूं. यहां से दो किलोमीटर दूर है, पर ट्रेन यही तक आती है.’ मैंने उसके प्रश्न का उत्तर तो दे दिया, लेकिन याद नहीं आ रहा था कि यह युवक कौन है और उसने मेरे चरण क्यों छुए? अभी मैं कुछ कहने ही वाला था कि युवक ने मुस्कराते हुए कहा- ‘बाबू जी, लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं. मैं विजय हूं. मेरी नियुक्ति अभी जल्दी ही इस स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में हुई है. यह कह कर वह मुझे अपने कक्ष में ले गया.
मैं अपने दिमाग पर काफी जोर डालता रहा, पर मुझे याद नहीं आ रहा था कि मैंने विजय को इससे पहले कहां देखा है? कक्ष में पहुंच कर विजय ने मुझे आदरपूर्वक बिठाया और चपरासी को चाय-नाश्ते का इंतजाम करने कहा. फिर वह मेरे सामने कुर्सी खिसका कर बैठ गया और मेरी ओर देखते हुए कहा- ‘बाबू जी, आप जरूर यह सोच रहे होंगे कि मैं कौन हूं और आज से पहले आपसे मेरी मुलाकात कब और कहां हुई है, है न?’
मैंने हां कहना चाहा, पर शायद मेरी आंखों ने ही सब कह दिया. विजय ने आगे अपनी बात जारी रखी- ‘बाबूजी, आज आपकी ही वजह से कारण ही मैं स्टेशन मास्टर के पद पर आसीन हूं. यदि आप मेरी उस दिन सहायता न करते तो शायद आज मैं यहां तक नहीं पहुंच पाता.’ मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि विजय कहना क्या चाह रहा है. मुझे बिल्कुल भी याद नहीं आया कि मैंने कब और कैसे उसकी सहायता की थी. मुझे असमंजस में देख कर वह बोला- ‘आज से 10 वर्ष पूर्व होली के एक दिन पहले आप इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी फटे-पुराने कपड़े पहने, एक दुबले-पतले से लड़के ने अपने कंधे पर झोला लटकाये आपके पास आकर कहा था- ‘बाबू जी, होली की रंग-बिरंगी टोपी बेच रहा हूं. केवल दो रूपये की एक है.
आप ले लो न बाबू जी !’ आपने बिना उसकी ओर देखे कर दिया. इससे वह लड़का रुआंसा हो गया था. उसने रूंधे गले से मिन्नतें करते हुए कहा था- ‘बाबूजी, अगर मेरी ये सारी टोपियां बिक जायेंगी, तो मैं अपने स्कूल की फीस जमा कर पाऊंगा, वरना मुझे वार्षिक परीक्षा में बैठने नहीं दिया जायेगा.’ यह कहते हुए लड़के की आंखों में आंसू भर आये थे. आपने जब उससे पूछा कि ‘क्या तुम्हारे मां-बाप तुम्हें नहीं पढ़ाते, तो उसने बताया कि- ‘मेरे पिता नहीं हैं. अब तक तो मेरी मां किसी तरह से खेतों में काम करके मेरी फीस जमा करवाती रही, पर कुछ महीने से वह बीमार है. उसकी दवा और घर के खर्चे के लिए ही बड़ी मुश्किल से पैसे जुड़ पाते हैं.
मेरी फीस के पैसे जमा कहां से जमा कर पायेगी? मास्टर जी ने कहा है कि यदि मैंने इस महीने की 15 तारीख तक फीस जमा नहीं की, तो मुझे वार्षिक परीक्षा में बैठने नहीं दिया जायेगा, इसलिए मैंने रद्दी कागज जोड़ कर होली की ये टोपियां बनायी हैं, ताकि इन्हें बेच कर अपनी फीस के लिए पैसे जुटा सकूं.’ उस लड़के की करुण गाथा सुन कर आपने उसकी सारी टोपियां खरीद लीं थीं.’ कुछ क्षण रुक कर विजय ने मेरी ओर देखते हुए कहा- ‘मैं वही लड़का हूं बाबू जी, जिसकी आपने मदद की थी. यदि आप उस दिन मेरी मदद न करते, तो शायद मैं परीक्षा में नहीं बैठ पाता. आपके आशीर्वाद से मेरी मां की तबीयत कुछ दिनों में ठीक हो गयी. उसने आगे मुझे पढ़ा-लिखा कर यहां तक पहुंचाया है.
विजय की कहानी सुन कर मुझे सारी घटना याद आ गयी. यह देख कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने वर्षों बाद भी उसे मेरा चेहरा याद था, जबकि आज के समय में तो लोग अपने पड़ोसी का चेहरा भी नहीं याद रख पाते जिन्हें वे रोज देखते हैं. मैंने विजय से कहा- ‘आज तुम जो कुछ भी हो विजय, वह सब तुम्हारे परिश्रम और तुम्हारी मां के आशीर्वाद का परिणाम है. धन्य है वह मां, जिसने तुम्हें इतने अच्छे संस्कार दिये. उनको मेरी ओर से प्रणाम कहना.’
मेरी बात सुन कर विजय उदास हो गया. पता चला कुछ वर्षों पूर्ण उनका देहांत हो गया. अपनी मां के बारे में बताते हुए विजय का गला रूंध गया. फिर उसने अपने आंसू पोंछते हुए कहा- ‘आज मुझे ऐसा महसूस हो रहा है, मानो मैंने अपनी मां का खोया हुआ प्यार फिर से पा लिया है.
वह होली का ही मौसम था, जब आपने मेरी सहायता की थी. आज भी होली का मौसम है. जब आपने अपने स्नेह से मेरे जीवन की सूनी बगिया को फिर से महका दिया है. कुछ देर बाद विजय ने अपनी गाड़ी मंगवा कर ड्राइवर से मुझे, मेरे घर तक छोड़ आने के लिया कहा. चलते समय उसने मेरे पांव छुए, तो मैंने उससे कहा- ‘बेटा, कल होली है.
यदि तुम्हें समय मिले, तो मेरे घर आना.’ मैं इतना ही कह पाया था कि विजय तपाक से बोला- ‘मेरे घर नहीं, अपने घर कहिए बाबू जी ! कल मैं समय निकालकर अपने घर जरूर आऊंगा.’ रास्ते भर मैं गाड़ी में बैठा, विजय के उस ‘स्नेह के रंग’ का अनुभव करता रहा, जिसने मेरे रोम-रोम को रंग डाला था.
drdeshbandhu1@gmail.com

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें