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कृष्ण प्रताप सिंह

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आचार्य द्विवेदी : गुरु-शिष्य परंपरा के अप्रतिम पुरस्कर्ता

आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, जिन्होंने ‘व्योमकेश दरवेश’ नाम से आचार्य की जीवनी लिखी है, बताते हैं कि द्विवेदी जी ने अपने समूचे अध्यापन काल में गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाया, क्योंकि उनका मानना था कि यह शिक्षा की सबसे आदर्श व्यवस्था है.

जयंती विशेष : अंतरिक्ष अनुसंधान के अग्रदूत विक्रम साराभाई

Vikram Sarabhai : वे जीवनभर प्रयासरत रहे कि विज्ञान के विभिन्न प्रयोग आम आदमी के काम आएं. उनका मानना था कि ऐसा नहीं हुआ, तो वैज्ञानिक प्रयोगों की कोई सार्थकता नहीं रहेगी. साल 1975 में भारत ने एक रूसी कॉस्मोड्रोम से ‘आर्यभट्ट’ उपग्रह को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर दुनिया को चकित कर डाला. यह विक्रम की परियोजना की सफलता थी.

जयंती विशेष : हरित क्रांति के जनक थे एमएस स्वामीनाथन

तमिलनाडु स्थित कुंभकोणम में 1925 में आज ही के दिन जन्मे एमएस स्वामीनाथन का पूरा नाम मनकोंबु संबाशिवन स्वामीनाथन है. उनके पिता थे एमके संबाशिवन और माता थीं पार्वती थंगम्मल. पेशे से डॉक्टर रहे पिता के पुत्र स्वामीनाथन ने कुंभकोणम में शुरुआती शिक्षा के बाद तिरुवनंतपुरम के यूनिवर्सिटी कॉलेज, कोयंबटूर के कृषि कॉलेज (तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय) और केरल विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की.

मशाल की तरह है प्रेमचंद का पत्रकारीय योगदान

कहते हैं कि 1930 में बसंत पंचमी के दिन उनके द्वारा स्थापित सरस्वती प्रेस से ‘हंस’ के प्रकाशन से छह महीने पहले उन्हें उसका नाम जयशंकर प्रसाद ने ही सुझाया था.

स्वराज के संघर्ष ने जिन्हें ‘लोकमान्य’ बनाया

वर्ष 1856 में 23 जुलाई को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के चिखली गांव में माता पार्वती बाई और पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक की संतान के रूप में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे लोकमान्य का मूल नाम केशव गंगाधर तिलक था.

राष्ट्रीय स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया बंकिम ने

बंकिम के सभी भारतीय भाषाओं के शीर्षस्थ उपन्यासकार बनने और प्रसिद्धि का शिखर छूने की कथा भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है.

बाबू देवकीनंदन खत्री का तिलिस्म बरकरार है

बताते हैं कि नौगढ़ व विजयगढ़ आदि के प्राचीन गढ़ों व किलों में घूमते हुए ही उनके मस्तिष्क में तिलिस्मी उपन्यास लिखने का विचार आया. फिर उन्होंने कलम उठा ली तो उठा ली.

समर्पित संपादकों के हौसले की ऋणी है हिंदी पत्रकारिता

‘विशाल भारत’ के बहुचर्चित संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी की वृत्ति और भी स्वतंत्र व विशिष्ट थी. उनके प्रायः सारे संपादकीय फैसलों की एक ही कसौटी थी- क्या उससे देश, समाज, उसकी भाषाओं और साहित्यों, खासकर हिंदी का कुछ भला होगा या मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में उच्चतर मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी अथवा नहीं.

सुखदेव को कालेपानी से बेहतर लगती थी शहादत

भगत सिंह व सुखदेव दोनों मानते थे कि हमारे शासकों, विशेषकर अंग्रेज जाति, की हमारे प्रति भावनाओं में कोई आश्चर्यजनक हितकारी परिवर्तन होना लगभग असंभव है
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