-हरिवंश-
नंदन नीलकेणि की पुस्तक ‘इमेजिनिंग इंडिया’ (आइडियाज फॉर द न्यू सेंचुरी) के बाद निक राबिंस की पुस्तक ‘ द कारपोरेशन दैट चेंज्ड द वर्ल्ड’ (हाउ द इस्ट इंडिया कंपनी शेप्ड द माडर्न मल्टीनेशनल) का अध्ययन. दोनों दो ध्रुव. एक आनेवाली शताब्दी में भारत के उदय की संभावना तलाशती है. दूसरी, बीती शताब्दियों में भारत की कमजोरी-पराधीनता और इस्ट इंडिया कंपनी की बात करती है. निक राबिंस की पुस्तक छपी वर्ष 2006 में. छापा ओरिएंट लांगमैन ने (कीमत 295 रुपये). पहली बार निक इस्ट इंडिया कंपनी के ‘सोशल रिकार्ड’ (सामाजिक सनद) को सामने लाये हैं.
वह षड्यंत्र और ट्रेजडी से जुड़े दबे-ढंके-छुपाये इतिहास को अत्यंत रोचक ढंग से कहते हैं. इसमें युद्ध, अकाल, स्टाक मार्केट के बिखराव, कंपनी के टॉप आफिशियल्स के बीच तनातनी-गुपचुप एक-दूसरे की जड़ उखाड़ने की मुहिम के वृतांत हैं. एक तरफ यह किताब इस ग्लोबल दुनिया में बड़ी होती कंपनियों के लिए महत्वपूर्ण सबक है. दूसरी ओर दुनिया को सावधान भी करती है कि भीमकाय कंपनियां या मल्टीनेशनल-ट्रांसनेशनल कंपनियां सीमा में नहीं रहीं, तो वे समाज, देश और दुनिया के लिए खतरनाक हो सकती हैं? भारत के संदर्भ में इस पुस्तक का खास महत्व है. यह भारत की गुलामी की दास्तान भी है. हमारी कमजोरियों का आईना, पर भविष्य के प्रति सजग-सावधान रहने का पाठ पढ़ाती या सबक देती किताब.
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इस पुस्तक को पढ़ते हुए दो मान्यताएं बार-बार उभरती हैं. पहली, पश्चिमी समाज की एक खूबी है. उसकी एक धारा सच कहने का साहस रखती है. बौद्धिक ईमानदारी. रंग, भौगोलिक सीमा, वाद-विवाद से ऊपर उठ कर. 1857 के गदर में हिंदुस्तान पर हुए कहर की बातें, ब्रिटेन के तत्कालीन पत्रकारों, लेखकों और शासकों ने ही दर्ज की हैं. उसी परंपरा में यह किताब पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के अंदरूनी तथ्यों को सामने लाती है. पुस्तक अध्ययन के क्रम में दूसरी मान्यता भारत के संबंध में उभरती है. भारत क्यों गुलाम रहा? अपनी जाति व्यवस्था, फूट और छुआछूत के कारण.
पलासी की पराजय की जड़ें सामाजिक इतिहास में हैं. ‘बाबरनामा’ में हैं. बाबर ने कहा है, हम मुट्ठी भर सिपाही फतह करते हैं, लाखों भारतीय मूकदर्शक बन कर देखते हैं. यही हाल बक्सर की लड़ाई में हुआ. ऐसी ही स्थिति में नालंदा को खिलजी ने जलाया. जलानेवालों की फौज 250 के आसपास. पर नालंदा विश्वविद्यालय के भिक्षुओं की संख्या 10,000 से ऊपर. पलासी की पराजय ने भारत को गुलामी की सुरंग में धकेला. वहां बंगाल के नवाब के पास 50,000 की फौज थी. अंगरेजों के पास 3000. खुद अंगरेज महज 1000 के आसपास. पर भारत हारा, गुलाम बना.
यही 1764 में बक्सर की लड़ाई में दोहराया गया. कोलकाता में जब अंगरेजों का राज हुआ, तब बमुश्किल 300 गोरे थे. पूरे कोलकाता में 1.25 लाख से ऊपर थे, भारतीय. पर 1.25 लाख हारे, 300 अंगरेजों से. यह पस्ती, कायरता और देश था, हमारा. उधर जयचंद से शुरू परंपरा भी थी. मीरजाफरों, अमीरचंदों और जगत सेठों की संस्कृति. ‘देश बेचो, घर भरो’ दर्शन में यकीन करनेवाली. यह परंपरा अब भी है. भारतीय राजनीति में दिल्ली से गांवों तक जो दलाल, आज अहम भूमिका में हैं, वे इसी ‘देशबेचू संस्कृति’ के उत्तराधिकारी हैं. दुनिया के दूसरे बैंकों (स्विस बैंक समेत) में जिन भारतीयों ने अरबों-अरबों जमा कर रखे हैं, वे क्या हैं?
1780 में कंपनी की हरकतों को भांप कर ब्रिटिश दार्शनिक और राजनेता एंडमंड बर्क ने कंपनी की कटु आलोचना की. उन्होंने कहा ‘लगातार भारत की संपत्ति ढोने’ (कांटिनियुएल ड्रेन आफ वेल्थ) से भारत हमेशा के लिए तबाह और बरबाद हो गया. अंगरेज बर्क ने मुहावरा दिया ‘ड्रेन आफ वेल्थ’. एक अंगरेज का दिया हुआ मुहावरा आगे 150 वर्षों तक भारत के संघर्ष का प्रेरक बिंब बना. दादा भाई नौरोजी, देउस्कर से लेकर भारतीय क्रांतिकारियों और आजादी के लिए लड़नेवालों ने इस मुहावरे को अन्याय, अत्याचार और शोषण का सबसे बड़ा प्रतीक बनाया. ऐसे तथ्यों को जुटाया.
भारत लूट पर किताबें लिखीं. भारतीय धन ने ब्रिटेन को धनी बनाया. भारतीय लूट से गये धन ने ब्रिटेन का भाग्य पलटा. औद्योगिक क्रांति का ईंधन, भारतीय धन (ड्रेन आफ वेल्थ) ही था. बाद में अंगरेज ब्रुक एडम ने कहा, भारतीय लूट से औद्योगिक क्रांति हुई. यह प्रमाणित करने के लिए निक ने पुस्तक में एक चार्ट दिया है. 1600 से 1780 ई. के बीच दुनिया समेत प्रमुख देशों का जीडीपी (कुल घरेलू उत्पाद).
1600 में विश्व अर्थव्यवस्था में ब्रिटेन की जीडीपी का 1.80 फीसदी अंशदान था. तब भारत का हिस्सा था, 22.34 फीसदी. 1870 में विश्व अर्थव्यवस्था में ब्रिटेन का यह हिस्सा 1.80 से बढ़ कर 9.10 हो गया. यानी 7.30 फीसदी की वृद्धि. उधर भारत का यह हिस्सा 22.54 (1600 में) से घट कर 1870 में 12.25 रह गया. यानी इसी दौर में ब्रिटेन की जीडीपी में 7.30 फीसदी की बढ़ोतरी और भारत की जीडीपी में 10.29 की गिरावट? साफ है कि भारत की यह संपदा कहां पहुंची? कैसे गयी? आगे के अध्यायों में यह भी उल्लेख है.
भारत जीत (या लूट) कर 33 वर्ष में क्लाइव ब्रिटेन का सबसे संपन्न आदमी बना. 2002 की कीमत पर 22 मिलियन पौंड, भारत लूट से क्लाइव को निजी आय हुई. क्लाइव जब भारत से लौटा, तो चार लाख पौंड साथ ले गया. मैकियावेली के दर्शन का पुजारी था क्लाइव. किसी तरह सत्ता, संपदा और ताकत अर्जित करो. ईस्ट इंडिया कंपनी 275 वर्षों तक अस्तित्व में रही. पर भारत में यह मैकियावेली के दर्शन पर ही चली. कहते हैं चित्रकार, अपने समय के सच को बिंबित करता है.
1796 से 1799 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों ने लंदन में एक भव्य भवन बनाया. भारत फतह के बाद. वहां एक पेंटिंग लगायी गयी. ब्रिटेन के बादशाह जार्ज (तृतीय) भी दिखाये गये. ब्रितानिया हुकूमत शेर पर सवार थी, यूरोप घोड़े पर सवार था, एशिया काफी पीछे ऊंट पर रेंग रहा था. यह पेंटिंग, इसके भाव, दृश्य बहुत कुछ कहते-बताते हैं.
1773 में ब्रिटेनवासी रिचर्ड क्लार्क ने लिखा, हमारे देश के न सही, दूसरे देशों के इतिहासकार जरूर लिखेंगे कि भारत के साथ क्या जुल्म, अन्याय और अत्याचार हुए? क्लार्क ने एक लंबी व्यंग्य कविता भी लिखी. अपने देशवासियों (ब्रिटेन) से मानवता के दुश्मनों के खिलाफ ईमानदार आत्मनिरीक्षण की अपील की. 50 तरह के मलमल तब ढाका-आसपास बनते थे. उनके कारीगरों के अंगूठे काटे गये. पूर्वी उत्तर प्रदेश-बिहार के मजदूर पानी के जहाजों से ढोकर दुनिया के देशों में पहुंचाये गये. ब्रिटेन के लिए संपदा अर्जित करने हेतु. उनका जीवन, कठिन और नारकीय रहा. यह सब पुस्तक में है.
भारत की इस लूट पर गालिब की एक पंक्ति का भी उल्लेख है, ‘जख्म गर दब गया, लहू ना थमा’ जख्म तो दबा, पर लहू रिसता रहा. निक ने यह किताब लिखी कि पलासी (1757) के 250 वर्ष हो रहे हैं, इतिहास के इस घाव पर चर्चा हो. शायद उनका मानस यह रहा कि इतिहास फिर न दोहराया जाये, इसलिए इस पर बात हो. 2007 में पलासी पराजय के 250 वर्ष हो गये, पर इसे देश में अपनी पराजय, दुर्गति और गुलामी के अध्याय पर चर्चा नहीं हुई. लगता है, हम न सीखनेवाले देशों में से हैं. लेकिन इस पुस्तक में एडमंड बर्क, रिचर्ड क्लार्क से लेकर इस पुस्तक के लेखक निक राबिंस की भी एक परंपरा है, जो सच के साथ खड़ी रहती है. बिना किसी प्रत्याशा के.
ईस्ट इंडिया से जुड़े कई रोचक तथ्य भी पता चलते हैं. 18वीं-19वीं शताब्दी के ब्रिटेन में प्रत्यक्ष-परोक्ष हर ब्रिटेनवासी का संबंध कंपनी से रहा. कंपनी में जो क्लर्क बने, उनमें विक्टोरियन युग के कई जाने-माने लेखक भी थे. लेखक चार्ल्स लैंब भी कंपनी के मुलाजिम रहे. लैंब, कवि वर्डसवर्थ और लेखक-कवि सैमुएल टेलर खास मित्र थे. टेलर ने अपनी एक कविता चार्ल्स को समर्पित की. जेम्स मिल, जान स्टुअर्ट, जेम्स बेनयम (तीनों एक ही परिवार की तीन पीढ़ी- बाप, बेटा व पोता) भी कंपनी में रहे. बंगाल में राइटर्स बिल्डिंग का नाम कंपनी के क्लर्कों के कारण ही पड़ा. बंगाल में भी लेखक-कवि कंपनी की नौकरी में रहे.