युवाओं के सामने एक अनोखी दुविधा है. सोशल मीडिया पर अाभासी दोस्तों की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन उनमें अकेलेपन का एहसास तेजी से घर कर रहा है. वे सोशल मीडिया पर अधिक समय व्यतीत करते हैं. दरअसल, पढ़ाई, करियर और कार्यस्थल से उपजे तनाव से युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है. किसी पेशेवर या परिजन के बजाय मदद की आस में वे सोशल मीडिया पर अपनी भावनाओं को व्यक्त करना शुरू कर देते हैं.
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मानसिक देखभाल जरूरी
युवाओं के सामने एक अनोखी दुविधा है. सोशल मीडिया पर अाभासी दोस्तों की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन उनमें अकेलेपन का एहसास तेजी से घर कर रहा है. वे सोशल मीडिया पर अधिक समय व्यतीत करते हैं. दरअसल, पढ़ाई, करियर और कार्यस्थल से उपजे तनाव से युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है. किसी पेशेवर […]
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के एक शोध के अनुसार इस प्रवृत्ति से किसी उदासी या अकेलेपन का हल नहीं होता है. मानसिक अस्वस्थता के उभरते इस लक्षण के लिए तुरंत चिकित्सकीय मदद की दरकार होती है. जागरूकता के अभाव में स्थिति अनियंत्रित हो सकती है. डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत की 7.5 फीसदी आबादी मानसिक विकार की चपेट में है.
विश्व स्तर पर मानसिक, न्यूरो संबंधित और मादक द्रव्यों के सेवन से उपजे विकार का लगभग 15 प्रतिशत बोझ हमारे देश पर है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, देश में मानसिक राेगियों की संख्या बढ़ रही है, जबकि इसके निदान के लिए चार हजार से भी कम मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर हैं.
मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करना किसी युद्ध से कम नहीं है, क्योंकि लोगों में इससे इनकार करने और मदद लेने में संकोच की आदत है. निदान संभव होने के बावजूद लोग इसे छिपाने और चुप्पी के साथ सहते रहते हैं. देश में संयुक्त परिवारों के टूटने, स्वायत्तता पर जोर और तकनीक के अनियंत्रित उपयोग से लोग तनाव का शिकार हो रहे हैं.
काम में मन न लगना, बिना बीमारी के थकान महसूस करना, आलसपन, चिड़चिड़ापन और बच्चों के व्यवहार में आये अचानक बदलाव जैसे लक्षण मानसिक अस्वस्थता की निशानियां हैं. वहीं हार्मोन असंतुलन, डायबिटीज या लंबी बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए ऐसे में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है.
शुरुआती लक्षणों पर गौर करने के साथ ऐसे लोगों को एहसास दिलाना जरूरी है कि वे अकेले नहीं हैं. कुछ हद तक जागरूकता आयी है, लेकिन यह शहरों तक ही सीमित है. गांवों में अभी लोग इसे बीमारी नहीं समझते. आर्थिक तंगी से उपजे कुपोषण, एनीमिया, डायरिया जैसी बीमारियों से जूझते लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में पता नहीं चल पाता.
इसके लिए सामाजिक स्तर पर पहल होनी चाहिए. हालांकि, कानूनी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल के लिए 1987 और फिर 2017 में बदलाव किया गया था, लेकिन उससे अहम है कि लोग इससे वाकिफ हों और समाधान के लिए खुद पहल करें.
भारत में सामाजिक और पारिवारिक बनावट मददगार साबित हो सकती है. देश में इस वक्त बड़ी संख्या में मनोचिकित्सकों और मानसिक देखभाल अस्पतालों की जरूरत है. अगले दशक में यह बीमारी कहीं महामारी न बन जाये, इसके लिए अभी चेतना होगा और हर स्तर पर काम करना होगा.
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