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फागुन के दिन चार, होली खेल मना रे…
होली का त्योहार भारतीय जनमानस की सामूहिक चेतना का सांस्कृतिक पर्यायवाची है. यह हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का पावन प्रतीक है व मनुष्य की उत्सवधर्मिता का सर्वोच्च रूप. इसके साथ ही, होली बुराई से परे प्रेम व राग का संदेश भी लेकर आती है. रंगों में घुले प्रेम और सद्भावना के त्योहार होली की हार्दिक शुभकामनाएं… […]
होली का त्योहार भारतीय जनमानस की सामूहिक चेतना का सांस्कृतिक पर्यायवाची है. यह हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का पावन प्रतीक है व मनुष्य की उत्सवधर्मिता का सर्वोच्च रूप. इसके साथ ही, होली बुराई से परे प्रेम व राग का संदेश भी लेकर आती है. रंगों में घुले प्रेम और सद्भावना के त्योहार होली की हार्दिक शुभकामनाएं…
रसिया को नार बनाओ री
नीरजा माधव
फगुआ फीका लगता है जब तक फाग और चहका की उन्मादक गूंज न हो, डफली, मृदंग, झांझ और ढोल की थाप न हो, टेसू के रंग और उन रंगों में आपाद्मस्तक सराबोर राधा की अपनी सखियों से गुहार न हो- ‘रसिया को नार बनाओ री, रसिया को….. बेंदी भाल, नयन बिच काजल, नकबेसर पहिराओ री, रसिया को नार बनाओ री’.
मत-मातल महुआ हो उठता है. रसवंती प्रीत में सुधि-बुधि बिसराये. फाग के बोलों में एक अनजाना-सा अपनापा झलकने लगता है. लगता है यह राधा की ही गुहार नहीं, अपनी भी है. एक-दूसरे को रंग डालने की ऐसी बरजोरी कि श्याम श्याम न रह पायें और राधा की धवलता पर राग की ऐसी लालिमा चढ़ा दी जाये कि वह आकुल हो उठे अपने कान्हा को अपन-सा रंग देने के लिए. यह द्वैत मिटे तो विरह की पीर कटे.
राधा का आविर्भाव प्राचीन शास्त्रों में कब हुआ, राधा तत्व का विकास और कृष्ण की पूर्णता का प्रतीक वह कब से बनी, इस पचड़े में चाहकर भी मन नहीं रमना चाहता. राधा तत्व मृदु सलिला है जो चिरंतन है, प्रवाहमान है, लेकिन जब उसे हम अपनी संकीर्ण अंजुरी में भरकर देखने का प्रयास करते हैं तो उंगलियों की फांक से बूंद-बूंद रिसकर वह पुन: नदी बन जाती है और हथेली में थोड़े-से रेतीले कण छोड़ जाती है.
एक ऐसी नदी जिसमें आकर मिलनेवाले नाले, ताल, पोखर भी उसी का रूप हो जाते हैं, नाम हो जाते हैं, एक तत्व, कृष्ण-प्रेम, एक भाव, राधा-भाव. प्रिय के आलिंगन में समा जाने से पूर्व की एक हल्की सी झिझक, एक झीना-सा संकोच राधा-माधव की तरह.
माधव की मुरली की टेर पर रात के अंधेरे में घर से निकल पड़ने वाली राधा सुध-बुध बिसराये प्रियतम के सम्मुख पहुंच तो जाती है, पर क्षणभर के लिए अपने राधा होने का भाव जागृत होता है तो बीच में लज्जा का एक झीना आवरण पड़ता है. अब आगे पग नहीं बढ़ते. प्रिय ही बढ़ कर थाम लें. उतनी दूर से चल कर आ गयी. मेरी खातिर प्रियतम भी दो डग आगे आएं. उसी लाज की चीर का हरण राधा-भाव को अपने में समाहित कर लेने का भाव है. कृष्ण बन जाने का भाव है. लेकिन कृष्ण बन जाने के बाद भी राधा के लिए तड़प कृष्ण की लीला की पूर्णता है. राधा के बिना उनकी लीला अपूर्ण है.
लोकमानस में एक कथा प्रचलित है राधा के प्रेम की. कृष्ण के सिर में शूल उठ रहा था. राजवैद्य ने उपचार बताया- किसी स्त्री के चरण-रज के लेप से शूल दूर होगा. रुक्मिणी समेत सभी रानियां पातिव्रत्य धर्म और स्वामी की श्रेष्ठता के संकोच में अपनी चरण-धूलि कृष्ण के माथे पर लगाने में हिचकिचा उठीं.
इतना बड़ा अनर्थ वे कैसे करें? अपने कंत के माथे पर अपनी पग-धूलि? सीधे नरकगामी कृत्य. प्रतिहारी निराश होकर राधा के पास पहुंचा था. कृष्ण को शूल और राधा सुनकर विचार करे उचित-अनुचित का? संभव नहीं था. तुरंत अपनी चरण-धूलि कृष्ण के माथे पर लगाने के लिए दे दी. प्रिय का शूल मिटे, वह नरक में भी रह लेगी.
राधा परकीया थींं. कभी-कभी तथाकथित आधुनिक प्रगतिशील चिंतक राधा के प्रेम को स्त्री मुक्ति का प्रथम आह्वान कहते हैं. उनकी दृष्टि में परंपराएं बेड़ियां हैं. परंपराओं को तोड़नेवालियां सही मायने में आंदोलन को दिशा दे सकने में समर्थ हैं.
उन्हें बहुत बड़ा संबल मिलता है इस परकीया-भाव से. उनकी दृष्टि में नारी मुक्ति देह मुक्ति की स्थूलता में ही मूर्तिमान है. मीराबाई को भी उसी तर्ज पर खड़ा करने की कोशिश करते हैं. परकीया में ही स्त्री मुक्ति के भाव की तलाश क्यों?
स्वकीया में क्यों नहीं? सीता स्वकीया थीं, पतिव्रता थीं. परंपराओं को तोड़ने या लोक विरुद्ध चलने का कभी स्वप्न में भी आचरण नहीं किया. लेकिन जब आत्म-सम्मान आहत हुआ तो राम और समस्त प्रजा के सम्मुख धरती में समा जाने का दृढ़ निर्णय ले लिया. स्त्री-स्वाभिमान का इससे बड़ा उदाहरण क्या विश्व के किसी वांग्मय में मिलेगा?
पश्चिम की देखा-देखी नारी मुक्ति आंदोलन का बिगुल पूर्व में भी बजा. पूरे जोर-शोर से बजने लगा. अपने को तथाकथित प्रगतिवादी और अत्यंत विकसित माने जानेवाले देशों में भी नारी को मुक्त होने के लिए क्यों संघर्ष करना पड़ा?
आखिर वह कैसी मुक्ति थी? विवाह का बंधन उनके यहां सात जन्मों का बंधन था नहीं. प्रेम पर पहरे थे नहीं. परिवार अपनी इच्छानुसार छोटा-बड़ा कर सकने या छोड़ सकने की छूट थी. किसी भी शोषण-अत्याचार के लिए पुलिस थी, कोर्ट था और स्वयं उनके अपने स्वीकार-अस्वीकार की क्षमता थी. भारत की गंवई स्त्रियों की तरह उनके यहां तथाकथित अशिक्षा भी न थी. फिर भी नारी-मुक्ति आंदोलन का झंडा वहां से आया. ऐसे उठा कि पताकाएं दूसरे देशों में भी लहराने लगीं.
हमारे यहां राधा परकीया थीं और सीता स्वकीया, लेकिन आज तक दोनों ही नारी जाति का हिमालयी गौरव बनी हैं. प्रेम और त्याग का ऐसा उदात्त रूप कि पृथ्वी के सातों समंदर आ-आकर उनके चरण पखारें और अपने को धन्य मानें. उनके प्रेम में निराकार ब्रह्म भी बांधने को लालायित.
ऐसे अगाध महासागर में स्थूल दृष्टि के एक निपात का पृथक अस्तित्व-बोध कैसे संभव है? वह एक बार आंखों से ढुलकी तो फिर महासागर में ही डूब जाती है. वापस उन सीमित आंखों में समाना उसका प्रेय नहीं बन पाता. वह तो ठाठें मारने लगती हैं उसी सागर की अदम्य लहरों के साथ.
एक पति अपनी पत्नी को बहुत प्रिय था. वह प्रतिदिन उनकी सेवा करती, चरण-रज माथे से लगाती, उसके लिए शृंगार करती, उसके आस-पास ही घूमती रहती.
पति को परदेस जाना हुआ. पत्नी आकुल हो उठी. कैसे जीऊंगी तुम्हारे बिना. किसके लिए शृंगार और सुबह से शाम तक क्रिया-व्यापार? पति ने अपना चित्र उसे पकड़ाया और समझाया- जब तक मैं न आऊं, तब तक इसे ही मुझे समझना और इसके लिए सबकुछ करना. पत्नी किसी तरह सहमत हो गयी. वह पति के चित्र को चूमती, प्यार करती, उसके लिए सजती-संवरती और उसी कमरे में बंद रहती.
परदेस प्रवास के बाद पति वापस आया तो क्या पत्नी चित्र को ही अपना प्रिय माने या साक्षात पति आया है, उसे? प्रश्न बहुत साफ है. कृष्ण साक्षात पति हैं, स्वामी हैं. चित्त आनंद हैं. परमात्मा हैं. समस्त जीवात्माएं गोपियां हैं, राधा हैं. कृष्ण प्रेय हैं, तभी राधा प्रेयसी हैं. उसमें परकीया भाव कहां है? चित्र को पति माननेवाले चित्त में वास्तविक प्रियतम के सान्निध्य का भाव है.
महारास की रात्रि में शेष-अशेष की पहचान नहीं. जमुना का तट, कदंब की पत्तियों और लता-निकुंजों के झरोखों से छन-छन कर आती शरद पूर्णिमा की चांदनी, नीरव प्रांतर की सांय-सांय सन्नाटा और उसमें मुरली की टेर केवल कोरी आध्यात्मिकता या साहित्य-दर्शन नहीं, बल्कि एक ऐसा सत्य है जो आज तक भारतीय मन का प्यार है.
हर स्त्री-पुरुष के भीतर का उदात्त प्रेम उसी की एक प्रतिछवि है. जब तक कृष्ण की आकुलता न हो, राधा का निस्वार्थ समर्पण न हो, तब तक कोई भी प्रेम पूर्णता पा सकता है भला?
यह आकुलता और विह्वलता सच्चे प्रेम का पाथेय है, उदात्त प्रकटीकरण है. देशकाल और अन्य किसी सत्ता का आभास नहीं. ‘मैं’ के बंधन से छूटने की छटपटाहट, ‘हम’ बन जाने की अदम्य चाहना. लेकिन इतना आसान है क्या ‘मैं’ से छूट जाना, ‘हम’ बन जाना? इसलिए राधा स्वयं को समर्पित करती हैं.
अपने को चंदन की तरह घिसती हैं, लेकिन घिस कर चंदन बनने के लिए पानी को पहले ही आना होता है. ताप घर्षण बर्दाश्त करना होता है. रसिया को नार बनना होता है राधा के लिए, उसके ‘मैं’ को ‘हम’ में परिवर्तित करने के लिए. होली के इस पावन अवसर पर हमें प्रेम व समर्पण के इस संदेश को ग्रहण करना चाहिए.
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