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मोहन गुरुस्वामी

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उम्मीद के मुताबिक दक्षिण में नतीजे आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की बड़ी जीत

केरल और तमिलनाडु में भाजपा के वोट प्रतिशत में कुछ बढ़त हुई है, पर उसकी मेहनत का कोई खास फायदा उसे नहीं हो सका है.

व्यापक था पंडित नेहरू का व्यक्तित्व

नेहरू ने ऐसा आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत बनाया था, जिसे टिके रहना था. गणतंत्र के आरंभिक वर्षों में उनका नेतृत्व मिलना भारत का सौभाग्य था. नेहरू का व्यक्तित्व व्यापक बौद्धिकता और दूरदृष्टि से संपन्न था.

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हालांकि, केसीआर सरकार ने जन कल्याण की कई सफल योजनाओं को चलाया. राज्य में सिंचाई व्यवस्था भी बहुत बेहतर हुई है. फिर भी मतदाताओं के एक हिस्से में नाराजगी थी. इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि उन्होंने एक राजा की तरह पूरे घमंड के साथ शासन चलाया.

उदार थे इस्राइल की पहली पीढ़ी के नेता

इस्राइल की स्थापना ने एक ऐसे नये देश की उम्मीद जगायी थी, जो अपने अनुभवों और अपने संस्थापकों के आदर्शों के सहारे दुनिया के सामने कुछ अलग पेश करेगा. इसी आदर्शवाद ने भारत को प्रेरित किया और वह इस्राइल को मान्यता देनेवाले तीन देशों में से एक बना.

सिंधु जल संधि की समीक्षा आवश्यक

सिंधु नदी से उसके समुद्र पहुंचने से पहले पानी का इस हद तक दोहन किया गया है कि समुद्री पानी इस नदी की राह में कई मील अंदर आ चुका है. वर्तमान आकलनों के अनुसार, सिंधु नदी प्रणाली में बहाव का स्तर 2030 से 2050 के बीच 2000 के स्तर से नीचे चला जायेगा.

सिंधु जल संधि पर पाकिस्तान का अड़ियल रुख

सिंधु नदी तंत्र से पाकिस्तान की सिंचाई आवश्यकता का 80 प्रतिशत पूरा होता है. ये स्रोत अपने अधिकतम स्तर पर हैं. दक्षिण की कीमत पर अधिकांश पानी को उत्तरी पाकिस्तान को दिया जा रहा है. आगामी दशकों में सिंधु नदी तंत्र में पानी की कमी के आसार हैं.

चीन में जनसंख्या गिरावट का संकट

अगले 20 वर्षों में चीन में कामगारों और सेवानिवृत्त लोगों का अनुपात आज के लगभग 5:1 से घट कर मात्र 2:1 रह जायेगा. ऐसे बड़े बदलाव का मतलब है कि यदि सरकार कर राजस्व के मौजूदा स्तर को कायम रखेगी

अगली सदी एशिया की

आशा है कि यह एशिया की सदी होगी, जहां विश्व के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का संतुलन बदलेगा. अभी लगभग एक-तिहाई की हिस्सेदारी है, जो अनुमान है कि 2050 तक आधे से अधिक हो जायेगी.

असंगठित कामगारों पर रहे ध्यान

मलिन बस्तियों की घुटन में फंसे और लॉकडाउन की बंदिशों से निकलने की कोशिश करते लाखों प्रवासियों कामगारों की स्थिति क्रांतियों की उत्प्रेरक हो सकती है, लेकिन इसकी ओर न तो मीडिया ने ध्यान दिया और न ही सरकार एवं राजनीतिक वर्ग ने. किसी और दौर में सामाजिक न्याय के योद्धा तथा वर्ग संघर्ष के पैरोकार इस माहौल में कूद पड़ते, लेकिन अब ऐसा नहीं होता. गांधी क्या, उन्होंने माओ को भी भुला दिया है.
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