पिछले 28 मई को सीबीएसइ बारहवीं का रिजल्ट आया और मुझे 95 फीसदी मार्क्स मिले. मैं नहीं, लगता था सारी रांची मेरी खुशी में शरीक हैं. मेरे माता-पिता, संबंधी, शिक्षक, मित्र और मीडिया. लेकिन, मुझे तो 2014 भी याद आने लगा. मैं अपने पिता शशिभूषण अग्रवाल, जो कृषि विभाग झारखंड सरकार में कार्यरत थें और माता रितु अग्रवाल, जो बीआइटी मेसरा में आर्किटेक्चर की प्रोफेसर थीं, का राजदुलारा था. जीवन में अब तक सब कुछ बढ़िया ही हुआ था. प्रेप से लेकर दसवीं तक की पढ़ाई मैंने डीपीएस रांची में ही की थी. शहर से 20 किलोमीटर दूर बीआइटी मेसरा के शांत और बेहतरीन कैंपस में अपने खुशहाल परिवार के साथ रहता था. लेकिन, शायद जीवन में हर वक्त सब कुछ बढ़िया ही नहीं रहता है.
जनवरी का महीना था. मैं पूरी तन्मयता से एक महीने बाद होनेवाले दसवीं की परीक्षा की तैयारी में जी-जान से लगा हुआ था. अचानक से मेरी तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गयी और जांच रिपोर्ट में जो आया वो मेरे लिए, मेरे माता-पिता और पूरे परिवार के लिए एक बहुत बड़े सदमे से कम नहीं था. डॉक्टर्स ने बताया की मुझे बोन कैंसर है. लेकिन, ये हम सभी के लिए विश्वास कर पाना बहुत ही मुश्किल था. हर पल लगता था कि काश ये झूठ हो. कभी लगता था कि जरूर जांच में डॉक्टर्स ने कुछ गड़बड़ी कर दी होगी या कभी लगता था कि कोई तो कह दे कि अरे हम तो मजाक कर रहे थें. लेकिन, मैं सचमुच बोन कैंसर की गिरफ्त में था. मेरे माता-पिता ने इलाज के लिए एम्स जाने का निर्णय लिया और मेरा इलाज भी शुरू हो गया. लेकिन, कैंसर के बारे में सोचना और उसके दर्द को सहना शारीरिक और मानसिक दोनों तरफ से तकलीफदेह था, जबकि मेरे परिवार के लोग हमेशा कोशिश करते थें कि मुझसे मेरी बीमारी के बारे में चर्चा न करें. मेरे माता-पिता अपने आंसुओं को छलकने से रोकने की भरसक कोशिश करते थें. लेकिन, मैं उनकी अंतहीन पीड़ा को महसूस कर सकता था. उनका लाडला तुसार जीवन के लिए संघर्ष कर रहा था. मैं अपने जीवन के अंत हो जाने के बारे में सोचने लगा था.
मुझे पक्का विश्वास हो चला था कि शायद मेरे जीवन के दिन बस अब गिनती के हैं. मेरा इलाज जारी था, लेकिन शुरुआती चार महीने बहुत ही ज्यादा निराशा के थे. उसी दौरान मैंने खूब किताबें पढ़नी शुरू की. मैंने प्रसिद्ध साइकिलिस्ट लांस आर्मस्ट्रांग और क्रिकेट खिलाड़ी युवराज सिंह की ऑटोबायोग्राफी भी पढ़ी. इन किताबों को पढ़ने से मुझे बहुत हौसला मिला. मेरे सोचने का नजरिया बदलने लगा. मैं सोचने लगा कि ये दोनों भी तो मेरी तरह कैंसर से जूझ रहें थें. आज बिल्कुल भले-चंगे हैं. ये अगर कैंसर को मात दे सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं? कीमोथेरेपी के दौरान मैं ज्यादातर बिस्तर में ही रहता था, लेकिन किताबें पढ़ना, लिखना और सिनेमा देखना मेरे प्रिय शगल बन चुके थें. लंबी शारीरिक और मानसिक जद्दोजहद के बाद कैंसर को अपने सकारात्मक सोच और परिवार के लोगों के सहयोग से मैंने मात दे दिया था. मैं अपने प्रेरक स्टीफन विलियम हॉकिंग के बारे में सोचता था कि कैसे 19 वर्ष की उम्र में डॉक्टर्स ने उनकी असाध्य बीमारी एस्ले के कारण दो साल का समय भी नहीं दिया था. आज हॉकिंग 45 वर्ष के हैं और व्हील चेयर में रहने के बावजूद दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक माने जाते हैं.
जनवरी 2015 में मैं बिल्कुल ठीक होकर अपनी पढ़ाई में भी जुट गया और दसवीं की परीक्षा भी पास कर ली. हालांकि डॉक्टर्स ने सलाह दिया था कि मुझे हर चार महीने में रेगुलर चेकअप के लिए एम्स आना होगा. पढ़ाई के साथ नॉवेल ‘द पेशेंट पेशेंट’ लिखने का काम, जो मैंने अपनी बीमारी के दौरान शुरू किया, जारी रखा. ‘द पेशेंट पेशेंट’ कैंसर से मेरे संघर्ष की कहानी है. बीमारी के दौरान लिखना मेरे लिए एक बहुत ही असरकारी थेरेपी था. मैं सोचता हूं कि मेरा जीवन बहुत ही अनिश्चय में रहा है, लेकिन मैंने जीवन की खुशियों के साथ जीना सीख लिया है. जीवन का अनिश्चय इसे और भी रोमांचकारी बनाता है. अपने जीवन के अनुभव से मैं ये कह सकता हूं कि हमें ये मानना ही होगा कि जीवन हमारे अख्तियार में नहीं है. जरूरी नहीं है कि जीवन में सब कुछ हमलोगों के सोचने के तरीके से ही हो. जो होता है उस पर अपना अख्तियार नहीं होता है, लेकिन यह जरूर है कि जिस तरीके से चीजों से निबटा जा सकता है, उस पर हम जरूर अपना अख्तियार रख सकते हैं.
आगे जीवन में मैं उन्हीं चीजों को करना चाहूंगा, जो मेरे पसंद का है. लेखनी के माध्यम से सामाजिक मुद्दों को भी उठाना चाहता हूं. मैं खूब कविताएं लिखना चाहता हूं. ढेर सारी कहानियां लिखना चाहता हूं, ताकि पाठकों को हंसा सकूं और थोड़ा
रुला भी…